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This Article is From Oct 15, 2017

प्रधानमंत्री ने पटना में जो कहा, उसे ठीक से किसी ने समझा नहीं...

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 15, 2017 19:53 pm IST
    • Published On अक्टूबर 15, 2017 18:57 pm IST
    • Last Updated On अक्टूबर 15, 2017 19:53 pm IST
पटना यूनिवर्सिटी का शताब्दी वर्ष बीत गया. इस मौके पर दिए गए भाषण का कोई स्थायी प्रभाव नहीं रहने वाला है. अगर आप वाकई किसी नए भारत में यकीन रखते हैं तो शताब्दी वर्ष के मौक़े पर दिए गए सभी भाषणों को फिर से सुनिये. आपको समस्या के समाधान का ईमानदार प्रयास नहीं दिखेगा. समस्या है इसकी भी ईमानदार स्वीकृति नहीं दिखेगी. अगर आपने ख़ुद को नहीं जानने देने के लिए कसम खा रखी है तो कोई बात नहीं. अगर आप जानने में यकीन रखते हैं तो एक बात पर ग़ौर कीजिए.

राजनीतिक संवाद में शब्दों का महत्व समाप्त हो चुका है. वजह यही है कि आप उन शब्दों को अलग-अलग नेताओं से सुनकर बोर हो चुके हैं. सारे शब्द भरोसे के मानक पर फेल हो चुके हैं. आपको कम यकीन होता है. यह बात आप नहीं जानते मगर नेता जानते हैं. इसलिए वो अब ऐसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं करते जो आश्वासन की तरह लगें बल्कि आश्वासन न लगे, उसके लिए शब्द की जगह ‘इमेज’ का इस्तमाल करते हैं. ‘इमेज’ नया आश्वासन है. कुछ ऐसा बोला जाए जिससे उस समस्या के सामने एक नई ‘इमेज’ खड़ी हो जाए. जो भव्य भी हो और कभी सुनी न गई हो. आपके दिमाग़ पर गहरा प्रभाव छोड़ जाए. प्रधानमंत्री मोदी ने जैसे ही बीस यूनिवर्सिटी को दस हज़ार करोड़ देने की बात की, एक नई ‘इमेज’ खड़ी हो गई. इस ‘इमेज’ में राशि प्रधान है. समाधान प्रधान नहीं है. क्या करना है, कैसे करना है, ये नज़र नहीं आता है.

नया होने के कारण दस हज़ार करोड़ की बात तुरंत लोगों को कई तरह से दिखी. किसी को लगा कि पटना यूनिवर्सिटी को दस हज़ार करोड़ मिलेगा तो किसी को लगा कि चलो इससे कुछ तो सुधार होगा. किसी ने कहा कि प्राइम टाइम की उच्च शिक्षा पर चल रही सीरीज़ का असर है. ये सब बेकार बातें हैं. अगर आप ‘इमेज’ और शब्द के अंतर को समझ जाएंगे तो बहुत सी तस्वीरें साफ होने लगेंगी. बहुत चालाकी से किसी ने समस्या से आपका ध्यान हटाकर दस हज़ार करोड़ पर शिफ्ट कर दिया. इस खुशी में आप कई चीज़ें भूल गए या जो बातें पहले से आपके ज़हन में थीं, वो गौण हो गईं. इस रणनीति का इस्तेमाल सिर्फ नरेंद्र मोदी करते हैं, ऐसा नहीं है. अब सभी करते हैं. मगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसे बड़े पैमाने पर ले जाते हैं. जिसके असर में आप तुरंत कहने लगते हैं कि ये हुआ फैसला. ये हुई न बात.

प्रधानमंत्री ने कहा कि दस प्राइवेट और दस सरकारी यूनिवर्सिटी अपना प्लान लेकर आएं. बतायें कि कैसे अपना विकास करेंगे. सरकार उन्हें अगले पांच साल में दस हज़ार करोड़ देगी. भारत की कोई भी यूनिवर्सिटी चोटी के 500 यूनिवर्सिटी में नहीं आती है. रेटिंग भी एक किस्म का ‘इमेज शिफ्ट’ करने का नया तरीका है. जैसे आप बाइस्कोप देख रहे हैं. बाइस स्कोप वाला एक के बाद एक इमेज शिफ्ट करता जाता है. आपने बाइस्कोप में झांका कि भारत की यूनिवर्सिटी जर्जर हाल में क्यों हैं, तो आपकी आंखों के सामने कभी रैंकिंग तो कभी दस हज़ार करोड़ तो कभी सेंट्रल यूनिवर्सिटी की इमेज शिफ्ट की जाने लगती है. आप तमाशा देखने लगते हैं.

क्या ये शर्म की बात नहीं है कि भारत भर के सैकड़ों कॉलेज में तीस से सत्तर फीसदी शिक्षक नहीं हैं, वहां छात्रों से फीस लेकर बर्बाद किया जा रहा है ताकि आगे चलकर वे आईटी सेल में भर्ती हो सकें. अफवाहों पर मार काट कर सकें. जो समस्या है उसे ढंक कर उस पर एक काल्पनिक समाधान लाद दिया जा रहा है. ताकि आपको अपना घर न दिखे, पड़ोसी का घर दिखे. ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी 1000 साल के करीब की होने जा रही है या हो चुकी होगी. भारत में एक यूनिवर्सिटी बताइये जो 1000 साल पहले की हो और जो आज तक चल रही हो. सौ साल में तो पटना यूनिवर्सिटी दम तोड़ चुकी है. इसका दुनिया क्या, आज की तारीख़ में भारत में ही कहीं स्थान नहीं है.

भारत में कांग्रेस, बीजेपी, सपा, राजद, जदयू, बीजद, शिअद, तृणमूल, द्रमुक, अन्ना द्रमुक, सीपीएम. तमाम दलों को कई राज्यों में दस से पंद्रह साल तक सरकार चलाने का मौका मिल चुका है. हम बिहार की शिक्षा व्यवस्था की बदहाली के लिए लालू और नीतीश पर दोष मढ़ते हैं. बिल्कुल सही बात है. क्या गुजरात और मध्य प्रदेश या छत्तीसगढ़ में उच्च शिक्षा की हालत अच्छी है? क्या वहां कोई आदर्श पैमाना कायम हुआ है? क्या आप बता सकते हैं कि सोलह साल के मुख्यमंत्री रहते हुए नरेंद्र मोदी ने गुजरात में किस यूनिवर्सिटी को शिखर पर पहुंचा दिया? मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान ने क्या कर लिया या फिर उड़ीसा में नवीन पटनायक ने? क्या उन राज्यों में भी लालू यादव का उभार हुआ था? कांग्रेस ने कर्नाटक में ही क्या नया करके दिखा दिया या फिर हिमाचल प्रदेश में जहां वीरभद्र सिंह को एक जीवन में कई बार मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला. इस पर सोचिएगा. बीस साल के दौरान सबने एक ही नीति के तहत सरकारी यूनिवर्सिटी को बर्बाद किया है.

अब आते हैं प्रधानमंत्री के ऐलान पर कि बीस यूनिवर्सिटी को पांच साल में दस हज़ार करोड़ देंगे. मैं उनके इस ऐलान से सहम गया. क्या दस हज़ार करोड़ रुपये देने के अपने आइडिया पर उन्होंने मानव संसाधन विकास मंत्री और अधिकारियों के साथ मिलकर कभी विचार विमर्श किया या मंच पर ख़्याल आ गया और वहीं बोल दिया गया.

हाल ही में मानव संसाधन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने ऐलान किया कि 7 लाख 58 हज़ार कॉलेज शिक्षकों और कर्मचारियों को सातवें वेतन आयोग के अनुसार बढ़ी हुई सैलरी मिलेगी. यूजीसी 106 विश्वविद्यालय और कॉलेजों को फंड करती है, राज्य सरकारों के तहत 329 यूनिवर्सिटी हैं जिन्हें राज्य सरकार फंड करती है. इसके तहत 12,912 कॉलेज आते हैं. इतने सारे कॉलेजों के शिक्षकों और कर्मचारियों के वेतन पर 9,800 करोड़ का अतिरिक्त ख़र्च आएगा. लाखों शिक्षकों और हज़ारों कॉलेजों पर दिए जाने वाले फंड के बराबर यानी दस हज़ार करोड़ सिर्फ दस सरकारी यूनिवर्सिटी को दिया जाएगा? दस प्राइवेट यूनिवर्सिटी को भी मिलेगा. उन्हें क्यों मिलना चाहिए? क्या प्रधानमंत्री ने वाकई पटना में ऐलान के पहले होमवर्क किया था. सोचा था?

समस्या क्या है? यही न कि देश के तमाम कॉलेज खंडहर हो चुके हैं. वहां शिक्षक नहीं हैं. बुनियादी ढांचा नहीं है. उन तमाम कॉलेजों को छोड़कर 10,000 करोड़ सिर्फ बीस यूनिवर्सिटी पर ख़र्च होगा, वो भी पांच साल में, इस पर किसी का ध्यान नहीं गया? इसिलए नहीं कहा कि क्योंकि हमारे दिमाग के भीतर की तर्कशक्ति को धकेल कर इमेज सामने आ गई. इस 10,000 से उच्च शिक्षा में एक और भयंकर अंतर खड़ा किया जाएगा. टॉप यूनिवर्सिटी के नाम पर अमीर और कुलीन घरों के बच्चे ही पहुंचेंगे, बाकी डुंगरपुर और झरिया के छात्रों के लिए कॉलेज खंडहर के खंडहर बने रहेंगे. इस फैसले से आम छात्रों को कोई लाभ नहीं होने वाला है. अव्वल तो यह कोई नया फैसला है ही नहीं.

2017-18 के बजट में शिक्षा के लिए कुल बजट रखा गया है 79,685 करोड़. यह 2016-17 की तुलना में 9.9 प्रतिशत अधिक है. इसमें से 46,356 करोड़ स्कूली शिक्षा का है. बाकी पैसा उच्च शिक्षा के लिए है. यानी उच्च शिक्षा का बजट है मात्र 33,329 करोड़. इसका विश्लेषण करते हुए श्याम कृष्णकुमार ने हफिंग्टन पोस्ट में लिखा है कि इस बजट में विश्व स्तरीय यूनिवर्सिटी के लिए 50 करोड़ रखा गया है. पिछले बजट में यानी 2016-17 में 20 भारतीय यूनिवर्सिटी को विश्व की चोटी की 100 यूनिवर्सिटी में पहुंचाने के लिए प्रावधान किया गया है.

अब यहां पर सांस लीजिए. 2016-17 के बजट में 20 भारतीय यूनिवर्सिटी को दुनिया की चोटी की 100 यूनिवर्सिटी में पहुंचाने के लिए रेगुलेटरी फ्रेमवर्क की बात की जाती है. विज़न की बात थी, बजट की नहीं. मैंने गूगल सर्च के ज़रिये जितने भी उस साल के बजट हाईलाइट्स देखे हैं उसमें एक नया पैसे का ज़िक्र नहीं है. अगले साल यानी 2017-18 के बजट का विश्लेषण करते हुए हफिंग्टन पोस्ट में श्याम कृष्णकुमार लिखते हैं कि मात्र 50 करोड़ का प्रावधान किया जाता है. पटना में प्रधानमंत्री मोदी अपनी तरफ से 10,000 करोड़ का ऐलान कर देते हैं. दो साल से बजट जिस विज़न की बात करता है, उसका बजट पटना में अचानक 10,000 करोड़ हो जाता है. संसद को भी पता नहीं है. वित्त मंत्री छोड़िए, मानव संसाधन मंत्री को भी पता नहीं है.

2016-17 के बजट के संदर्भ में मीडिया रिपोर्ट में उच्च शिक्षा संस्थानों के बुनियादी ढांचे के लिए 1000 करोड़ के प्रावधान की तारीफ ज़रूर सुनी जो समस्या की विकरालता के सामने कुछ भी नहीं है. अब आप समझ गए होंगे कि मंशा समस्या दूर करना नहीं है, समस्या दूर करने के नाम पर एक ‘इमेज’ खड़ा कर देना है ताकि आपकी आंखों के सामने पर्दा पड़ जाए और आप ताली बजाने लगें.

उसी तरह केंद्रीय यूनिवर्सिटी की मांग का भी कोई तुक नहीं. एक बेतुकी मांग को बेतुके प्रस्ताव से ख़ारिज कर देने पर चुप्पी साध लेनी चाहिए और ग़ौर से देखना चाहिए कि हमारे प्रधानमंत्री वाकई किसी समस्या तक गहराई से पहुंचते हैं या फिर उन्हें सिर्फ वोट तक ही पहुंचना आता है. मैं कशिश न्यूज़ चैनल पर संतोष सिंह के साथ पटना की लड़कियों को बोलते सुन रहा था. अच्छा लगा कि लड़कियां प्रधानमंत्री के भाषण पर खुल कर सवाल कर रही हैं मगर क्या वे सही मांग कर रही हैं? क्या उन्हें पता है कि सेंट्रल यूनिवर्सिटी की हालत क्या है? जिस तरह से प्रधानमंत्री ने समस्या के समाधान को एक बड़ी राशि की छवि पर शिफ्ट कर दिया उसी तरह मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पटना यूनिवर्सिटी की समस्या के समाधान को सेंट्रल यूनिवर्सिटी मिलने की छवि पर शिफ्ट कर दिया. अब छात्रों के पास दो छवियां हैं. दो इमेज है. सेंट्रल यूनिवर्सिटी का दर्जा और दस हज़ार करोड़ का प्रस्ताव. दोनों ही झांसा है. दोनों अपनी जवाबदेही से किनारा कर चले गए और छात्राएं अपनी आधी अधूरी जागरूकता को मुखर करती रहीं.

Live mint की स्टोरी है कि Quacquarelli Symonds World University Rankings 2018 में आईआईटी दिल्ली चोटी की 200 यूनिवर्सिटी में शुमार है. 14 साल में पहली बार हुआ है कि तीन भारतीय यूनिवर्सिटी ने 200 में जगह बनाई है. आईआईटी बॉम्‍बे और इंडियन इस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बेंगलुरू इसमें शामिल हैं. यह संस्था 2004 से रैंकिंग कर रही है. 500 के भीतर आईआईटी मद्रास, आईआईटी कानपुर, आईआईटी खड़गपुर औऱ आईआईटी रुड़की है. प्रधानमंत्री ने कहा कि 500 यूनिवर्सिटी में भारत की एक भी यूनिवर्सिटी नहीं है. कई एजेंसियां करती होंगी तो कहना मुश्किल है कि प्रधानमंत्री किस एजेंसी की बात कर रहे हैं. इसलिए इसे रहने देते हैं. हो सके तो इसकी तुलना करनी चाहिए कि चोटी की यूनिवर्सिटी जैसी मसाच्युसेट्स इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्लनालजी(एमआईटी), स्टैनफर्ड और हावर्ड यूनिवर्टी का बजट और भारत का शिक्षा बजट कितने का है.

हावर्ड यूनिवर्सिटी की वेबसाइट पर अक्टूबर 2015 का बजट है 4.5 अरब डॉलर. भारतीय रुपये में करीब 29,102 करोड़ हुआ. स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी का 2017 का बजट है 5.9 बिलियन डॉलर, भारतीय रुपये में करीब 38,156 करोड़ रुपये. हावर्ड में 22,000 और स्टैनफोर्ड में 16,336 छात्र पढ़ते हैं. दिल्ली यूनिवर्सिटी का 2017-18 का बजट देख रहा था. अगर देखने में भयंकर चूक नहीं हुई है तो 2017-18 का बजट अनुमान है 984.34 करोड़ है. स्टैनफोर्ड और हावर्ड का बजट भी दिल्ली विश्वविद्यालय से कई गुना ज़्यादा है और उनके यहां छात्रों की संख्या भी कई गुना कम है. दिल्ली विश्वविद्यालय कम बजट में ज़्यादा छात्रों की सेवा कर रहा है. हावर्ड और स्टैनफ़ोर्ड का ही बजट मिला दें तो भारत की उच्च शिक्षा बजट से ये राशि ज़्यादा होती है.

दिल्ली विश्वविद्यालय में 1 लाख 40 हज़ार छात्र पढ़ते हैं. हावर्ड (22,000), स्टैनफोर्ड (16,336 छात्र), येल(12,385 छात्र), प्रिंसटन (8,181 छात्र), मसाच्युसेट्स (11,376 छात्र) सब मिला दें तो इनसे भी ज़्यादा दिल्ली यूनिवर्सिटी में छात्र पढ़ते हैं. अब आप छात्रों की संख्या से अंदाज़ा लगाइये तो पता चलेगा कि भारतीय यूनिवर्सिटी की हालत क्यों ख़राब है. वे कितने कम बजट में काम करती हैं. इसलिए रैंकिंग देखकर भारत में छाती धुनने का कोई तुक नहीं है. क्योंकि पांच साल में बीस यूनिवर्सटी को दस हज़ार करोड़ देने के प्रस्ताव में कोई दम नहीं है. दिखावा ज़्यादा है.

भारत में 2017-18 में आईआईटी के लिए बजट बढ़ाकर 7,856 करोड़ किया गया है. भारत में 16 आईआईटी हैं. उस हिसाब से एक आईआईटी के हिस्से आता है 491 करोड़. ज़ाहिर है आईआईटी ने निराश नहीं किया है. आईआईएम के लिए 730 करोड़ से बढ़ाकर 1030 करोड़ किया गया है. आईआईटी के कुछ कॉलेज कई साल से दुनिया की रैकिंग में जगह बनाते ही रहे हैं. उन्होंने अपने बजट का नतीजा भी दिखाया है.

भारत के विश्वविद्यालयों और कॉलेजों को स्टंट की ज़रूरत नहीं है. वे संकट में हैं. इससे ग़रीब और निम्म मध्यमवर्ग के छात्रों को आगे पहुंचने से रोका जा रहा है ताकि वे बड़ा सपना न देख सकें. कॉलेज में शिक्षक नहीं हैं, उनकी नियुक्ति की पारदर्शिता का कोई पैमाना नहीं है. आप ख़्वाब दिखा रहे हैं रैकिंग और सेंट्रल यूनिवर्सिटी के दर्जे का.

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