यह हिसाब कमाई का नहीं है बल्कि उस लागत का है जो गायों के कारण किसानों के बहीखाते में हाल फिलहाल से जुड़ने लगा है. राजस्थान के धौलपुर के पुरानी छावनी गांव में कई खेतों में चारदिवारी नज़र आई. चार से पांच फुट की चारदिवारी बनाने से भी काम नहीं होता है. उसे और ऊंचा और मज़बूत बनाने के लिए कंटीली झाड़ियों को काट कर दीवारों के साथ खड़ा करना पड़ता है ताकि गायें फांद कर खेतों में न घुस जाएं. इसका भी अलग से 10-15 हज़ार ख़र्च आ जाता है.
गायों ने गांवों को बदल दिया है. गांवों में गायों के नाम बदल गए हैं. कोई उन्हें आवारा गायें कहता है, कोई गाय के साथ आतंक जोड़ता है. नौजवान गायों को देख कर मोदी जी, योगी जी और वसुंधरा जी भी कहने लगे हैं. ये देखो, मोदी जी योगी जी जा रहे हैं. गाय की राजनीति माता कहने से शुरू हुई थी, आवारा कहने पर आ गई है.
राजस्थान में गायों को लेकर कितनी राजनीति हुई. कड़े नियम बने इसके कारण आप हाईवे पर सांड और गायों को घूमते देखेंगे. ग्वालियर जाते हुए हाईवे पर एक बछड़े को कोई गाड़ीवाला मार गया था. उसे तड़पता देख मन मचल गया. जगह-जगह पर गाय, बैल, बछड़े और सांड घूमते मिल जाएंगे. अब इन्हें कोई नहीं बेचता है. कोई नहीं ख़रीदता है. गौशालाएं नहीं हैं. गायों का समूह चारे की तलाश में दरबदर भटक रहा है. जब कोई खिलाएगा नहीं तो दूसरे के खेतों में धावा तो बोलेंगे ही.
प्रमोद पालीवाल ने बताया कि पांच फुट दीवार बनाने से भी काम नहीं चलता है. उसके बाद भी रात को खेतों में जाना पड़ता है कि कहीं गायों ने हमला तो नहीं कर दिया. किसान अब चौकीदारी भी कर रहा है. पिछले साल बाजरा और चना की फसलों को काफी नुकसान हुआ था. नवंबर के महीने में धौलपुर में मेला लगता था. लेकिन गौ हत्या की राजनीति के कारण उस साल पशुओं की बिक्री ही नहीं हुई. कोई ख़रीदार नहीं था तो सांड और बछड़े को वहीं छोड़ चले गए. इस कारण भी यहां इनकी संख्या बढ़ गई है. अगर खेतों को दीवार से घेरने के लिए 40-50 हज़ार ख़र्च करने पड़ेंगे तो आप अंदाज़ा कीजिए कि हम पर क्या गुज़री होगी.
इस कहानी के साथ मैंने जो तस्वीरें लगाई हैं, उन्हें अपनी आंखों से देखना एक ऐसे बदसूरत मंज़र को देखना था, जिसकी कीमत किसान ही नहीं पहाड़ भी चुका रहे हैं.
गायों के नाम पर खेतों में दीवार बनाने के लिए इन पत्थरों के धंधे से किसे लाभ हुआ होगा. ज़रूर गो हत्या की राजनीति का लाभ एक तबके को मिला होगा जो अवैध खनन के ज़रिए लाल पत्थर के चट्टानों को काट कर सप्लाई करने में लगा होगा.
राजस्थान के गांवों में जाएं तो खेतों को देखिए. अगर वहां दीवारें मिलें तो सोचिए कि राजनीति किस तरह ज़मीन पर असर पैदा करती है. टीवी के सामने गाय को लेकर भड़काने वाले बयान देकर उस मध्यम वर्ग के बीच अपनी राजनीति तो चमका गए लेकिन उसकी कीमत किसान किस तरह से चुका रहे हैं, यह किसी को नज़र नहीं आया. अगर गौशालाएं होतीं, वहां व्यवस्थाएं होती तो गऊ माता को कोई आवारा गाएं नहीं कहता. गायों से खौफ खाकर दीवारें नहीं खड़ी करता. खुले हुए खेतों में इन दीवारों के बनने से गांव के रास्ते बदल गए हैं. एक खेत से दूसरे के खेत में जाने के रास्ते बदल गए हैं. रास्ता लंबा हो गया है. घुमावदार हो गया है.
यह मुद्दा आपको नहीं दिखेगा मगर खेतों में दीवारें दिखेंगी, उन दिवारों के पीछे किसानों की चिन्ता भी कि गायों के कारण 50 हज़ार लगा दिया तो बचा क्या. इस राजनीति में बदलाव नहीं आया तो जल्दी ही राजस्थान में या तो खेत खाली छोड़ दिए जाएंगे या फिर हर खेत में चारों तरफ दीवार बन जाएगी जहां फसलें नहीं उगा करेंगी, दीवारें बना करेंगी.
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