प्रियदर्शन की बात पते की : लालू, नीतीश और बिहार

प्रियदर्शन की बात पते की : लालू, नीतीश और बिहार

नई दिल्ली:

साल 1990 में जब रघुनाथ झा और रामसुंदर दास जैसे उम्मीदवारों को पीछे छोड़कर लालू यादव ने पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री का पद संभाला था, तब लालू यादव को छोड़कर किसी को यक़ीन नहीं था कि बिहार में यह एक नए दौर की शुरुआत है। तब बिहार पर हावी सामंती दबदबे को लालू यादव अपने चुस्त जुमलों से तोड़ते और कहा करते कि राजा हमेशा रानी के पेट से पैदा नहीं होता- वे 20 साल शासन करेंगे।
 
दरअसल, यह मंडल के बाद के पिछड़ा उभार की राजनीति का दौर था, जिसने पिछड़ी हुई हिंदी पट्टी में सामाजिक न्याय की ऐतिहासिक संभावना पैदा की। अफ़सोस कि इस संभावना को खुद लालू यादव ने पहले छिछले राजनीतिक अवसरवाद में बदला और फिर नितांत पारिवारिक खेल बना डाला।
 
इस पिछड़ी संभावना को पहले ही नाक- भौं सिकोड़ कर देखने वाली अगड़ी ताकतें इसे संदिग्ध बनाने के लिए जिस मौके की तलाश में थीं, वो उन्हें राज्य में चारा घोटाले ने दे दिया और अचानक लालू यादव की राजनीति भ्रष्टाचार और कुनबापरस्ती के चुटकुले से होती हुई अपहरण उद्योग के साथ बिहार में जंगल राज की दास्तान में बदल गई। लालू की इस राजनीति ने जनता परिवार में ऐसी फूट पैदा की कि जॉर्ज और नीतीश जैसे ख़ुद को सेक्युलर बताने वाले नेता बीजेपी के साथ मोर्चा बनाकर लालू को हराने की मुहिम के सिपाही बने और अंततः इसमें कामयाब भी रहे।
 
साल 2005 में नीतीश बिहार के मुख्यमंत्री बने और बीजेपी-जेडीयू की जोड़ी ने जंगल राज ख़त्म कर बिहार में सुशासन लाने का दावा किया। मगर जो लोग बिहार की राजनीति को लालू और नीतीश की अदलाबदली के तौर पर देखकर संतुष्ट हैं, वे ये समझने में नाकाम हैं कि बिहार में वाकई इतिहास का चक्का चल चुका है, अब वहां राजनीति को पीछे लौटाया नहीं जा सकता।
 
अगर लालू यादव मुख्यमंत्री न बने होते तो नीतीश की बारी कभी न आती, और नीतीश न होते तो जीतन राम मांझी का रास्ता कभी न बनता। दरअसल, जो लोग बिहार में नीतीश और लालू यादव के बीच हुए नए गठबंधन को मजबूरी बता रहे हैं, वे यह समझने में नाकाम हैं कि यह फौरी राजनीति की मजबूरी से ज़्यादा इतिहास के साथ चलने की मजबूरी है, जिससे लालू और नीतीश दोनों बेख़बर हैं।
 
तो राजनीति अपना काम कर रही है, लोकतंत्र अपना काम कर रहा है और इतिहास भी अपना काम कर रहा है। नीतीश आएं या लालू जाएं या फिर बीजेपी-कांग्रेस आएं-जाएं, अब उनके सामने एक बदला हुआ बिहार है, जिसमें पिछड़ों की उपेक्षा संभव नहीं है। बेशक, ऐसा भी समय आएगा जब ये ताकतें विकास का अपना एजेंडा समझेंगी और बनाएंगी और सामाजिक न्याय के तकाजों को भी पूरा करेंगी। अगर नहीं करेंगी तो लोकतंत्र फिर उनका इलाज कर देगा।


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