ब्रिटेन में हुए जनमत संग्रह को लेकर भारतीय मीडिया की दिलचस्पी से कुलबुलाहट सी हो रही है। क्या भारतीय मीडिया भारत में भी जनमत संग्रह के विचार को प्रोत्साहित करेगा। क्या हमारे राजनीतिक दलों को भी जनमत संग्रह पसंद आ रहा है, क्या वे दल और संगठन जनमत संग्रह की मांग करेंगे जो विदेशों में बस गए भारतीयों के लिए भारत के चुनावों में मतदान के अधिकार की बात करते हैं। यही सवाल उन भारतीयों से भी पूछा जाए जो ब्रिटेन में बसे हैं और वहां के जनमत संग्रह में हिस्सा ले रहे हैं। क्या वे भारतीय नेताओं से मांग करना चाहेंगे कि अपने यहां भी जनमत संग्रह होना चाहिए। दुनिया के सबसे बड़े और महान लोकतंत्र में राष्ट्रीय या राज्य के स्तर पर जनमत संग्रह क्यों नहीं होता है। जबकि पंचायतों के स्तर ग्राम सभाओं का सिस्टम जनमत संग्रह जैसा ही तो है। हमने सोचा कि ये क्वेश्चन आपके सामने पुट अप कर देते हैं मगर एक सलाह भी है। भारत में जनमत संग्रह की बात करते हुए जगह और मुद्दे का ज़िक्र न करें क्योंकि इससे पहले जिन लोगों ने यह काम किया है उनकी पुरानी कमीज़ स्याही फेंक कर और भी ख़राब कर दी गई है। ब्रिटेन के जनमत संग्रह के फैसले से भारत से लेकर दुनिया भर में लोग उन लोगों की हंसी उड़ा रहे हैं जिन्होंने ईयू से निकल जाने के पक्ष में मतदान किया है। कई लोग कह रहे हैं कि यह वो सुबह नहीं जिसका हमें इंतज़ार था। हम इस ब्रिटेन को नहीं जानते। ये वो ब्रिटेन नहीं है जहां अलग अलग मुल्कों के लोग आकर रहते थे। यहां अधिकारी बने, निर्वाचित नेता तक बने। जिसके लोग सहनशील थे। उनके कोई पूर्वाग्रह नहीं थे। कोई नफरत की बात नहीं करता था। अलग होने वाली जमात को इस्लाम विरोधी, नस्लभेदी, अंध राष्ट्रभक्त और कुतर्की कहा जा रहा है। कोई कह रहा है कि इन लोगों ने ब्रिटेन की राजनीति को हमेशा के लिए ज़हरीला कर दिया। कुलमिलाकर इन्हें हिकारत की निगाह से देखा जा रहा है। एक ऐसी भीड़ के रूप में देखा जा रहा है जिसमें सोच समझ कर फैसले करने की क्षमता नहीं है। राजनीतिक शब्दावली में इस भीड़ की धुर दक्षिणपंथी और कुतर्की छवि पेश की जा रही है।
ब्रिटेन के दो बड़े दल हैं। एक कंजर्वेटिव पार्टी और दूसरा लेबर पार्टी। इन दोनों दलों ने ईयू में बने रहने का समर्थन किया था। कुछ वाम नेताओं ने पार्टी लाइन से अलग होकर ईयू से अलग होने वाली जमात के साथ मतदान भी किया। लीव जमात को एक राजनीतिक और वैचारिक रंग में रंगना सही होगा क्या। क्या ऐसा हो सकता है कि कुछ ही हफ्तों में ब्रिटेन की आधी से अधिक आबादी अचानक नस्लभेदी और दक्षिणपंथी हो जाए।
ब्रिटेन की संसद के 650 सांसदों में से 559 सांसद तो सिर्फ सत्ताधारी कंर्जरवेटिव और विपक्षी दल लेबर पार्टी के सदस्य हैं। इन दोनों ने अलग न होने की अपील की थी। आखिर लोगों ने दो दलों के 559 सांसदों को क्यों नहीं सुना जिन्हें वे वर्षों से सुनते आए हैं। क्या इसलिए लोगों ने लेबर पार्टी को भी रिजेक्ट किया क्योंकि इस मामले में लेबर और कंजर्वेटिव एक से हो गए थे जैसे भारत में कई बार बीजेपी कांग्रेस की आर्थिक नीतियों में कोई अंतर नहीं दिखता। 559 सांसदों की दो पार्टियों की जगह एक सांसद वाली पार्टी यूके इंडिपेंडेंस पार्टी को इतना स्पेस कैसे मिल गया। इसके नेता नाइजल पॉल फराज कैसे ईयू से अलग होने वाली जमात की प्रतिनिधि आवाज़ बन जाते हैं। क्या इसलिए कि फराज भड़काऊ और बेतुकी बातें करते हैं। फराज ने कहा है कि यह जीत उन आम लोगों की जीत है जो राजनीति से तंग आ गए हैं। वो राजनीति जो आम आदमी की कद्र नहीं करती है। आप फराज को बोलते सुनेंगे तो समझ जायेंगे कि भारत में भी ऐसा हुआ है और हो रहता है।
क्या फराज जैसे नेताओं ने ब्रिटिश नेताओं के बोलने का व्याकरण बदल दिया है। फराज और पूर्व मेयर बोरिस जॉनसन जैसे नेता राजनीतिक तुष्टिकरण के सवाल उठाते हैं, नस्ल और प्रवासियों पर जमकर हमले करते हैं। बीबीसी से फराज ने कहा कि लोगों की चिन्ता जायज़ है। अगर कोई रोमानियन आपके पड़ोस में आकर रहने लगे तो आप क्या करेंगे। फराज ने कहा है कि अगर ब्रिटेन ईयू से निकल जाएगा तो औरतों पर हमले नहीं होंगे क्योंकि दूसरे यूरोपीय देशों से आए लोग कम हो जाएंगे। फराज की बातें भयानक रूप से स्त्री विरोधी हैं। कहते हैं कि ब्रेस्ट फीडिंग कोने में करना चाहिए। जो मां होती हैं वो मर्दों की तुलना में बिजनेस के लिए कम फायदेमंद होती हैं। ऐसे लोगों को वोट कैसे मिल जाता है और मीडिया में कवरेज भी। इनकी पार्टी के कार्यक्रम भी जान लीजिए।
- टैक्सी ड्राईवर के लिए यूनिफार्म अनिवार्य किया जाएगा
- सांसदों को उनके ख़र्चे की ज़्यादा आज़ादी होनी चाहिए
- ट्रेन को पारंपरिक रंगों में फिर से पेंट किया जाए
- ब्रिटिश फुटबॉल टीम में तीन से ज्यादा विदेशी खिलाड़ी न हों।
ऐसी कुतर्की बातें भारत में कही भी जा रही हैं और हो भी रही हैं। कोई संस्कृति के बहाने तो कोई किसी खास सब्जेक्ट के बहाने सबको एक खास तरह की ड्रिल करने के लिए कहा जा रहा है। दुनिया भर में माइग्रेशन एक चुनौती है। लेकिन जो मुल्क ग्लोबल अर्थव्यवस्था और नागरिकता के हिमायती हैं वो काम के लिए दूसरे देश से आए लोगों को कैसे मुल्क का आर्थिक दुश्मन घोषित कर सकते हैं। दुनिया के नेता मिलकर बोलते क्यों नहीं है इस पर। ये एक नेता और एक मुल्क की समस्या कैसे है। सीरीया, इराक और अफगानिस्तान की समस्या क्या शरणार्थियों ने पैदा की है। ब्रिटेन में नौकरियों और मज़दूरी का संकट क्या सिर्फ शरणार्थियों, प्रवासियों के कारण है। तब तो ये जर्मनी में सबसे अधिक होना चाहिए जहां सबसे अधिक रिफ्यूजी गए हैं।
ब्रिटेन में जनमत संग्रह से पहले तमाम बड़ी वित्तीय संस्थाओं और कॉरपोरट ने अपने कर्मचारियों को भी समझाने के काम में लगाया कि लोग ईयू से अलग होने का फैसला न करें, इससे उनके आर्थिक हितों को नुकसान पहुंचेगा। मीडिया में भी इस पक्ष को लेकर खूब बात हुई ही होगी। इसके बाद भी क्यों लोगों ने अलग होने का फैसला किया। लंदन जैसा वित्तीय केंद्र ईयू के साथ गया लेकिन कम बड़े शहर और ग्रामीण क्षेत्रों से लोग अलग होने के फैसले के साथ गए। अधिक संपन्न और शहरी मज़दूर वर्ग ईयू के साथ रहने की जमात में रहा तो कम संपन्न और शहरों से दूर रहने वाला मज़दूर तबका अलग होने वाली जमात के साथ गया। क्या इन सबके फैसले को दक्षिणपंथ के फ्रेम में समेटा जा सकता है। आम तौर पर यह समझा जाता है कि आर्थिक संकट के वक्त युवा वर्ग अंध राष्ट्रवादी, नस्लभेदी और दक्षिणपंथी हो जाता है लेकिन ब्रिटेन में मतदान करने वाले युवाओं में से 75 फीसदी ने ईयू में बने रहने के पक्ष में फैसला दिया है। इनकी उम्र 18 से 24 साल है। जबकि 50 से 65 साल के ज्यादातर मतदाताओं ने अलग होने के पक्ष में मतदान किया जिन्हें पुराने ब्रिटेन के हिसाब से पेंशन की सुविधा है, सरकारी नौकरियां हैं।
नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के संकटों के कारण अगर यह अंसतोष फैला है तो वहां के लोगों और मीडिया ने यह क्यों नहीं पूछा कि फराज या जॉनसन नेताओं के पास अर्थव्यवस्था का कौन सा दूसरा मॉडल है। जिसमें इस तरह के संकट नहीं होंगे। सबको नौकरी मिलेगी। क्या यूरोप भर के दक्षिणपंथी दलों के पास नव उदारवाद से अलग कोई आर्थिक विचार है। क्या हम इसे यूरोपीयन यूनियन जैसे एक ऐसी संस्था के संकट से समझने का प्रयास कर सकते हैं। ब्रिटेन ने कभी ईयू को मन से स्वीकार नहीं किया मगर क्या यह सही नहीं है कि ब्रिटेन में आधे से अधिक कानून ईयू के बनाए हुए ही लागू हैं। क्या उन तमाम कानूनों के ख़िलाफ़ इतनी बड़ी बग़ावत हुई है।
जर्मनी की चांसलर एंजेला मरकेल ने ब्रिटेन के फैसले पर अफसोस जताया है और कहा है कि ईयू को ब्रिटेन के साथ संबंध बनाकर रखने चाहिए। उन्होंने कहा कि उथलपुथल के इस दौर में शांति और संयम से काम लेना होगा। ईयू दुनिया का सबसे बड़ा आर्थिक इलाका है। जो सुरक्षा और स्थायित्व की गारंटी देता है। मरकेल के अनुसार ईयू एक यूनिक कम्युनिटी है। कहीं समस्या ईयू के ढांचे में तो नहीं है। वो यूरोप के बाज़ार को एक तो कर सका लेकिन अलग अलग राष्ट्रीय आकांक्षाओं को नहीं साध सका। ब्रिटेन का निकलना क्या यह कह रहा है कि आर्थिक आधार पर ग्लोबल नागरिकता गढ़ने का अभियान संकट में पड़ सकता है। यूरोपीय संघ की राजनीति पर मेरी पकड़ कम है फिर हम समझने का प्रयास करना चाहते हैं कि क्या यह मुमकिन है कि किसी राष्ट्र से आर्थिक नीतियां बनाने की शक्ति निकाल कर किसी संस्था को दे दी जाए और राष्ट्र का काम कहीं और से बनकर आने वाली नीतियों को लागू करना रह जाए, भले ही वो सबके भले के लिए बनती हों। अगर यह आधार है तो दुनिया के किस देश में वैश्विक वित्तीय संस्थाओं की बनाई गई नीतियां लागू नहीं हो रही हैं। अगर ईयू में खोट है तो क्या यह समझा जाए यूरोपीय राष्ट्रवाद का यह कृत्रिम कोरपोरेशन अब ज्यादा चल नहीं सकता। ध्यान रखियेगा ईयू के अस्तित्व पर पहले भी सकंट आए हैं और वह उनसे निकला है।
ब्रिटेन के फैसले पर कुलीन बुद्धिजीवी हंस रहे हैं। भारत के बुद्धिजीवी हंस रहे हैं कि लोकतंत्र के नाम पर भीड़तंत्र ने मूर्खतापूर्ण फैसला कर लिया। क्या हम वाकई किसी मूर्खतापूर्ण दौर में रह रहे हैं जहां कुतर्क ही मुख्य तर्क हो गया है। क्या पूरी दुनिया में कलयुग से पहले कुर्तकयुग आ गया है। क्या ऐसा कहना अहंकार नहीं होगा। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने जनमत संग्रह के फैसले को स्वीकार किया है। वे ईयू से निकलने के पक्षधर नहीं थे।
नतीजे आने के बाद कैमरन अपनी पत्नी समैंथा कैमरन के साथ आए और इस्तीफा दिया। भारत के नेता जब इस्तीफा देते हैं तो वे परिवार के साथ नहीं होते। समर्थकों और चमचों से घिरे होते हैं। पत्नियां तो कभी कभार ही दिखती हैं। हमारे नेताओं की पत्नियां गृहप्रवेश या करवा चौथ के समय नेता जी के साथ दिख जाएं वही बहुत है। मुझे अच्छा लगा कि जब कैमरन इस्तीफा दे रहे थे तब उनकी पत्नी एक दोस्त की तरह खड़ी थीं। स्कॉटलैंड की फर्स्ट मिनिस्टर ने कहा है कि स्कॉटलैंड ब्रिटेन से अलग होने के सवाल पर फिर से जनमत संग्रह करा सकता है। इसी अप्रैल में स्वीडन में एक सर्वे हुआ था जिसमें ईयू से अलग होने की बात नकार दी गई थी। उसमें एक सवाल यह भी था कि अगर ब्रिटेन छोड़ता है तो वे क्या करेंगे तब उस सर्वे में ईयू से अलग होने वाले की संख्या ज़्यादा हो गई थी। बाज़ार जो अलग अलग कारणों से हर दूसरे तीसरे दिन गिरता ही रहता है, शुक्रवार को कुछ ज्यादा भरभरा गया। सारी मुद्राएं थरथराने लगीं और भारत तक के शेयर बाज़ारों में हाहाकार मच गया। ऐसा लगा कि ब्रिटेन सिर्फ ईयू से नहीं, पूरी दुनिया से निकल कर चांद पर चला गया है।
क्या यूरोप में भाषा, संस्कृति और राष्ट्रवाद को लेकर कुछ नई किस्म की सुगबुगाहट है जिसे स्थापित और सत्ता से अभ्यस्त हो चुकी राजनीति कह नहीं पा रही है? क्या मौजूदा अर्थनीति में सबको समान अवसर मिलने का भ्रम टूट गया है? क्या ग़रीब अब यह देखने लगे हैं कि अमीर ही क्यों अमीर हो रहे हैं? क्या हम ब्रिटेन के इस फैसले को दुनिया भर में चल रही मौजूदा अर्थनीति के खिलाफ जनादेश के रूप में देख सकते हैं? क्या इस फैसले को दक्षिणपंथी फ्रेम में देखना सही रहेगा? मगर इससे पहले लंदन के नवनिर्वाचित मेयर का एक बयान पढ़ना चाहता हूं जो जनमत संग्रह के फैसले के बाद आया है। 'मैं लंदन में रहने वाले सभी यूरोपीय नागरिकों को साफ साफ संदेश देना चाहता हूं कि आप सभी का यहां स्वागत है। एक शहर के नाते आपके सभी योगदानों के प्रति आभार व्यक्त करते हैं और वह इस जनमत संग्रह के कारण नहीं बदलने वाला है। आज की तारीख में लंदन में दस लाख यूरोपीयन नागरिक रहते हैं और वो हमारे शहर में अपने श्रम, टैक्स और समय के अलावा नागरिक और सांस्कृतिक जीवन को समृद्ध करते हैं। इस पूरे अभियान के दौरान जो विभाजन हुआ है उसे भरने की ज़िम्मेदारी हमारी है। हमें उन बातों पर फोकस करना है जो हमें जोड़ती है। उस पर नहीं जो हमें तोड़ती है।'
This Article is From Jun 24, 2016
प्राइम टाइम इंट्रो : ब्रिटेन के जाने से कमज़ोर होगा ईयू?
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:जून 24, 2016 22:11 pm IST
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Published On जून 24, 2016 22:09 pm IST
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Last Updated On जून 24, 2016 22:11 pm IST
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