किसान आंदोलन जब भी होता है, फोकस उनकी उपज के दाम न मिलने पर कम होता है, शहरों में फल-सब्ज़ी और दूध के दाम बढ़ने पर ज़्यादा होता है. आप टीवी देखेंगे तो हम रिपोर्टर-एंकर लोग किसानों के बीच कम नज़र आएंगे, मंडियों में ही दाम पूछते रह जाते हैं. इसके कई कारण हैं... उस पर चर्चा का वक्त नहीं है. नवंबर 2009 की एक घटना बताना चाहता हूं. पश्चिम उत्तर प्रदेश से भारी संख्या में किसान दिल्ली आए. अगले दिन दिल्ली के अखबारों में जो हेडलाइन छपी वो कमाल की थी.
हिन्दी के एक अखबार की हेडलाइन थी- किसानों ने झुका दी सरकार
अंग्रेज़ी के एक अखबार की हेडलाइन थी- BITTER HARVEST,THEY PROTESTED,DRANK,VANDALISED AND PEED. मतलब, ख़राब फ़सल, उन्होंने विरोध किया, शराब पी, तोड़फोड़ की और पेशाब कर दिया.
तब से लेकर अब तक मीडिया के बड़े हिस्से में किसानों के प्रति नज़रिया नहीं बदला है. मध्यप्रदेश में प्रदर्शन कर रहे छह किसानों की हत्या हो गई है. यह इसी देश में हो सकता है कि राज्य का गृहमंत्री कह दे कि वहां मौजूद पुलिस और सीआरपीएफ में से किसी ने गोली नहीं चलाई, मगर किसान मरे गोली से ही. 24 घंटे के बाद आईजी पुलिस बयान देते हैं कि गोली पुलिस ने चलाई, मगर ये नहीं कहते हैं कि जो 6 किसान मरे हैं वो पुलिस की गोली से मरे हैं.
मंगलवार तक गृहमंत्री कहते रहे कि मध्यप्रदेश में दो ज़िलों को छोड़कर कहीं पर किसानों की तरफ से कोई आंदोलन नहीं है. बुधवार को आईजी कह रहे हैं कि दिल्ली से सीआरपीएफ की दस कंपनियां मांगी गई हैं. गृहमंत्री की बात पर यकीन कर लेते तो प्रधानमंत्री किसानों की स्थिति पर दिल्ली में चर्चा नहीं करते और न ही कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह तय प्रेस कॉन्फ्रेंस रद्द करते. वैसे, कृषि मंत्री स्वच्छता पखवाड़ा पर प्रेस कॉन्फ्रेंस करने वाले थे, किसान आंदोलन पर नहीं.
बुधवार को इंदौर, उज्जैन, देवास में कई जगहों पर हिंसा की घटना हुई हैं. कई जगहों पर कर्फ्यू लगा और मोबाइल इंटरनेट सेवा बंद कर दी गई. इसलिए कई जगहों से तस्वीरें या वीडियो नहीं आ पा रहे हैं. कहीं बस जला दी गई है तो कहीं दुकानों को तोड़ा गया है. मंदसौर में 6 किसानों की मौत के बाद किसानों ने ज़िलाधिकारी के साथ धक्का-मुक्की की. उन पर हमला किया. रतलाम-नीमच लाइन पर पटरियों को नुक़सान, रतलाम-नीमच रूट पर जो ट्रेन जहां है वहीं रोकी गई. देवास में गुस्साए लोगों ने हाटपीपल्या थाने के सामने प्रदर्शन किया और थाना परिसर में रखी गाड़ियों में आग लगा दी. सोनकच्छ में प्रदर्शनकारियों ने एक चार्टर्ड बस पर अपना गुस्सा उतारा, उस पर पत्थरबाज़ी की... इस दौरान कई यात्री अपनी जान बचाने के लिए भागे और कुछ बस में ही फंसे रहे... बाद में बस को खाली कराकर प्रदर्शनकारियों ने उसमें भी आग लगा दी... प्रदर्शन चल रहे हैं मगर इंटरनेट बंद है.
किसान आंदोलन को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हिंसक प्रदर्शन न हो. इससे मुद्दों से ध्यान हट जाता है. सारा ज़ोर इस पर होता है कि शांति बहाल की जाए, और इसका लाभ उठाकर उनके नेता मुख्यमंत्री, मंत्री के साथ फोटो खींचाकर आंदोलन समाप्ति की घोषणा कर देते हैं. राज्य में कई जगहों पर इंटरनेट बंद है फिर भी मुख्यमंत्री ट्वीट कर रहे हैं. उन्होंने कहा है कि वे खुद एक किसान हैं और उनकी परेशानी समझते हैं. आपकी सारी बातों पर सरकार अमल करेगी. वैसे मध्यप्रदेश कैबिनेट ने कुछ फैसले तो किए हैं...
-फ़सलों की बिक्री और दर तय करने के लिए आयोग
-5,050 रुपये क्विंटल तुअर दाल का ख़रीद मूल्य
-5,025 रुपये क्विंटल मूंग दाल का ख़रीद मूल्य
-20 जून से उड़द की ख़रीद, किसानों को फ़ौरन भुगतान
-नगदी के लिए बैंक-वित्त मंत्रालय से बात
-बैंक जितना संभव हो, नगद और बाकी राशि आरटीजीएस
-नगदी रही तो नगद भुगतान भी
आपने देखा होगा कि इस फैसले में नगदी पर ज़ोर है. क्या नोटबंदी के कारण किसानों के पास नगदी कम होने के कारण भी यह स्थिति पैदा हुई है. क्या यह महज़ संयोग रहा होगा कि बुधवार की सुबह दिल्ली के अखबारों के पहले पन्ने पर छह किसानों की मौत की ख़बर थी. इन्हीं अखबारों के भीतर कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय के दो-दो पन्ने के विज्ञापन छपे मिले. जस्ट आस्किंग.
इस विज्ञापन को पढ़कर लगा कि खेती के क्षेत्र में सरकार की इतनी उपलब्धियां हैं कि दो पन्ने से कम में उनकी गिनती नहीं हो सकती. काश इस विज्ञापन को देश के सारे किसान पढ़ लेते तो वे प्रदर्शन छोड़ आज जश्न मना रहे होते. मैंने दोनों पन्ने का ज्ञापन अंडरलाइन करके पढ़ा है. 2022 तक किसानों की आमदनी दुगनी करने का संकल्प मिला. कृषि शिक्षा का बजट 47 फीसदी से अधिक किया गया है. वैसे मध्यप्रदेश कैबिनेट के फैसले के संदर्भ में इस विज्ञापन को देखना दिलचस्प है. पता चलता है कि किसान कुछ और मांग रहे हैं और सरकार कुछ और दे रही है. इस विज्ञापन में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना पर पूरा एक राइट अप है कि कैसे बड़ी संख्या में किसानों ने बीमा कवर लेना शुरू कर दिया है. बीमा लेने से क्या बीमा मिल जाता है.
इसी साल 7 अप्रैल को राज्यसभा में कृषि राज्य मंत्री ने कपिल सिब्बल के सवाल के जवाब में कहा कि 2016 के खरीफ सीज़न में यानी धान के सीज़न में किसानों ने 4, 270 करोड़ का बीमा दावा किया था, मगर उन्हें मिला सिर्फ 714 करोड़. ये 7 अप्रैल 2017 तक का डेटा है. आप समझ सकते हैं कि बीमा कवर खरीदना आसान है, बीमा लेना आसान नहीं है. यही कारण है विज्ञापन में कुछ है, सड़कों पर कुछ है. आप ये जवाब राज्यसभा की वेबसाइट पर जाकर चेक कर सकते हैं.
2014 में बीजेपी ने वादा किया था कि सत्ता में आने पर लागत में पचास फीसदी मुनाफा जोड़कर मूल्य देंगे. सरकार ने सप्रीम कोर्ट में कहा कि नहीं दे सकते. 28 मई को बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह इस संदर्भ में दो बातें कहते हैं. पहला कि लागत में ज़मीन की लागत जोड़कर कोई भी सरकार स्वामिनाथन फॉर्मूले को लागू नहीं कर सकती है.
फिर वे अपना हिसाब लगाते हैं. लागत मूल्य में ज़मीन की लागत घटा देते हैं और कहते हैं कि सरकार ने लागत से 43 फीसदी ज़्यादा न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया है.
ये सभी फसलों के बारे में कह रहे हैं या किसी एक फसल के बारे में साफ नहीं है, मगर 43 फीसदी ज़्यादा दाम की बात को मीडिया ने हेडलाइन के तौर पर छापा था.
मंगलवार को प्राइम टाइम में ही देविंदर शर्मा ने कहा कि अगर ऐसा हुआ होता तो सरकार हर विज्ञापन और प्रेस कॉन्फ्रेंस में दावा कर रही होती. हमने इस दो पन्ने के विज्ञापन में बहुत खोजा, जिसका दावा अमित शाह ने 28 मई को किया था. आप यकीन नहीं करेंगे कि दो पन्ने के विज्ञापन में न्यूनतम समर्थन मूल्य के बारे में कोई ज़िक्र ही नहीं है. तो क्या जो बात अमित शाह को पता है, कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय को पता नहीं है.
वैसे 2006 में एम. एस स्वामिनाथन ने राष्ट्रीय किसान आयोग के चेयरमैन के तौर पर यह सुझाव दिया था. ऐसा नहीं है कि सरकार एम. एस स्वामिनाथन को भूल गई है. इसी 19 मई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एम. एस स्वामिनाथन की एक किताब का लोकार्पण किया था. इस मौके पर प्रधानमंत्री ने कहा कि डॉ. स्वामिनाथन की खूबी यह है कि उनका काम व्यवहारिक वास्तविकताओं पर आधारित है.
अमित शाह कहते हैं कि ज़मीन की लागत जोड़कर कोई सरकार लागत का पचास फीसदी दाम दे ही नहीं सकती. न्यूनतम समर्थन मूल्य देने से सारे किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिल जाता है. इसी महीने दिल्ली में कृषि वैज्ञानिकों के बीच भारत के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यण ने कहा कि सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य पर दलहन खरीदने की पूरी कोशिश की. इसके बाद भी 60 फीसदी किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर दालें बेचनी पड़ीं. पूरी कोशिश करने के बाद भी सरकार 40 प्रतिशत किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य दे सकी. ये कहना है भारत के मुख्य आर्थिक सलाहकार का. 1,600 रुपया महीना कमाता है भारत का किसान. मंगलवार और बुधवार को महाराष्ट्र में तीन किसानों ने खुदकुशी की है.
This Article is From Jun 07, 2017
प्राइम टाइम इंट्रो : किसानों की समस्या का हल किसके पास?
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:जून 07, 2017 22:05 pm IST
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Published On जून 07, 2017 22:05 pm IST
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Last Updated On जून 07, 2017 22:05 pm IST
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