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This Article is From Aug 27, 2015

बात पते की : 'मांझी' बनाने के लिए खुद भी 'मांझी' बनना पड़ता है

Reported by Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 27, 2015 12:38 pm IST
    • Published On अगस्त 27, 2015 11:17 am IST
    • Last Updated On अगस्त 27, 2015 12:38 pm IST
वर्ष 1971 के आम चुनावों में कांग्रेस का चुनाव चिह्न 'गाय-बछड़ा' था, मगर फिल्म 'मांझी - द माउंटेनमैन' में इंदिरा गांधी 'हाथ' को मजबूत करने की अपील कर रही हैं। इस तथ्यात्मक चूक के अलावा भी पूरी फिल्म बहुत फिल्मी है।

'60 से '80 के दशकों में बिहार के गांवों के मेले, लड़कियों के हंसने-खिलखिलाने और रीझ जाने के ढंग 'बॉलीवुडीय सतहीपन' से आगे नहीं जा पाए हैं। बोली-बानी में भी बिहार का पानी नहीं है, और बिहार के सामाजिक संकटों की तो पड़ताल तक नहीं है। जमींदार भी दिखते हैं, और नक्सली भी - मगर इतने सपाट कि कुछ समझ में नहीं आता।

यह सतहीपन किरदारों के कपड़ों तक में दिखाई पड़ता है। झारखंड के आदिवासी इलाकों में ज़रूर एक दौर में लड़कियां सिर्फ साड़ी बांधती थीं, मगर बिहार के गंवई इलाकों में ऐसा नहीं था। मगर शायद नायिका को कुछ ग्लैमरस बनाने की कोशिश में निर्देशक ने यह किया।

फिल्म में अगर कुछ उल्लेखनीय है तो वह नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी का अभिनय है। उसने वास्तव में अपने हिस्से का पहाड़ तोड़ा है। मगर लगता है, केतन मेहता के सामने कारोबारी मजबूरियों का पहाड़ इतना बड़ा हो गया था कि वह वास्तविकता का छैनी-हथौड़ा छोड़ प्रेम और पहाड़ की एक अधपकी कहानी कहने लगे। या तो उन्हें दशरथ मांझी की कहानी नहीं उठानी चाहिए थी, या फिर उसके तकाज़ों का खयाल रखना चाहिए था।

दशरथ मांझी बनाने के लिए दशरथ मांझी बनना पड़ता है, लेकिन वह कलेजा केतन मेहता के पास नहीं दिखा। वह बस जैसे मल्टीप्लेक्स के दर्शकों को एक फिल्म बेचने की कोशिश कर रहे थे - इसलिए भी गया जिले के ठेठ गंवई मजदूर को उसके प्रण और पसीने की आभा से जुड़ा कोई नाम देने की जगह उन्होंने उसे 'माउंटेनमैन' बना दिया।

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