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This Article is From May 04, 2015

फोटो ब्लॉग : सबसे ज़्यादा मूर्तियां तो डॉक्टर अंबेडकर की ही बिकती हैं

Ravish Kumar
  • Blogs,
  • Updated:
    मई 04, 2015 13:17 pm IST
    • Published On मई 04, 2015 12:59 pm IST
    • Last Updated On मई 04, 2015 13:17 pm IST
हैदराबाद एयरपोर्ट से कुछ दूर आगे निकल आने के बाद एक दुकान पर एक साथ कई आदमकद मूर्तियां देखकर लगा कि कहीं सारे महापुरुष लौट तो नहीं आए हैं। मैंने भी अपनी कार वापस ले ली और विभिन्न मुद्राओं में खड़ी इन मूर्तियों के करीब चला गया। अपने-अपने विचारों के साथ मौन मुद्रा में खड़ी इन आदमकद मूर्तियों के भाव पढ़ना किसी किताब से गुज़रने से कम नहीं था। यह सोचकर रोमांचित हो गया कि अगर वाकई किसी दिन ये सभी महापुरुष लौट आएं और एक साथ मुझे ही मिल जाएं तो मैं क्या-क्या पूछ सकता हूं। किससे पहले बात करनी चाहिए।



अपने कार्यों से ये सभी बड़े तो हैं ही, ऊंचाई के कारण भी मैं इन सबसे छोटा पड़ गया। दुकानदार वेंकट स्वामी ने बताया कि ज़्यादातर मूर्तियां सात फुट की हैं, लेकिन डॉक्टर अंबेडकर की ऊंची मूर्ति ही ज़्यादा बिकती है। विजयवाड़ा की एक फैक्ट्री में फाइबर से ये मूर्तियां बनकर यहां आती हैं और फिर रंगाई-पुताई के बाद हम इन्हें बिकने लायक बना देते हैं। सबसे ज्यादा मूर्ति किसकी बिकती है? मेरे इस सवाल का जवाब देने में वेकेंट को सेकंड भर नहीं लगा। कहा, डॉक्टर अंबेडकर की। महीने में चार-पांच मूर्तियां तो बिक ही जाती हैं, लेकिन 14 अप्रैल के आसपास खूब सेल होती है। बाकी नेताओं की मूर्तियों का क्या हाल है? वेंकट ने कहा कि बाकी सारी मूर्तियां महीने में कुल मिलाकर दो-चार ही बिक पाती हैं। इनमें कभी राजीव गांधी तो कभी विवेकानंद की डिमांड आ जाती है, पर डॉक्टर अंबेडकर की डिमांड हमेशा रहती है। उत्तर भारत में नीले कोट वाले अंबेडकर ही मिलते हैं, लेकिन वेंकट की दुकान पर अंबेडकर नीले रंग के अलावा सफेद कोट के भीतर गोल्डन शर्ट भी पहने हुए हैं तो उनकी एक मूर्ति तो सिर से लेकर पांव तक गोल्डन कलर में ही रंगी हुई थी।



फाइबर की बनी सात फुट की मूर्ति की कीमत सत्तर हज़ार रुपये है। वज़न में हल्की होती हैं, इसलिए व्यक्तिगत स्तर पर भी लोग खरीदकर ले जाते हैं और लगा देते हैं। वेंकट स्वामी की बातों को सुनते-सुनते मैं वहां खड़ी मूर्तियों को महसूस करने लगा। लगा कि वे सब इस दुनिया से सहम गए हैं। उनके चेहरे पर एक किस्म का भय नज़र आया कि कोई आता ही होगा जो उन्हें खरीद ले जाएगा, उनका भाव लगाएगा और फिर राजनीति चमकाएगा। सोचिए, आपको एक साथ स्वामी विवेकानंद, गांधी, डॉक्टर अंबेडकर, मदर टेरेसा, राजीव गांधी, इंदिरा गांधी सब मिल जाएं तो आप क्या करेंगे। इनके विचार भले ही अब वोट भुनाने के काम आते हैं, पर मूर्ति मार्केट में डॉक्टर अंबेडकर का मुकाबला कोई नहीं कर सकता है।



मूर्तियों में ढाल दिए गए इन महापुरुषों में से कुछ अपने रंगे जाने की बारी का इंतज़ार कर रहे थे तो कुछ रंगीन होकर चमक रहे थे। जैसे अब तैयार हो गए हैं, बताओ, कहां चलना है। डॉक्टर अबंडेकर दाहिना हाथ उठाए अपनी अंगुली से मुक्ति का मार्ग बता रहे हैं तो गेरुआ की जगह कत्थई लिबास में खड़े स्वामी विवेकानंद हाथ बांधे खड़े हैं। उनके पीछे मदर टेरेसा के चेहरों पर चिन्ता की झुर्रियां पसरी हुई हैं। राजीव गांधी की मूर्ति हाथ उठाकर अभिवादन कर रही है तो रंगीन साड़ी में सोनिया गांधी तथास्तु की मुद्रा में आशीर्वाद दे रही हैं। सोनिया के बगल में इंदिरा गांधी हाथ नीचे बांधे खड़ी हैं, जैसे कह रही हों, "अब तो जो है, सो मेरी बहू ही है... मुझे जो करना था किया, अब आगे के लिए इसी से मिलना..."



एक साथ इतने महापुरुषों और राजनीतिक हस्तियों की आदमकद मूर्तियों को खड़ा देख लगा कि उनके बीच एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ है। डॉक्टर अंबेडकर हाथ उठाए अपनी एक अंगुली से मुक्ति का मार्ग बता रहे हैं तो वहीं स्वामी विवेकानंद हाथ बांधे सौम्य रूप से खड़े हैं। उनके पीछे मदर टेरेसा के चेहरों की झुर्रियां सवाल करती नज़र आईं कि अगर सभी इसी तरह होड़ करेंगे तो मुक्ति के रास्ते पर कौन ले जाएगा। रंगीन साड़ी में सोनिया गांधी की मूर्ति तथास्तु मुद्रा में आशीर्वाद दे रही थी तो राजीव गांधी हाथ उठाए कोई और रास्ता बता रहे हैं। सोनिया के बगल में हाथ बांधे इंदिरा गांधी की प्रतिमा का भाव ऐसा है कि, देखो, अब से मेरी बहू ही आशीर्वाद देगी। मेरा तो जो होना था, हो गया है। दक्षिण के अन्य महापुरुष भी वहां खड़े थे, जैसे उत्तर से आए इन मेहमानों की मौजूदगी में थोड़ा पीछे ही रहा जाए तो उचित होगा। कुछ विधायकों ने भी खुद की मूर्तियां बनवा रखी हैं।

आदमकद मूर्तियां हमारी राजनीतिक संस्कृति का शाश्वत रूप हैं। राजनीतिक मूर्तिकला पर कोई लिखता भी नहीं है। दुनिया भर के कलाकार रोज़ न जाने कितने अंबेडकर, कितने गांधी और कितने पटेल बनाते होंगे। इन मूर्तियों पर सत्तर हज़ार खर्च करने वाले की भावना को कभी हमने समझा नहीं, शायद कभी समझ भी नहीं पाएंगे।

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