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This Article is From May 16, 2016

प्राइम टाइम इंट्रो : नेताओं, अपराधियों के निशाने पर पत्रकार

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 16, 2016 22:01 pm IST
    • Published On मई 16, 2016 22:01 pm IST
    • Last Updated On मई 16, 2016 22:01 pm IST
बिहार के सीवान ज़िले के पत्रकार राजदेव रंजन की हत्या की जांच सीबीआई को सौंप दी गई है। हिन्दुस्तान अख़बार के ब्यूरो चीफ राजदेव रंजन की हत्या के मामले में कुछ गिरफ्तारी तो हुई है मगर ठोस सुराग़ नहीं मिले हैं। सब की निगाह हत्या के कारणों पर है। सीवान ज़िले में जेल में बंद राष्ट्रीय जनता दल के पूर्व सांसद मोहम्मद शहाबुद्दीन की कथित भूमिका को लेकर सवाल उठ रहे हैं। सीबीआई जांच से यह बात साबित हो सकेगी कि इस मामले में मोहम्मद शहाबुद्दीन की क्या भूमिका थी। विपक्ष के तमाम आरोपों की सुई शहाबुद्दीन की तरफ जा रही है।

क्या पत्रकार राजदेव रंजन की हत्या के पीछे शहाबुद्दीन का हाथ है। पुलिस ने शहाबुद्दीन के करीबी माने जाने वाले लोगों को गिरफ़्तार तो किया है मगर अभी कोई भी बात ठोस रूप से सामने नहीं आई है। टाइम्स ऑफ इंडिया के देबाशीष कर्माकर की रिपोर्ट के अनुसार इस मामले में गिफ्तार किये गए उपेंद्र सिंह ने पूछताछ के दौरान बताया है कि 15 दिन पहले शहाबुद्दीन ने हत्या का इशारा किया था क्योंकि जेल से रिहा हुए उसके तीन लोगों में से एक ने राजदेव रंजन की हत्या के लिए ज़रूरी संसाधन जुटाने में मदद मांगी थी। उपेंद्र सिंह ने मदद करने से इंकार कर दिया था। उपेंद्र सिंह जून 2015 में बीजेपी सांसद ओम प्रकाश यादव के प्रवक्ता श्रीकांत भारती की हत्या के आरोप में गिरफ्तार हुआ था मगर ज़मानत पर बाहर आ गया। श्रीकांत भारती की हत्या नवंबर 2014 में हुई थी। ज़ाहिर है यह मामला अदालतों में लंबित मामलों में कहीं गुम तो नहीं हो गया है।

सीबीआई की जांच के दौरान ज़रूरी है कि श्रीकांत शर्मा की हत्या के मामलों की भी तफ्तीश की जाए और यह भी देखा जाए कि जेल में रहते हुए शहाबुद्दीन किन सुविधाओं के साथ रह रहा था। क्या श्रीकांत भारती की हत्या के तार भी जेल से जुड़़े हैं। अगर ऐसा है तो यह बेहद गंभीर मामला है। बीजेपी नेता सुशील कुमार मोदी ने आरोप लगाया है कि राजदेव रंजन ने ही आरजेडी विधायक और मंत्री अब्दुल गफ़ूर और शहाबुद्दीन की मुलाकात की तस्वीर लीक कर दी थी। सुशील मोदी ने कहा है कि मंत्री की मुलाकात के बाद जब विवाद उठा तो जेल अधीक्षक को बर्ख़ास्त कर दिया गया मगर नियम तोड़ने वाले मंत्री को बर्ख़ास्त नहीं किया गया। तेजस्वी यादव ने सुशील मोदी को चुनौती दी है कि अगर शहाबुद्दीन का नाम नहीं आया तो क्या वे माफी मांगेंगे। अप्रैल महीने में लालू यादव ने जब 77 सदस्यों की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की एक सूची जारी की जिसमें शहाबुद्दीन का भी नाम था तो इसे लेकर काफी विवाद हुआ। राजद के राष्ट्रीय प्रवक्ता मनोज झा ने कहा था कि निचली अदालतों से सज़ा मिली है लेकिन हाईकोर्ट में अभी उनकी याचिकाएं लंबित हैं। किसी भी आम नागरिक की तरह उन्हें भी हाईकोर्ट में जाने की इजाज़त है। राबड़ी देवी ने कहा था कि बीजेपी अपने आपराधिक छवि वाले नेताओं के ख़िलाफ़ कार्रवाई क्यों नहीं करती है। यह तो राजनीति की बात हो गई मगर अगर संदेह शहाबुद्दीन के कारण है और शहाबुद्दीन के चलते बिहार में एक ख़ास तरह के राजनीतिक माहौल का ज़िक्र आता है तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और अब सीबीआई दोनों इस एंगल के संदर्भ में सुनिश्चित करें कि जांच सही दिशा में और कम से कम समय में नतीजे पर पहुंचे।

सिर्फ सीबीआई को सौंप देने से या सीबीआई से जांच कराने की मांग कर देने से मामला शांत नहीं हो जाना चाहिए। पत्रकारों की हत्याएं कई राज्यों में हुईं हैं। हत्या की घटनाएं दिल्ली से लेकर गुजरात तक में हुई हैं मगर इस आधार पर राजदेव रंजन की हत्या को खारिज नहीं किया जा सकता है। ये सब उदाहरण राजनीतिक आरोप प्रत्यारोपों से जूझने के लिए हैं। इंसाफ़ का तकाजा है कि राजदेव रंजन की हत्या के संदर्भ में बात हो, जांच हो और सज़ा हो।

इस मामले में जो चार लोग हिरासत में लिए गए हैं उन्हें शराब रखने के आरोप में जेल भेजा गया है। हमारे सहयोगी मनीष कुमार का कहना है कि हत्या में शामिल शूटर अभी तक गिरफ़्तार नहीं हुआ है। पुलिस को कई सुराग़ मिले हैं जो जेल में बंद मोहम्मद शहाबुद्दीन तक जाते हैं मगर बिना शूटर के गिरफ्तारी के मामला आगे नही बढ़ सकता।

राजदेव रंजन की हत्या उसी जगह पर हुई है जहां नवंबर 2014 में श्रीकांत भारती की हत्या हुई थी। घटनास्थल पर तीन सीसीटीवी कैमरों की निगाह थी। एक सीसीटीवी कैमरा जिसके दायरे में घटना स्थल आता है उसमें 10 मई के बाद से रिकॉर्डिंग नहीं हुई है। पुलिस ने जांच के लिए भेजा है कि क्या रिकॉर्डिंग डिलीट कर दी गई है। अगर हां तो क्या डिलीट की हुई रिकार्डिंग वापस हासिल की जा सकती है। हिंदुस्तान अख़बार ने लिखा है कि एक दुकान पर यह सीसीटीवी कैमरा लगा था। इस कैमरे को हैंडल करने वाले से पुलिस ने पूछताछ की है। 15 मई के हिन्दुस्तान अख़बार के अनुसार हत्या में साइलेंसर युक्त पिस्टल का इस्तेमाल हुआ है। जिस तरीके से हत्या की गई है उससे लगता है कि यह काम पेशेवर अपराधियों ने ही दिया है। शरीर के जिन अंगों में गोली लगी है वहां पर गोली लगने के बाद बचने की संभावना नहीं रहती है। एक गोली सर में मारी गई है। एक गोली गर्दन में मारी गई है और तीसरी गोली लीवर के पास मारी गई थी। बाइक से गिरने के बाद अपराधियों को लगा कि कहीं बच न जाए तो सर में गोली मार दी। अख़बार लिखता है कि हत्या जिस तरह से की गई है उससे लगता है कि हत्या के पहले घटनास्थल की रेकी गई है। पुलिस दूसरे एंगल की भी तलाश कर रही है। कहीं इस हत्या का संबंध अन्य कारणों से तो नहीं है।

राजदेव रंजन के पीछे उनके दो बच्चे और पत्नी हैं। 15 साल का बेटा आशीष हाई स्कूल के रिज़ल्ट का इंतज़ार कर रहा है। सात साल की बेटी साक्षी तीसरी क्लास में पढ़ती है। पत्नी आशा एक प्राइमरी स्कूल में पढ़ाती हैं। 14 मई के दिन दोनों की सालगिरह थी। हिन्दुस्तान अख़बार के अनुसार 2005 के अक्टूबर में राजदेव पर हमला हुआ था। साथी पत्रकार ने जब टोका तो हमलावरों में से एक ने सीने पर पिस्तौल तान दी थी। उनकी टांग पर गहरा ज़ख्म आया जिसके कारण ऑपरेशन भी करवाना पड़ा। 2005 के हमले के ख़िलाफ़ एफआईआर नहीं करवाई थी। सहयोगी पत्रकार के अनुसार राजदेव बदमाशों को नहीं पहचानते थे। अज्ञात के ख़िलाफ़ तो मामला तो दर्ज हो ही सकता था।

हिन्दुस्तान के ही एक और पत्रकार विकास रंजन की 2008 में हत्या कर दी गई थी। विकास ने एक ख़बर छापी थी कि समस्तीपुर के व्यापारियों ने एक लूटे हुई ट्रक से दवाएं खरीदी हैं। 60 लाख की दवा थी उस ट्रक में। विकास की ख़बर के बाद एफआईआर हो गई और छापे पड़े तो पता चला कि कई व्यापारियों ने लुटे हुई ट्रक से दवा खरीदी थी। बड़ी संख्या में चोरी की दवाएं ज़ब्त हुई थी। इस ख़बर के बाद विकास रंजन की हत्या कर दी गई थी। 13 लोग आरोपी बनाए गए थे। कुछ लोग जेल में हैं, बाकी ज़मानत पर हैं। ऑफिस से निकलते ही विकास रंजन की गोली मार कर हत्या कर दी गई थी।

हमने विकास रंजन के परिवार से बात करने का प्रयास किया। लेकिन उन लोगों ने बात करने से इंकार कर दिया। परिवार ने कहा कि हम आठ साल पुरानी बात फिर से नहीं छेड़ना चाहते हैं। हम उनके सदमे को समझ सकते हैं। इसलिए इस घटना से संबंधित जो भी जानकारी हमने आपको बताई है वो इंटरनेट से ली गई है। 13 मई को राजदेव रंजन की हत्या हुई। 12 मई को पड़ोसी राज्य झारखंड में एक और पत्रकार की हत्या होती है। अखिलेश सिंह स्थानीय टीवी चैनल ताज़ा टीवी के लिए काम करते थे। रात दस बजे अपनी बाइक से लौट रहे थे कि हमलावरों ने गोली चला दी। अंधेरे का लाभ उठाकर हमलावर भाग गए।

पुलिस ने तीन टीमें बनाकर जांच शुरू कर दी। सोमवार को दो लोग गिरफ्तार किये गए हैं। हत्या के पीछे क्या मकसद हो सकता है, किसके इशारे पर किया गया है। इसके बारे में अभी कोई जानकारी नहीं दी गई है। पुलिस का दावा है कि दोनों आरोपियों ने मान लिया है कि वे हत्या में शामिल रहे हैं। दोनों के नक्सलियों से ताल्लुक बताए जा रहे हैं।

नवंबर 2000 में झारखंड बनने के बाद से अखिलेश सिंह चौथे पत्रकार हैं जिनकी हत्या हुई है। झारखंड में इससे पहले की तीन हत्याओं की जांच भी किसी नतीजे पर नहीं पहुंची। कुछ लोगों को गिरफ़्तार ज़रूर किया गया लेकिन वो भी आसानी से कानून के शिकंजे से निकल गए।

मार्च 2000 में देवघर में फ्रीलांस पत्रकार अधीर राय की हत्या हुई। अप्रैल 2006 में झारखंड टुडे नाम की एक पाक्षिक पत्रिका के एडिटर नलिन मिश्रा का शव रांची में मिला। दिसंबर 2007 में देवघर में ही एक स्थानीय अख़बार के पत्रकार प्रमोद कुमार मुन्ना की हत्या हुई। राजदेव बीस साल से पत्रकारिता कर रहे थे... पत्रकारों के साथ हो रही इन वारदात पर विरोध जताने के लिए आज दिल्ली में प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया और वीमेन्स प्रेस क्लब की तरफ़ से एक सभा आयोजित की गई।

इस मौके पर सभी पत्रकारों ने जल्द से जल्द जांच कर दोषियों को सज़ा दिए जाने की मांग की। पत्रकारों की सुरक्षा के लिए कड़े क़ानून बनाने की भी मांग की गई। मुश्किल माहौल में काम करने वाले पत्रकारों को ना सिर्फ़ संरक्षण देने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया गया बल्कि उनके साथ होने वाले किसी अपराध या हादसे की स्थिति में उनके परिवार की देखरेख के लिए एक नीति तय करने की मांग भी की गई। मीडिया हाउस के मालिकों से भी अपील की गई कि वो अपने यहां काम करने वाले पत्रकारों के हितों का ख्याल रखें और किसी वारदात की स्थिति में उनके साथ खड़े रहें, उनका साथ ना छोड़ें। इस मौके पर हिंदुस्तान अख़बार के वरिष्ठ पत्रकार उमाकांत लखेड़ा ने बिहार के सीवान में हाल के दिनों में मोहम्मद शहाबुद्दीन के बढ़ती ताक़त पर भी चिंता जताई।

राजनीति और भ्रष्टाचार को कवर कर रहे पत्रकारों की हत्या के मामले में भारत का रिकॉर्ड बहुत ख़राब है और यह चिन्ताजनक है। इस मामले में दुनिया के जिन 14 देशों का रिकॉर्ड सबसे खराब है उनमें सोमालिया भी है और दक्षिणी सूडान भी। भ्रष्टाचार और राजनीतिक पत्रकारिता करते हुए मारे जाना और गृह युद्ध या युद्ध कवर करते हुए मारे जाने में अंतर है। अंतरराष्ट्रीय संस्था रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स के मुताबिक भारत 2015 में पत्रकारों के लिए सबसे ख़तरनाक तीन देशों में से एक रहा।

2015 में भारत में पाकिस्तान और अफगानिस्तान से भी ज़्यादा नौ रिपोर्टरों की जान गई। इनमें से चार की हत्या के कारणों का पता ही नहीं चला। न्यूयॉर्क की संस्था The Committee to Protect Journalists (CPJ) जो दुनिया भर में प्रेस की आज़ादी पर काम करती है, हर पत्रकार की मौत की जांच करती है, क्या मौत काम से जुड़ी वजहों से हुई। वो मौत को दो मोटे वर्गों में बांटती है। अगर इस बात की पुष्टि हो जाए कि किसी पत्रकार की हत्या उसके पेशे की वजह से हुई तो उसे "motive confirmed माना जाता है। 1992 से भारत में पत्रकारों की हत्या के मामले बढ़े। 1999 से 2004 के बीच ये सबसे ज़्यादा हुईं। पत्रकारों की कुल हत्याओं के मामले में भारत दुनिया में दसवें नंबर पर हैं। CPJ ने पत्रकारों के प्रोफाइल के आधार पर भी हत्या का वर्गीकरण किया है।

भारत के मामले में 1992 से जिन 25 पत्रकारों की हत्या हुई उनमें से अधिकतर प्रिंट के रिपोर्टर या एडिटर थे। इन्हें भ्रष्टाचार, राजनीति या अपराध को कवर करने का ज़िम्मा दिया गया था। उन्हें राजनीतिक या आपराधिक गुटों ने मारा।

बीजेपी नेता रामेश्वर चौरसिया का कहना है कि जब तक नेताओं का माइनिंग माफिया से गठजोड़़ रहेगा तब तक पत्रकार मरते रहेंगे। हर हत्या के अलग कारण हो सकते हैं। रामेश्वर चौरसिया ने जिस तरह माफिया की बात कही उसमें कुछ तो दम है। माफिया भी कई प्रकार के होते हैं। कई जगहों पर माइनिंग माफिया होते हैं। 22 जून 2015 के एनडीटीवी की रिपोर्ट है कि मध्यप्रदेश के पत्रकार संदीप कोठारी की हत्या कथित रूप से माइनिंग माफिया ने कर दी थी। उनका दम घोंट कर जला दिया गया था। संदीप कोठारी का जला हुआ शव महाराष्ट्र के वर्धा ज़िले में मिला था। पुलिस ने दो लोगों को गिरफ्तार भी किया था। गिरफ्तार लोग अवैध खनन में शामिल बताये गए थे। संदीप कोठारी के भाई नवीन कोठारी ने तब कहा था कि मेरे भाई ने भ्रष्टाचार को उजागर किया था। संदीप जबलपुर के एक अखबार के लिए काम करते थे। हमने प्रयास किया कि यह मामला किस चरण में है लेकिन समय की कमी के कारण नहीं पता लगा सके।

उत्तर प्रदेश के चंदौली में 5 अक्टूबर 2015 को एक पत्रकार हेमंत यादव की बाइक पर आए हमलावरों ने हत्या कर दी। पुलिस ने उसकी पत्नी की शिकायत पर अज्ञात लोगों के ख़िलाफ एफ़आईआर दायर की। अगस्त में बरेली ज़िले में एक हिंदी दैनिक अख़बार के पार्ट टाइम रिपोर्टर संजय पाठक की दो लोगों ने हत्या कर दी। इस मामले में क्या प्रगति हुई है, किसे सज़ा हुई है हम अधिकृत रूप से नहीं बता सकते हैं। मुंबई प्रेस क्लब ने हाल ही में उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर के पत्रकार जगेंद्र सिंह की बेटी को सम्मानित किया था। जगेंद्र सिंह की हत्या पिछले साल 8 जून को कर दी गई थी।

जगेंद्र सिंह को पुलिस रेड के दौरान कथित तौर पर जलाकर मार दिया गया था। पत्रकार के परिवार ने आरोप लगाया था कि पुलिस ने ही उसे आग लगाई, बाद में जगेंद्र के परिवार ने केस वापस ले लिया। आरोप है कि उसके परिवार पर केस वापस लेने का दबाव था और यूपी सरकार ने 50 लाख रुपए देकर उसके परिवार को एक तरह से मना लिया। इस मामले में एक मंत्री समेत छह लोगों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दायर की गई थी। बताया जा रहा है कि ये मंत्री अवैध खनन और ज़मीन पर कब्ज़े को लेकर फेसबुक पर जगेंद्र सिंह की पोस्ट्स से नाराज़ था। इस मामले का केस लड़ रहे कोलिन गोंज़ाल्विस से हमारे सहयोगी सुशील महापात्रा ने बात की। कोलिन गोंज़ाल्विस ने बताया, 'मेरे लोगों को उनकी तरफ से लड़ने वाले आदमी ने बताया कि कैसे उत्तर प्रदेश के मंत्री और पुलिस की तरफ से दबाव डाला जा रहा था। पुलिस ने डाइंग डिक्लेरेशन के बारे में कुछ नहीं लिखा। लेकिन मेरे पास वीडियो है। कोर्ट के पास है। हम लोगों ने एसआईटी की मांग की है। उम्मीद है कि एसआईटी जांच होगी। फिर सब कुछ साफ होगा। जगेंद्र सिंह के परिवार की तरफ से अब कोई बात नहीं करता। लेकिन हम अपनी तरफ से केस लड़ रहे हैं।

ताकतवर लोगों से लड़ना आसान नहीं होता। समाज परिवार भी दबाव डाल कर कदम पीछे खींच लेता होगा। मुआवज़ा तो मिल जाता है मगर इंसाफ न मिले तो मुआवज़ा किसी काम का नहीं। पिछले साल 4 जुलाई को व्यापम घोटाले को कवर करने गए आजतक के पत्रकार अक्षय सिंह की संदिग्ध हालात में मौत हो गई। हमने उनके परिवार से भी बात करने का प्रयास किया कि मामला कहां तक पहुंचा है और केस की क्या स्थिति है। परिवार ने बात करने में दिलचस्पी नहीं दिखाई और हम उनकी भावना का सम्मान करते हैं। हमने उनके पारिवारिक मित्रों से भी बात करने का प्रयास किया तो यही जवाब मिला। फिर भी आपको बता दें कि अक्षय मध्यप्रदेश के झाबुआ में व्यापम घोटाले से जुड़ी एक लड़की नम्रता डामोर के परिवार का इंटरव्यू लेने गए थे। दोपहर के वक़्त जब वो डामोर के घर के बाहर इंतज़ार कर रहे थे तभी उनके मुंह से झाग निकलना शुरू हो गया। उन्हें तुरंत सिविल अस्पताल और फिर एक निजी अस्पताल ले जाया गया। लेकिन डॉक्टर उसे बचाने में नाकाम रहे। यहां से उसे क़रीब ही गुजरात के दाहोद अस्पताल ले जाया गया जहां उसे मृत घोषित कर दिया गया। अक्षय सिंह की हत्या की जांच सीबीआई कर रही है। हमारी जानकारी के मुताबिक इस मामले में आज तक कोई गिरफ़्तारी नहीं हुई है। मध्यप्रदेश सरकार का कहना है कि ये हत्या नहीं है। अक्षय की मौत को लेकर भी काफी हंगामा हुआ था। राजनीतिक दलों के बयान आए थे। 18 जुलाई 2015 को (UNESCO) की महानिदेशक Irina Bokova ने भी अक्षय सिंह की हत्या की जांच की अपील की थी।

हिंदुस्तान अखबार के पत्रकार विकास रंजन का परिवार भी बात नहीं कर रहा है। अक्षय सिंह का परिवार भी नहीं। हम उम्मीद करते हैं कि इस चुप्पी की वजह कुछ और न हो। किसी तरह का डर न हो। अक्षय की मौत की जांच सीबीआई कर रही है। एक साल बाद भी केस किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा है। कहीं यही हाल राजदेव रंजन के बारे में न हो जाए। सीबीआई को एक तय समय में जांच कर चार्जशीट दायर करने का वादा करना चाहिए। हाल ही में छत्तीसगढ़ से पत्रकारों और समाजसेवियों का समूह दिल्ली आया था।

जंतर मंतर पर इनका धरना था। संतोष यादव और सोमारू नाग और दीपक जायसवाल और प्रभात सिंह कई पत्रकार जेल में हैं। इन पत्रकारों को छत्तीसगढ़ जनसुरक्षा अधिनियम के तहत गिरफ्तार किया था। कभी इंटरनेट पर इस अधिनियम के बारे में अध्ययन कीजिएगा। ये लोग जो तख्तियां हाथ में लिये हुये हैं उनमें कोई वेतन भत्ते या विज्ञापन मांगने की बात नहीं लिखी है बल्कि लिखने बोलने की आज़ादी की मांग है। पुलिस इन पत्रकारों पर हत्या और आपराधिक साज़िश के आरोप लगाती है। पत्रकारों के वकील कहते हैं कि इसलिए आरोप लगाए गए हैं क्योंकि इन्होंने पुलिस द्वारा आदिवासियों पर किए जा रहे अत्याचारों और मानवाधिकार के हनन के खिलाफ लिखा है। जब यह मामला उठा था तब तथ्यों का पता लगाने के लिए दिल्ली से एडिटर्स गिल्ड की एक टीम गई थी। इस टीम ने पाया था कि छत्तीसगढ़ में मीडिया काफी दबाव में काम करता है। पुलिस का दबाव काफी रहता है। पत्रकारों पर माओवादियों का भी ख़तरा रहता है। पुलिस और माओवादियों के बीच पत्रकार फंस जाते हैं और फंसा दिये जाते हैं। 2011 में भी छत्तीसगढ़ में दो पत्रकारों की हत्या हुई थी।

इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि ऐसी धारणा हो गई है कि पत्रकार फोन पर बात करने से डरते हैं। उनके फोन टैप होते हैं। सरकारी अधिकारियों ने ऐसे आरोपों से इंकार कर दिया। प्रिंसिपल सेक्रेट्री ने कहा कि मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि किसी भी विभाग को फोन टैप करने का अधिकार नहीं है। एडिटर्स गिल्ड ने यह भी लिखा कि अखबार और चैनल रिमोट एरिया में पत्रकारों की नियुक्ति बिना किसी औपचारिकता के करते हैं। इसलिए जब पहचान साबित करने के बात आती है सरकार आसानी से कह देती है कि फलाना पत्रकार नहीं था। कई बार मीडिया संस्थान भी पीछे हट जाते हैं।

राजदेव रंजन की हत्या के बाद कई लोग काफी चिंतित हैं हमारे पेशे को लेकर और हमारी सुरक्षा को लेकर। उनका शुक्रिया। अगर आप लोग अपनी इस चिन्ता को उन सरकारों के दरवाज़े तक पहुंचा दें तो अच्छा रहेगा जैसे हम आपकी चिन्ता को पहुंचा देते हैं मगर कई बार कुछ होता नहीं। पर आपको संतोष हो जाता है कि किसी ने आपकी बात तो की। प्रिंट के पत्रकार मजीठिया बोर्ड के वेतन को लागू कराने के लिए कई साल से संघर्ष कर रहे हैं।

क्या है मजीठिया के सुझाव
इसने अखबारों और एजेंसी के पत्रकारों के लिए 65 फीसदी तक वेतन वृद्धि की सिफारिश की है। मूल वेतन का 40 फीसदी तक आवास भत्ता और 20 फीसदी तक परिवहन भत्ता देने का सुझाव दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने 7 फरवरी 2014 को अखबारों और एजेंसियों को मजीठिया बोर्ड लागू करने का आदेश दिया। कुछ जगहों पर लागू भी हुआ मगर कई जगहों पर लागू न होने के तरीके निकाल लिये गए। बीस बीस साल से पत्रकार मामूली वेतन पर काम कर रहे हैं। 11 नवंबर 2011 को मजीठिया आयोग की रिपोर्ट पेश हुई थी। ये 2016 है।

हर पत्रकार राज्यसभा, पद्म श्री और किसी पार्टी का प्रवक्ता बनने के लिए नहीं आता। तमाम अखबारों में जिला स्तर पर पत्रकारों की हालत आप पता कर लीजिए। मैं बस जानना चाहता हूं कि क्या आप पत्रकारों की अन्य समस्याओं के बारे में जानने में दिलचस्पी रखते हैं। सारा बोझ हमीं पर मत डाल दीजिएगा। जिस देश में साधन संपन्न, पढ़े लिखे लोग बिल्डरों के हाथों अपना बीस-पचास लाख गंवा कर लाचार घूम रहे हैं, वहां आपको कैसे यकीन हो गया कि पत्रकार लाचार नहीं है। फिर भी सोचिये इसी सिस्टम में कुछ लोग बल्कि कई लोग ज़बरदस्त काम कर रहे हैं। अपने लिए नहीं, आपके लिए। ये जो जुनून है वो आप नहीं समझेंगे।

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