सर्वश्रेष्ठ, महा और मेगा जैसे विशेषणों की ऑबीचुअरी

सर्वश्रेष्ठ, महा और मेगा जैसे विशेषणों की ऑबीचुअरी

प्रतीकात्‍मक तस्‍वीर

बहुत दिनों के बाद ब्लॉग लिखना पड़ रहा है, क्योंकि ख़बर ही ऐसी आई है. आभास तो तब ही से लग रहा था कि जब मैंने एक टैलेंट शो देखा था. जिसमें बहुत से बच्चे गा रहे थे. जज सुन रहे थे और हर गाने के बाद तारीफ़ों के पुल बांध रहे थे. विशेषणों की बरसात की जा रही थी. ‘माइंडब्लोइंग’ 'सुपर्ब’ ‘बेस्ट’ ‘ऑसम’ 'अनबिलीवबल' वगैरह वगैरह. हर बच्चे को सदी का गायक बताया जा रहा था, मानवता पर आशीर्वाद. पर बावजूद इन विशेषणों के, बच्चे छांटे जा रहे थे. क्या ग़लती हुई, कहां सुर ग़लत लगे, क्या करना होगा जिससे बेहतर होंगे, ऐसा कुछ भी नहीं. तो लगा कि बच्चे क्या सोचते होंगे कि जब मैं इतना अच्छा गा रहा हूं या रही हूं तो फिर शो से निकाला क्यों? इसी सवाल से प्रेरित होकर, विशेषणों को बादाम की तरह इस्तेमाल करें नहीं तो भाषा का पेट ख़राब होने का डर है वाली सलाह के साथ, मैं शो बनाने वालों को एक ‘मोस्ट एपिक’ चिट्ठी लिखने ही वाला था, पर उसके वायरल होने के डर से मैंने आइडिया ड्रॉप कर दिया. पर अब कुछ ना कुछ तो लिखना पड़ेगा.

ख़बर ने ट्रेंड नहीं किया तो शायद आपको पता ना चला हो, दरअसल ख़बर आई है कि विशेषण ने प्राण त्याग दिए हैं. जी हां, वही विशेषण जिन्हें समाज का एक हिस्सा एडजेक्टिव के नाम से जानता है. रिपोर्ट के मुताबिक उत्कृष्टता और विलक्षणता की महामारी ने विशेषणों की जान ले ली है. इस अनहोनी की आशंका बार बार जताई जा रही थी पर विशेषणों के ख़र्च में कटौती नहीं हो पा रही थी.

बहुत सालों से अनुमान तो लगाया जा रहा था.. साबुन-सर्फ़ के ‘सुपर’ होने तक तो बात ठीक थी, पर अब मूंगफली, कद्दू और जूता पॉलिश के ‘अल्ट्रा’ होने, प्राइमटाइम के ‘सुपर’ प्राइमटाइम होने ने विशेषणों का वर्कलोड बढ़ा दिया था. फिर हर न्यूज़ भी ‘सबसे फ़ास्ट’ हो गए, हर वेबसाइट भी ‘मोस्ट वाच्ड’ है. वहीं बुलेटिन के महाबुलेटिन बनने की भूमिका की भी जांच चल रही है.

वहीं सोशल मीडिया में तो खपत ख़तरे के निशान से ऊपर चल रही थी. स्थिति ऐसी थी कि किसी लिंक में ‘बेस्ट’ ना लगा हो, जैसे ‘बेस्ट हसबेंड’, ‘बेस्ट मदर’, ‘बेस्ट ब्वायफ्रेंड’ तो उस लिंक को क्लिक करना भी वर्जित हो गया हो, जब केवल मॉं होना नाकाफ़ी हो, केवल ‘सुपर-मॉम’ होना ज़रूरी हो तो चिंता की बात तो थी ही. जैसे डैड तो सोशल मीडिया पर ट्रेंड वैसे भी कम करते थे अब तो और भी सर्कुलेशन से बाहर हैं, अगर आप 'सुपरडैड' नहीं हुए तो फिर हुए ही नहीं. बच्चे भी अब बच्चे नहीं हो सकते, उनका 'सुपर किड' या 'चाइल्ड प्रॉडिजी' होना ज़रूरी था. हर वीडियो ‘मस्ट वाच’, हर व्‍हाट्सऐप मेसेज ‘मस्ट रीड’ होने के साथ हर नई जानकारी के लिए ‘शॉकिंग’ ज़रूरी बना दिया गया और हर जवाब ‘एपिक’. अब या तो हम ‘बेस्ट एवर’ हैं या ‘वर्स्ट एवर’. ढाई घंटे में दिवंगत स्टेटस मेसेज भी ‘फ़ॉरेवर’ के तराज़ू पर तोले जाने लगे. कुल मिलाकर माहौल ये था कि बिना विशेषण वाली साधारण घटना, को नॉन-घटित मान लिया गया और बिना बेस्ट या वर्स्ट लगे साधारण दिन को इतिहास के पन्ने से मिटा दिए जाने का बिल पास हो गया. एक तबका अंदाज़ा लगा रहा है कि इन सबकी बददुआओं ने भी काम किया है.

विशेषणों पर बॉलीवुड कार्यक्रमों और पॉलिटिकल डिबेट शो का पोर्टफ़ोलियो तो पहले से था. बॉलीवुड की हर फ़िल्म ‘हटके’ होती है, हर गाना ‘बेहतरीन’. हर आइटम नंबर ‘माइंड-ब्लोइंग’ होता है. जहां कट-पेस्ट कटपीस भी अक्सर ‘मास्टरपीस’ की कैटगरी मे डाले जाते हैं. पॉलिटिक्स भी अब ‘महा’, ‘मेगा’ से कम में बात नहीं करती. हर रैली ‘महारैली’ होती है, हर जनसभा ‘ऐतिहासिक’. हर भाषण ‘विश्वव्यापी’ होता है और हर क़दम 'अभूतपूर्व’.

विशेषणों की अकाल मृत्यु से एक सोशल मीडिया में एक वैक्यूम पैदा हो गया है. आपको याद होगा कि सोशल मीडिया में वाइरल बीमारी आने के बाद औसत एंड कंपनी की स्थिति ख़राब हो गई थी. हर सेल्फ़ी जीवन के चरमोत्कर्ष का दस्तावेज़ होना ज़रूरी माना गया था. जब से जीवन केवल फ़ैन्टास्टिक या फ़ैबुलस ना होकर ‘फ़ैन्टाबुलस’ होना ज़रूरी हो गया था, तब से औसत के साथ उसके क़रीबी, साधारण, सामान्य और पब्लिक स्कूल में पढ़े नॉर्मल और मिडियोकर ने सार्वजनिक जीवन से संन्यास ले लिया था.

आपको याद होगा कि इस भविष्य के बारे में चेताने के लिए मिडियोक्रिटी ने कुछ वर्ष पहले ही प्रेस कांफ्रेस किया था और आरोप लगाया था कि हरेक तारीख़, फ़ोटो, खाना-पीना-जीना, सेल्फ़ी-कुल्फ़ी-फ़िल्म-टीवी-पत्रकारिता-सहकारिता, हर वाक्य में उत्कृष्टता की आमद से उनकी ज़िंदगी अब दूभर हो गई है. औसत की वैल्यू में लगातार गिरावट हो रही थी. महानता से नीचे की बात नहीं की जा रही है. जब कुछ भी सामान्य या औसत नहीं रहा तो उनके अस्तित्त्व का का क्या मतलब?

उसी प्रेस कांफ्रेंस के बाद पहली बार पता चला था कि विशेषण बहुत प्रेशर में जी रहे हैं, कुछ तो अंतिम सांसें गिन रहे हैं. कुछ खोजी पत्रकारों ने रिपोर्ट भी फ़ाइल की थी कि हद से ज़्यादा इस्तेमाल होने की वजह से आधे विशेषण वेंटिलेटर पर पड़े हुए हैं, बाक़ी का कोई मतलब नहीं रह गया है. अब उनमें से कुछ का रीहैब चल रहा है जिससे कि उनके अंदर फिर से कुछ मतलब डाला जा सके. सर्वश्रेष्ठ और बेहतरीन जैसे विशेषण का इतना ख़ून चूसा गया कि अब उनकी रगों में नींबू पानी बहने की ख़बर आने लगी थी.

ख़ैर, आज की स्थित में फिर से उनकी खोज हो रही है. पर चूंकि दिल्ली पुलिस का पूरा महकमा नजीब को ढूंढने में लगा हुआ था तो सोचा गया कि औसत एंड कंपनी की अजीब से गुमशुदगी का पता लगाने के लिए स्कॉटलैंड यार्ड को ठेका दिया जाए. पर उनका बजट हफ़्ते मे चौबीस हज़ार से ऊपर का है और वो पेटीएम नहीं लेते इसलिए वो भी मामला पोस्टपोन कर दिया गया है. मीडिया से भी इस मामले में बहुत मदद की उम्मीद नहीं जताई जा रही है क्योंकि जानकार तो पहले ही मीडिया को अनुप्रास अलंकार का हत्यारा ठहराते हैं, अब विशेषणों की हत्या का आरोप भी मढ़ रहे हैं. यहां तक कि आजकल सबसे ज़्यादा विश्वसनीय ऑल्टरनेटिव ट्रूथ यानी वैकल्पिक सत्य की ख़बरों वाले फ़ोरम पर भी नहीं. हालांकि इस शोक संदेश को लिखते लिखते एक मेल आया है जिसमें ये कान्सपिरेसी थ्योरी दी गई है कि दरअसल औसत एंड कंपनी कहीं गए नहीं हैं, आराम से विलक्षणता का चोगा पहन कर छुपे बैठे हैं, जिसे हम विलक्षण मान रहे हैं वही औसत हैं. तो इस थ्योरी से उम्मीद ये की जा सकती है कि शायद मिडियोक्रिटी कहीं गई ना हो, हमारे समय में घुल गई हो. हमारी भाषा में, आदर्शों और उम्मीदों में. या फिर ये कि उत्कृष्टता के भेस में बैठी हुई है हमारे टाइमलाइन पर. ख़ैर, पता चलेगा तो ‘मोस्ट शॉकिंग’ ब्लॉग फिर से लिखूंगा.

(क्रांति संभव NDTV इंडिया में एसोसिएट एडिटर और एंकर हैं...)

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