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This Article is From Jul 24, 2015

फांसी की सजा और उस पर होती राजनीति

Reported By Ravish Kumar
  • Blogs,
  • Updated:
    जुलाई 24, 2015 22:15 pm IST
    • Published On जुलाई 24, 2015 21:34 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 24, 2015 22:15 pm IST
दुनिया में 90 ऐसे देश हैं जो फांसी की सज़ा का विरोध करते हैं। इनमें भूटान और नेपाल भी शामिल हैं। ज़रूर इन देशों में भी जघन्य अपराध होता होगा और इन देशों में भी राष्ट्रभक्तों और मज़हब को मानने वालों की कमी नहीं होगी। भारत में फांसी की सज़ा पर रोक नहीं है।

पर इसकी सज़ा को लेकर राजनीति हो जाती है। इस राजनीति में भी मज़हब का टच आ जाता है। जैसे 30 अगस्त 2011 को जब तमिलनाडु की विधानसभा राजीव गांधी के हत्यारे की फांसी के ख़िलाफ़ सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास किया तो (*change) किसी ने जयललिता और करुणानिधि को देशद्रोही नहीं कहा। (*change)

राजोआना और भुल्लर की फांसी के मामले में अकाली दल के नेता खुलकर विरोध करते हैं, (*Change) अकाली दल की साथी बीजेपी फांसी का समर्थन करती है लेकिन अकाली दल को देशद्रोही नहीं कहती।

अफज़ल गुरु को फांसी देते वक्त सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में एक जगह कहा है कि समाज की सामूहिक चेतना को संतुष्ठ करने के लिए फांसी ज़रूरी है। अब हमें या आपको सोचना चाहिए कि ये सामूहिक चेतना कैसे बनती है। अगर अफज़ल गुरु और याकूब मेमन के बारे में सामूहिक चेतना है तो वो राजोआना भुल्लर या राजीव गांधी के हत्यारों के बारे में अलग कैसे हो जाती है। जो भी है ऐसी तथाकथित सामूहिक चेतना हकीकत तो है ही।

आप याद कीजिए निर्भया कांड के वक्त भी एक खास किस्म की उग्र सामूहिक चेतना निर्भया के हत्यारों को फांसी के लिए ललकार रही थी। बावजूद उसके बलात्कार की सज़ा को सख्त बनाने के लिए जुटे दिवंगत जस्टिस वर्मा ने अपनी रिपोर्ट में फांसी की सज़ा शामिल करने से इंकार कर दिया उस वक्त रायसीना और पूरे देश की सामूहिक चेतना सरेआम फांसी देने की भी बात करती थी। उसके कुछ ही साल बाद दिल्ली में ही मीनाक्षी नाम की एक लड़की को सरेआम चाकुओं से गोद कर मार दिया जाता है। सामूहिक चेतना नदारद हो जाती है। जस्टिस वर्मा सही थे। सामूहिक चेतना के भरोसे कानून नहीं चल सकता।

किस तरह से सामूहिक चेतना गढ़ी जा सकती है इसका एक और उदाहरण देता हूं। हमारे आज के मेहमान और मशहूर वकील उज्ज्वल निकम ने जयपुर में कहा कि कसाब के पक्ष में बन रही हवा का रुख बदलने के लिए उन्होंने झूठ बोला कि कसाब ने मटन बिरयानी की मांग की। उनके इस बयान से सामूहिक चेतना तो चुप्प रह गई मगर कई लोग सन्न रह गए।

पीटीआई के अनुसार निकम ने यह भी बताया कि बिरयानी की बात बताते ही मीडिया में पैनल डिस्कशन होने लगे। कसाब तो आतंकवादी ही रहा और फांसी भी हुई लेकिन जब यह झूठा तथ्य चुनावी नारेबाज़ी का हिस्सा बना तो बिरयानी के नाम से खास मज़हब के लोगों को निशाना बनाया जाने लगा कि एक सरकार उनके वोट के चक्कर में आतंकवादी को बिरयानी खिला रही है।

इससे होता यह है कि जो लोग फांसी की सज़ा का ही विरोध करते हैं वो अकेले पड़ जाते हैं। अफज़ल गुरु की फांसी के वक्त जब फांसी पर सवाल करने वालों को देशद्रोही बताया जा रहा था तब प्रमुख राजीतिक चिंतक प्रताप भानु मेहता ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा कि अदालत के फैसले से असहमतियां होती रहती हैं। (*change) ऐसे सवाल करना देशद्रोह नहीं है बल्कि लोकतंत्र मजबूत ही होता है। (*change) प्रताप भानु मेहता कहते हैं कि भारतीय राज्य ने अपनी कमज़ोरी ही प्रदर्शित की है।

इस बार सांसद असददुद्दीन ओवैसी ने मज़हब से जोड़कर अपने तरीके की सामूहिक चेतना गढ़ने का प्रयास किया है। जिसके कारण फांसी की सज़ा के विरोध पर बात करना वाकई मुश्किल हो गया है। ऐसा लगता है कि किसी आतंकवादी को मज़हब के नाम पर बचाया जा रहा है जबकि सवाल है एक बड़े केस के ज़रिये फांसी का विरोध। फांसी का विरोध करने वालों ने राजोआना और भुल्लर की फांसी का भी विरोध किया है यही है याकूब मेमन जिसकी फांसी की सज़ा को आजीवन कारावास में बदलने की बात हो रही है।

1993 के मुंबई बम धमाकों में टाडा अदालत ने याकूब मेमन को फांसी की सज़ा दी है। कैलेंडर पर भले ही 22 साल गुज़र गए हों मगर मुंबई के लिए कल की बात है जिसमें 257 लोगों की मौत हो गई थी और 700 लोग घायल हो गए थे। याकूब मेमन मुंबई धमाके में फांसी की सज़ा पाने वाला 13वां शख्स है। rediff.com पर याकूब मेमन के बारे में शीला भट्ट ने एक साफ सुथरी और अच्छी स्टोरी लिखी है। शीला को इस केस से जुड़े वकीलों ने बताया कि उन्हें सज़ा का यकीन तो था मगर फांसी होगी इस पर थोड़ा चकित है। उनका सवाल है कि याकूब का केस क्या रेयरेस्ट आफ दि रेयर है।

टाइगर मेमन और उसका परिवार धमाके से दो दिन पहले पाकिस्तान भाग गया था। मुंबई सीरीयल धमाकों का मुख्य आरोपी टाइगर और दाऊद आज भी फरार हैं लेकिन कराची में कुछ दिन नज़रबंद रहने के बाद याकूब मेमन भारत आने का फैसला करता है। शीला भट्ट ने लिखा है कि उसकी पत्नी राहिन ने कहा था कि हम इसलिए आए क्योंकि हम कराची में नज़रबंद थे। हमें पसंद नहीं आया। हम अपना वतन याद आ रहा था। (*change) हम शर्म से नहीं जीना चाहते थे। मैं याकूब को कहती थी कि मुझे माहिम के मछुआरिनें याद आती हैं।

मैंने यह प्रसंग इसलिए नहीं बताया कि आपको याकूब से सहानुभूति हो। धमाके के केस को हर दिन कवर करने वाले पत्रकार भी कहते हैं कि याकूब का मानना था कि इस धमाके में टाइगर मेमन ही कसूरवार है। पाकिस्तान में नज़रबंद याकूब ने टाइगर मेमन से कहा कि मैं गांधी के देश जा रहा हूं। जवाब में टाइगर मेमन ने था कि गांधी मत बनो, आत्मसमर्पण मत करो। अब इन सब बातों की तत्थात्मक पुष्टि नहीं हुई है। कहा यह जाता है कि खुफिया एजेंसी और याकूब मेमन के बीच कुछ डील हुई जिसे याकूब ने बखूबी निभाया। क्या डील हुई कभी रिकार्ड पर नहीं आ सकी इसलिए उससे मुकदमे में कोई मदद नहीं मिल सकी। न ही कभी याकूब ने बताया।

लेकिन यह सही है कि याकूब ने खुद को कानून के हवाले किया बल्कि अपने परिवार के अन्य सात सदस्यों को भी भारत ले आया। याकूब को लगा कि बदले में उसके साथ नरमी बरती जाएगी। एक कहानी यह भी है कि काठमांडू एयरपोर्ट पर याकूब के वकील ने उसे आत्मसमर्पण करने से रोका था। रेडिफ की शीला भट्ट ने जब वकील से पुष्टि के लिए फोन किया तो फोन काट दिया। जवाब नहीं मिला।

मुंबई पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी राकेश मारिया ने मुंबई बम धमाके की जो पड़ताल की वो भी इस केस को कवर करने वाले पत्रकारों के लिए किसी गाथा से कम नहीं है। मारिया और मुंबई पुलिस ने शानदार काम किया था। याकूब की फांसी का मामला फिलहाल इस मोड़ पर है कि 30 जुलाई को फांसी की तैयारी हो रही है, दो बार सुप्रीम कोर्ट ने याकूब की याचिका रिजेक्ट की है, राष्ट्रपति ने की है और एक और बार सोमवार को सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच इस पर सुनवाई करेगी। इस बीच rediff.com काम ने पूर्व खुफिया अधिकारी दिवंगत बी रमन का 2007 का लिखा एक अप्रकाशित लेख छापा है। जिसे लेकर दिल्ली की मीडिया में काफी चर्चा है।

rediff.com ने इस लेख को रमन साहब के भाई की इजाज़त से छापा है। रमन साहब ने शीला को बताया था कि वे फांसी की सज़ा से दुखी हैं क्योंकि इस बात का ख्याल रखा जाना चाहिए था कि उसने जांच एजेंसी की मदद की और अपने परिवार के बाकी सदस्यों को भारत लाया। रमन उस वक्त रॉ की पाकिस्तान डेस्क के मुखिया थे। उन्होंने शीला भट्ट से फोन कर कहा कि भारत बहुत गलत कर रहा है। वे इस बात से आहत थे कि उनके अधिकारियों ने मुंबई कोर्ट में झूठ बोला है। याकूब ने भारत की मदद की इसलिए उसका बचाव किया जाना चाहिए। रमन ने अपनी बात को सार्वजनिक करने से मना किया था क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि दूसरे बच जाएं। उनका कहना था कि याकूब का पाकिस्तान से भारत ले आना भारतीय खुफिया एजेंसी की ऐतिहासिक कामयाबी है।

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