कर्नाटक में नैतिक कौन, अनैतिक कौन...?

यह सच है कि कर्नाटक में विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस और जनता दल सेक्युलर, यानी JDS के बीच तीखा टकराव रहा.

कर्नाटक में नैतिक कौन, अनैतिक कौन...?

कांग्रेस नेता सिद्धारमैया (बाएं), BJP नेता बीएस येदियुरप्पा (बीच में) तथा JDS नेता एचडी कुमारस्वामी (फाइल फोटो)

नई दिल्ली:

यह सच है कि कर्नाटक में विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस और जनता दल सेक्युलर, यानी JDS के बीच तीखा टकराव रहा. कांग्रेस आरोप लगाती रही कि JDS दरअसल BJP की 'बी टीम' है. इस लिहाज़ से BJP की यह शिकायत जायज़ है कि अब चुनाव के बाद कांग्रेस और JDS का गठबंधन 'अपवित्र' और जनादेश-विरोधी है. इस 'अपवित्र' को इस बिना पर सही नहीं ठहराया जा सकता है कि ठीक यही काम BJP ने हाल ही के दिनों में गोवा सहित तीन राज्यों में किया है और आज जो लोग कर्नाटक में कांग्रेस की कोशिश को 'लोकतंत्र के साथ खिलवाड़' बता रहे हैं, वही BJP के कृत्य को अमित शाह का रणनीतिक पौरुष बताकर ताली बजा रहे थे.

दरअसल गठजोड़ की राजनीति की संभावनाएं और विडम्बनाएं दोनों भारतीय लोकतंत्र में अब बहुत करीने से पहचानी जाने लगी हैं. इसे पवित्र-अपवित्र की मासूम शैली से नहीं समझा जा सकता और न ही व्यावहारिक-सैद्धांतिक की चालाक और अवसरवादी शब्दावली से. इसी कर्नाटक में एसआर बोम्मई का मामला हो चुका है, जहां केंद्र के दखल को सुप्रीम कोर्ट ने गैरकानूनी करार दिया था और जिसके बाद तय हुआ था कि किसी भी सरकार के बहुमत का फैसला अंततः विधानसभा के भीतर हो सकता है, बाहर नहीं. इसी कर्नाटक में एचडी देवगौड़ा हुए हैं, जो 1996 की लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी BJP की 13 दिन की सरकार गिरने के बाद गठबंधन की मजबूरियों की वजह से प्रधानमंत्री बने थे. आज कर्नाटक के राज्यपाल वजूभाई वाला ने दरअसल तोड़-फोड़ और गठजोड़ का खेल दो दशक पहले गुजरात में देखा था. तब वह गुजरात BJP के अध्यक्ष हुआ करते थे और BJP के बाग़ी विधायकों को पार्टी से बाहर करवाने की मुहिम में लगे हुए थे. दरअसल, विधायकों को टूट से बचाने के लिए रिसॉर्ट ले जाने का जो खेल आज कांग्रेस खेल रही है, वह गुजरात में BJP के टकराव से ही शुरू हुआ था. तब बाग़ी शंकर सिंह वाघेला अपने साथ के बाग़ियों को खजुराहो ले गए थे और गुजरात की राजनीति में खजूरिया और हजूरिया शब्द प्रचलित हुए थे. आज शंकर सिंह वाघेला भले BJP से अलग हों, लेकिन BJP में आते-जाते रहे हैं.

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'90 के दशक में ही BJP ने ऐसे कई 'अपवित्र' गठजोड़ किए. उत्तर प्रदेश में 1993 का चुनाव सपा और बसपा ने मिलकर लड़ा, लेकिन जब दोनों की टूट हुई, तो 1995 में BJP को बसपा के साथ तालमेल में गुरेज़ नहीं हुआ - तब भी नहीं, जब बसपा अध्यक्ष कांशीराम BJP और कांग्रेस को खुलकर 'नागनाथ और सांपनाथ' कहा करते थे. जब कल्याण सिंह और मायावती में नहीं पटी, तो BJP ने एक और कमाल किया. 1998 में निर्दलीय के तौर पर जीते कई बाहुबली विधायकों को सीधे मंत्री बनाकर उनका समर्थन हासिल किया और सरकार बचाई. तब BJP में आज के अमित शाह और नरेंद्र मोदी की ही तरह कद्दावर लगते नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था कि इन बाहुबली नेताओं का भविष्य देखिए, अतीत नहीं.

ऐसे 'अपवित्र' गठबंधनों और मजबूरी भरे समर्थनों का सिलसिला इसके आगे-पीछे पसरा पड़ा है. 1989 के चुनावों में राजीव गांधी की कांग्रेस सबसे बड़े दल के तौर पर उभरी, लेकिन सरकार जनता दल ने बनाई, जिसका किसी ने बुरा नहीं माना - तब भी हैरानी नहीं जताई, जब उस सरकार की पालकी एक तरफ BJP और दूसरी तरफ लेफ्ट फ्रंट ढोते रहे. 1993 में पीवी नरसिम्हा राव की अल्पमत सरकार का दोनों धड़े अरसे तक परोक्ष साथ देते रहे. जब BJP अविश्वास प्रस्ताव लाई, तो लेफ्ट उसके साथ खड़ा नहीं हुआ, जब लेफ्ट अविश्वास प्रस्ताव लेकर आया, तो BJP उसके साथ खड़ी नहीं हुई. तीसरे अविश्वास प्रस्ताव के समय कांग्रेस ने झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों को ख़रीदकर अपना संकट हल कर लिया.

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ऐसे उदाहरणों की भरमार है. कह सकते हैं कि इन सबमें भारतीय लोकतंत्र की कुछ सीमाएं झांकती हैं, लेकिन यह भी सच है कि गठबंधन की इस राजनीति ने हाशिये पर खड़े दलों और समुदायों को ताकत और आवाज़ दी है. अगर गठबंधन राजनीति की यह मजबूरी नहीं होती, तो क्या रांची में बैठा कोई आदिवासी सोरेन परिवार यह कल्पना कर सकता था कि वह सोनिया और राहुल गांधी से संवाद कर पाएगा...? अगर यह राजनीति नहीं होती, तो क्या कोई मुसहर जीतनराम मांझी बिहार का मुख्यमंत्री होने का सपना देख पाता...? आपकी नज़र में चाहे जितना दुर्भाग्यपूर्ण हो, इसी गठजोड़ के ज़रिये सत्ता अपनी संभावनाओं और विरूपताओं के साथ निचले तबकों तक छलकती हुई पहुंची है. बिहार की बात चली है, तो नीतीश कुमार का भी उदाहरण याद कर लें. वह बड़ी सुविधा से एक ही कार्यकाल में मोदी से लेकर राष्ट्रीय जनता दल, यानी RJD तक से दोस्ती करते रहे हैं. चुनाव उन्होंने RJD के साथ मिलकर लड़ा, और तब लालू प्रसाद यादव का जातिवाद और भ्रष्टाचार भूल गए. इसके बाद BJP के साथ मिलकर सरकार बचाई, तो उसकी सांप्रदायिकता भूल गए. जबकि एक समय ऐसा था, जब नरेंद्र मोदी के साथ अपनी तस्वीर छापे जाने पर आगबबूला होकर उन्होंने बाढ़ के दौरान बिहार को गुजरात से मिली मदद तक वापस कर दी थी.

जम्मू-कश्मीर में PDP और BJP का गठबंधन भी इसी बेतुकेपन का एक और उदाहरण है. दोनों पार्टियां एक-दूसरे के ख़िलाफ़ जैसे बंदूक ताने हुए हैं, लेकिन दोनों ने एक-दूसरे की कुर्सी को सहारा दे रखा है.तो सवाल गठबंधनों के पवित्र या अपवित्र होने का नहीं है, भारतीय राजनीति और लोकतंत्र की तय कसौटियों पर खरे उतरने का है. यह अलग बात है कि यहां तक आने के लिए राजनीतिक दल जो धत्तकरम करते हैं, उनमें वे एक-दूसरे को जैसे टक्कर देते हैं. जिस येदियुरप्पा को BJP आज मुख्यमंत्री बना रही है, वह भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल जा चुके हैं और एक बार पार्टी छोड़कर अपनी अलग पार्टी भी बना चुके हैं - यह तथ्य BJP को परेशान नहीं करता, क्योंकि उनके ज़रिये वह सरकार बना सकती है. जिन बेल्लारी बंधुओं को भ्रष्टाचार का पर्याय मान लिया गया, उन्हें BJP ने साथ रखा - ज़ाहिर है, ऐसे ही अवसरों के लिए जब त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में घोड़ामंडी लगे तो वह ख़रीद-फरोख़्त कर सकने लायक साधन जुटा सके.

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अब कांग्रेस-JDS गठबंधन पर आएं. अगर दोनों दल आपसी समर्थन के लिए पैसे के लेनदेन को दूर रखते हैं, अगर पिछली कटुताएं भूलकर आपसी सहयोग को तैयार हो जाते हैं, और अंततः मिलकर सरकार बनाने को तैयार हो जाते हैं, तो यह भारतीय लोकतंत्र की जटिलता का एक नया पन्ना भर है. अंततः कर्नाटक की जनता ने ही यह फैसला किया है. दोनों को 56 फीसदी वोट दिए हैं. यह वोट प्रतिशत किसी भी सरकार की लोकतांत्रिक वैधता के लिए काफ़ी है. कम से कम जिस तेज़ी से कांग्रेस और JDS ने साथ आने का फैसला किया है, उसमें BJP को सत्ता से दूर रखने की राजनीति भले हो, ख़रीद-फ़रोख़्त की रणनीति नज़र नहीं आती. लेकिन अगर येदियुरप्पा 104 विधायकों के समर्थन के आगे कुछ और विधायकों को जुटाने या पार्टियों में सेंधमारी करने या फिर कुछ को अनुपस्थित रखने का लालच देने की कोशिश करते दिखाई पड़ते हैं, तो बेशक वह अनैतिक होगा. विडम्बना यह होगी कि इसे ही BJP नैतिकता और लोकतंत्र की जीत बताएगी.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...

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