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This Article is From May 25, 2018

टैगोर की बड़ी रचना और प्रधानमंत्री की छोटी सी चूक

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जून 09, 2018 16:20 pm IST
    • Published On मई 25, 2018 19:39 pm IST
    • Last Updated On जून 09, 2018 16:20 pm IST
विश्व भारती के दीक्षांत समारोह में आए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर को याद करते हुए उनका रिश्ता गुजरात से खोज निकाला. यह जानकारी दी कि अहमदाबाद में रहते हुए उन्हें 'क्षुधित पाषाण' लिखने का ख़याल आया. लेकिन यहां भी उनसे एक चूक हो गई. 'क्षुधित पाषाण' एक कहानी है जिसे उन्होंने उपन्यास बता डाला. इस कहानी पर दो फ़िल्में भी बन चुकी हैं. गुलज़ार की फिल्म 'लेकिन' भी इसी कहानी पर केंद्रित है.

लेकिन प्रधानमंत्री की यह कोई ऐसी चूक नहीं है कि इस पर उनका मज़ाक उड़ाया जाए. सच है कि इससे बड़ी गलतियां वे पहले कर चुके हैं. वैसे भी वे साहित्य के आदमी नहीं हैं. ज़्यादातर लोगों के लिए टैगोर का मतलब 'गीतांजलि' और उस पर मिला नोबेल सम्मान है जो उनके लिए उचित गर्व की अनुभूति जगाता है. मगर प्रधानमंत्री अगर टैगोर को याद करते हैं, उनके प्रति श्रद्धा जताते हैं तो यह अपेक्षा जागती है कि वे उनके विचारों का भी सम्मान करें.

इस मोड़ पर टैगोर हमारे प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी की वैचारिकी के लिए दुविधा और संकट पैदा करने लगते हैं. टैगोर के लेखन में करुणा और मनुष्यता की अद्भुत जगह है. संभवतः उनके पूरे लेखन और दर्शन की कसौटी यही मनुष्यता है. वे पाते हैं कि हमारा राष्ट्रवाद  इस मनुष्यता को छोटा करता है. 100 साल पहले- ठीक-ठीक कहें तो 1916 में - टैगोर ने जापान में राष्ट्रवाद पर तीन व्याख्यान दिए थे. साल भर बाद ये व्याख्यान किताब की शक्ल में छपे. इन्हीं में एक जगह वे कहते हैं- 'राष्ट्रवाद वह सबसे ताकतवर एनिस्थीसिया है इंसान ने जिसका आविष्कार किया है.' हम याद कर सकते हैं कि मार्क्स ने धर्म को अफ़ीम बताया था जो शोषित-पीड़ित जनों के ज़ख़्म भूलने में उनकी मदद करता है. टैगोर राष्ट्रवाद को भी एक नशा ही बताते हैं.

दरअसल टैगोर ने जब यह व्याख्यान दिए तो प्रथम विश्वयुद्ध चल रहा था. भारत में ब्रिटिश राज अपने चरम पर था. वे यह देख पा रहे थे कि भारत की औपनिवेशिकता ब्रिटिश राष्ट्रवाद की कोख से ही निकली है. उन्होंने बहुत साफ़ लिखा- 'राष्ट्रवाद बहुत बड़ा ख़तरा है. यह वह चीज़ है जो बरसों से भारत के संकटों की तह में रही है. और जितना हम एक ऐसे राष्ट्र द्वारा शासित हैं जो अपने दृष्टिकोण में पूरी तरह राजनीतिक है, उतना ही हमने, अतीत से अपनी विरासत के बावजूद, अपने भीतर अपनी राजनीतिक नियति पर भरोसा विकसित करने की कोशिश की है.'

पश्चिम के इस राजनीतिक राष्ट्रवाद से टैगोर हमें बार-बार सावधान करते हैं. वे यहां तक लिखते हैं कि समाज सहज है, राष्ट्र कृत्रिम. इस मोड़ पर वे दूसरों से असहमति रखते भी दिखाई पड़ते हैं. लेकिन कई विद्वान और विचारक उनकी इस चिंता में साझा करते हैं. भारतीयता और हिंदुत्व पर आजीवन मुग्ध रहे और इसे आधुनिक सभ्यता के सारे संकटों का हल बताने वाले रोम्यां रोलां ने भी अपने युद्धविरोध के साथ टैगोर के राष्ट्रवाद विरोधी विचारों का समर्थन किया था. उनके बीच हुई बातचीत मनुष्यता के प्रति उनकी आस्था को लेकर पढ़ी जानी चाहिए. इसी तरह सत्य के स्वतंत्र अस्तित्व के प्रश्न पर टैगोर से बात करने वाले महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टाइन भी मानते थे कि राष्ट्रवाद एक रोग है. इसे उन्होंने चेचक बताया था.

बहरहाल, टैगोर के लेखन में राष्ट्रवाद और धार्मिक पहचान का यह प्रश्न इस किताब से आगे-पीछे दूर तक पसरा हुआ है. यही नहीं, अहिंसा और राजा के कर्तव्य के प्रश्न को समेटता उनका उपन्यास 'राजर्षि' उन्नीसवीं सदी के आख़िरी दौर में उस समय ही आ गया था जब गांधी बौद्धिक तौर पर खड़े ही हो रहे थे. 1909 में आया उनका उपन्यास 'गोरा' फिर थोपी हुई पहचानों के आधार पर विकसित उद्धत राष्ट्रवाद का लगभग मज़ाक बनाता है जब उम्र भर हिंदुत्व की श्रेष्ठता का जाप करने वाला नायक पाता है कि दरअसल वह तो एक ईसाई दंपती की संतान है. इसी तरह बंगाल के विभाजन की पृष्ठभूमि पर लिखा गया "घरे-बाइरे' राष्ट्रवाद की संकुचित बहस को मानववाद की कसौटी पर आगे बढ़ाता है. इन सबको पढ़ते हुए एक विचार के तौर पर राष्ट्रवाद का खोखलापन ही दिखाई पड़ता है.

वैसे यह ज़रूरी नहीं कि प्रधानमंत्री टैगोर से सहमत ही हों. बहुत सारे मामलों में महात्मा गांधी और टैगोर भी एक-दूसरे से असहमत मिलते हैं. किसी भी लोकतंत्र में असहमति एक गरिमापूर्ण अधिकार है. प्रधानमंत्री की पार्टी में टैगोर से असहमत लोगों की कमी नहीं है. जिस दीनानाथ बतरा को संघ परिवार ने शिक्षा को दुरुस्त करने का ज़िम्मा दे रखा है, वे टैगोर के लिखे कुछ अंशों को पाठ्य-पुस्तकों से हटाने का सुझाव दे चुके हैं.

लेकिन संकट तब होता है जब आप अपनी असहमति नहीं जताते, बस श्रद्धा जताते हैं. ऐसा करते हुए आप टैगोर को एक मूर्ति में बदलते हैं, जैसे गांधी को बदलते हैं या अंबेडकर को बदलते हैं. यह बेजान मूर्ति आपकी पूजा के काम आ सकती है, देश में स्पंदन पैदा नहीं कर सकती. यह एक तरह का पाखंड है जो संघ की वैचारिकी इसलिए करने को मजबूर है कि यह देश अब भी गांधी, टैगोर या अंबेडकर को प्यार करता है. वरना यह वैचारिकी बनाती तो गोडसे की मूर्तियां ही हैं. ऐसे में टैगोर का 'क्षुधित पाषाण' कहानी कहलाए या उपन्यास कह दिया जाए- इससे उसे क्या फ़र्क पड़ता है.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...

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