कई बार हमें लगता है कि छात्र नेता सिर्फ एबीवीपी और एनएसयूआई की फैक्ट्री से निकलते हैं और दिल्ली के सुपर मीडिया मॉल में भटकते मिल जाते हैं. सारी बहस कांग्रेस बनाम बीजेपी के फ्रेमवर्क में ही सीमित कर देते हैं और इधर से उधर घूमते रहते हैं. छात्र संगठनों की दुनिया में इस फ्रेमवर्क से बाहर भी बहुत कुछ होता रहता है जिस पर ध्यान देने की ज़रूरत है. अभी तक जेएनयू के बारे में कहा जाता था कि वहां हॉस्टल की खराब हालत पर चुनाव नहीं होता मगर अमरीका की नीतियों को लेकर मुद्दा बन जाता है. मध्य प्रदेश में एक ऐसे ही छात्र संगठन का उदय हुआ है जिसने कई कॉलोजों में चुनाव एक ऐसे मुद्दे पर लड़ा है जिसका संबंध कैंपस के भीतर के हालात से कम, देश के आदिवासी क्षेत्रों को मिली संवैधानिक गारंटी से ज़्यादा है. क्या आप पांचवी अनुसूचि के बारे में जानते हैं?
इस पांचवी अनुसूचि की मांग को लेकर मध्य प्रदेश और राजस्थान की छात्र राजनीति में बदलाव आ रहा है. पहले हम बात कर लेते हैं मध्य प्रदेश में जय आदिवासी युवाशक्ति नाम से एक संगठन है जिसकी छात्र ईकाई आदिवासी छात्र संगठन एसीएस ने बड़ी जीत हासिल की है. 2013 में इसकी स्थापना हुई है. अपने पहले ही चुनाव में इस संगठन ने मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल इलाकों, धार, खरगौन, अलीराजपुर, झाबुआ के कॉलोजों में राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के वर्चस्व को ध्वस्त कर दिया है.
आदिवासी छात्र संगठन के उम्मीदवारों ने पहली बार चुनाव लड़ा और कई कॉलोजों में 162 से अधिक पदों पर जीत हासिल कर ली. इनमें अध्यक्ष से लेकर सचिव तक के पद हैं. कई कॉलोजों में इस संगठन की महिला उम्मीदवार भी अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ी हैं. सभी उम्मीदवार आदिवासी हैं. इनके पास संसाधन बहुत कम हैं, दूध सब्जी ले जाने वाले टैम्पो की छत पर विजय जूलूस निकल रहा है. कुक्षी, बाग और मनावर कॉलेज के अध्यक्ष पद का चुनाव आदिवासी लड़कियों ने जीता है. धार के ज़िला कॉलेज में अध्यक्ष पद जीतने वाले पियारा सिंह अपने गांव के पहले स्नातक हैं और अर्थशास्त्र से एमए कर रहे हैं.
शासकीय पीजी कॉलेज धार में करीब 6283 छात्र हैं. 15 अगस्त 1957 को यह कॉलेज खुला था. 64 मंज़ूर पद हैं. 50 परमानेंट हैं और 14 गेस्ट हैं. 38 क्लासरूम हैं मगर यहां दस क्लासरूम और चाहिए. यहां लाइब्रेरी की सुविधा अच्छी नहीं है, खेल का मैदान नहीं है. 6000 में 3000 लड़कियां हैं जिनके लिए सिर्फ तीन शौचालय हैं. एक हज़ार लड़कियों के लिए एक शौचालय आप सोचिए क्या हाल है.
मगर धार के इस पीजी कॉलेज में आदिवासी छात्र संगठन की 39 क्लास रिप्रज़ेंटेटिव जीते हैं, इनमें से 35 लड़कियां हैं. पहली बार हुआ है. 2011 में इस कॉलेज में एबीवीपी का जलवा था. इस बार एबीवीपी के पास सिर्फ संयुक्त सचिव का पद है. जयस नाम के नए संगठन ने अपना परचम लहरा दिया है. अलीराजपुर के सोण्डवा कालेज में सभी पदों पर आदिवासी छात्र संघ के उम्मीदवार निर्विरोध जीते हैं. यह एक दूसरा छात्र संगठन है जिसकी मांग जयस से मिलती जुलती है मगर ये एबीवीपी और एनएसयूआई नहीं हैं. गोंडवाना स्टूडेंट यूनियन ने भी 21 सीटें हासिल की हैं. पत्रिका के धार संस्करण में जयस की जीत की ख़बर काफी प्रमुखता से छापी गई है.
इसी के साथ मध्य प्रदेश में एक नए संगठन और नए युवाओं का उदय होता है. बाद में क्या होगा, कौन इनके बीच फूट डाल देगा, खरीद लेगा, ये सब तो होगा मगर धार भोजशाला विवाद के क्षेत्र में इनकी ये कामयाबी मामूली नहीं है. पांचवी अनुसूची के अनुसार आदिवासी बहुल क्षेत्रों को विशेषाधिकार हासिल है. योजना बनाने से लेकर लागू करने में उनकी भागीदारी सुनिश्चित की गई है और यह सुरक्षा दी गई है कि इस इलाके का दोहन न हो और शोषण न हो मगर ऐसा कहां होता है. दिल्ली से योजना बनकर जाती है और वहां से आंदोलन की खबरों को नक्सल फ्रेम में रखकर ग़ायब कर दिया जाता है.
डॉ. हीरा लाल अलावा ने तय किया कि वे डॉक्टरी के साथ-साथ आदिवासी समाज के छात्रों को पांचवीं अनुसूची के बारे में जागृत करेंगे. दिल्ली का लोभ छोड़ कर धार चले गए. उनके साथ बिरसा ब्रिगेड के अरविंद मुज़ाल्दा भी आ गए. इन सबने मिलकर कम समय में पांचवी अनूसूचि को लेकर कई आंदोलन किए हैं. आप इन नेताओं की तस्वीर देख रहे हैं. डॉ. हीरा लाल ने बताया कि पांचवी अनुसूचि के तहत ट्राईबल एडवाइज़री काउंसिल का प्रावधान है. जिसके सदस्य अनुसूचित जनजाति के सांसद और विधायक होते हैं. कायदे से इस काउंसिल का मुखिया भी आदिवासी होना चाहिए मगर मुख्यमंत्री होते हैं. यह संस्था राज्यपाल को रिपोर्ट करती है, राज्यपाल राष्ट्रपति को रिपोर्ट देते हैं कि आदिवासी इलाके में शोषण और दोहन तो नहीं हो रहा. इन नेताओं का आरोप है कि इस काउंसिल को निष्क्रिय कर दिया गया ताकि औद्योगिक घरानों के हितों के लिए उनके संसाधनों को बेचा जा सके. पांचवी अनुसूचि को लेकर राजस्थान के भील बहुल इलाके में भी हलचल है. हाल ही में वहां भी छात्र संघ के चुनाव हुए हैं.
दिल्ली की मीडिया में एबीवीपी और एसएफआई या एनएसयूआई के जीतने की ही खबर आई मगर आप पत्रिका अखबार के संस्करण को देखिए. खबर किसी नए संगठन के आहट की बात कर रही है. डूंगरपुर, सागवाड़ा, सीमलवाड़ा, के चारों कॉलेज में अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, महासचिव, संयुक्त सचिव के चारों पदों पर भील प्रदेश विद्यार्थी मोर्चा जीता है. यह मोर्चा भी पांचवी अनुसूचि को लेकर मुखर है. हाल ही में यह संगठन खड़ा हुआ है. भील प्रदेश की मांग करता है. भील प्रदेश विद्यार्थी मोर्चा ने चार-चार कॉलेज में एबीवीपी और एनएसयूआई को टक्कर दी है. इसलिए कह रहा हूं कि भारत के लोकतंत्र की बहस को कांग्रेस और बीजेपी की फेंकी हुई बहसों के फ्रेमवर्क से बाहर निकल देखिए. बहुत कुछ नया होता मिलेगा आपको.
यूनिवर्सिटी सीरीज के इस 16 वें अंक में हम कुछ कॉलेजों में चल रहे छात्र आंदोलनों की बात करेंगे. शिक्षकों के आंदोलन की भी. इन दोनों आंदोलनों की हालत बहुत ख़राब है. यूनिवर्सिटी सीरीज़ के दौरान किसी भी शिक्षक संघ ने इस बात की ज़रूरत नहीं समझी कि संपर्क कर और भी जानकारी दी जाए. सब कांग्रेस बीजेपी और लेफ्ट के फ्रेमवर्क में बंटे हुए हैं और फंसे हुए हैं. यही हाल छात्र राजनीति का भी है. मगर कई जगहों पर छात्र इस फ्रेमवर्क से बाहर आकर अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं.
मुंबई यूनिवर्सिटी बचाओ नाम से आंदोलन लांच हो गया है. ऑनलाइन कॉपी चेकिंग के कारण नतीजे आने में महीनों की देरी हुई है और नतीजे में काफी गड़बड़ियां हुई हैं. मुंबई यूनिवर्सिटी के छात्र लगातार आंदोलन कर रहे हैं. 31 अक्तूबर के दिन बैनर लेकर आ गए जिस पर लिखा था सेव मुंबई यूनिवर्सिटी. इस आंदोलन में पूर्व राज्यसभा सांसद और पूर्व वीसी मुंगेकर भी शामिल हो गए हैं. इन छात्रों ने कलिना कैंपस के महात्मा ज्योतिराव फुले भवन के सामने बैठकर धरना दिया है. इनके बैनर पर यह भी लिखा है कि शिक्षा बिकाऊ नहीं है. छात्रों का कहना है कि सभी छात्रों को पास करो, दस दिन के भीतर नतीजा घोषित करो. छात्र लिखित आश्वासन मांग रहे हैं. और रिजल्ट में देरी के कारण दूसरे संस्थानों में जिनके एडमिशन नहीं हो पाए हैं, उसमें मुंबई यूनिवर्सिटी मदद करे.
सोहित मिश्र मुंबई से सटे रायगढ़ ज़िले के करजत इलाके के एक प्राइवेट कॉलेज यादवराव तासगाओंकर कॉलेज में चल रहे प्रदर्शन का जायज़ा लेने गए. यहां के शिक्षकों का आरोप है कि उन्हें 2012 से ही नियमित रूप से वेतन नहीं मिलता है. कभी मिलता है तो कभी कई महीने के बाद मिलता है.
70 एकड़ में फैले इस कैंपस में 2 इंजीनियरिंग कॉलेज है, एक फार्मेसी कॉलेज है, एक पोलिटेकनिक, एक मैनजमेंट और एक स्कूल भी है. ये सारे मुंबई यूनिवर्सिटी से संबंद्ध हैं. यहां करीब साढ़े पांच से छह हज़ार छात्र पढ़ते हैं. सोहित मिश्रा ने देखा कि कॉलेज तो बाहर से ठीक ठाक दिखता है मगर अंदर से हालत ख़राब है. इंजीनिरिंयरिंग कॉलेज के लैब में मशीनें तो हैं मगर दो तीन साल से बंद हैं. बरसात के समय छत टपकती है तो पानी को जमा करने के लिए कई जगह प्लास्टिक की बोतल रखी मिल गई. शौचालय की हालत भी बहुत ख़राब है. आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि लाखों की फीस देकर छात्र किस टाइप के इंजीनियर बन रहे हैं. शिक्षकों ने अपनी लाचारी को दुशाला की तरह ओढ़ लिया है, उनका कहना है कि सरकार से तय वेतन 65,000 है तो यहां शिक्षकों को 30,000 मिलता है. यही नहीं, यहां जो पोस्ट ग्रेजुएज पास करता है, उसे ही शिक्षक बना दिया जाता है. वेतन न मिलने के कारण कई शिक्षकों ने कॉलेज छोड़ दिया है. यादवराव तासगाओंकर इंजीनियरिंग एंड टेक्नालजी कॉलेज में जहां 111 शिक्षक थे अब 65 ही रह गए हैं. मेकेनिकल डिपार्टमेंट में 26 में सिर्फ 6 प्रोफेसर रह गए हैं. सिविल डिपार्टमेंट में 26 में से 8 प्रोफेसर ही हैं. शिक्षकों का आरोप है कि कॉलेज ने प्रोविडेंड फार्म भरना बंद कर दिया है. इन शिक्षकों ने अपने शोषण के खिलाफ कॉलेज के मैनेजमेंट, शिक्षा मंत्री, मुख्यमंत्री सबसे बात की, प्रतिवेदन दिया मगर मिला सिर्फ आश्वासन और भाषण. शिक्षक कह रहे हैं कि सैलरी नहीं मिलती है तो वे बच्चों की स्कूल फीस तक नहीं भर पा रहे हैं. शिक्षक कह रहे हैं कि इस साल मात्र 3 महीने का वेतन नहीं मिला है. अभी तक 16 महीने का वेतन बाकी हो चुका है.
जब शिक्षक ही छात्रों के आंदोलन को प्रोत्साहित नहीं करेंगे तो एक दिन उनकी भी हालत यही हो जाएगी. उन शिक्षकों के लिए भी बोलने वाला कोई नहीं रहेगा. देश भर में शिक्षक संघों के पतन की निशानी है कि अब आपको उनके ज़रिए यूनिवर्सिटी की बदतर हालत पर कोई आवाज़ सुनाई नहीं देता क्योंकि सब अपने अपने दल की सरकार में सेट हो चुके हैं.
यादवराव तासगाओंकर के चेयरमैन नंदु तासगांवकर ने ईमेल के ज़रिए अपना जवाब भेजा है. जवाब में लिखा है कि वे यूनिवर्सिी सीरीज़ देख रहे हैं मगर ये नहीं सोचा होगा कि हम उन्हीं तक पहुंच जाएंगे. इन्हें इस बात का दुख है कि सोहित ने जाने से पहले प्रबंधन को क्यों नहीं बताया. आप ही सोचिए, हम बता कर जाते तो प्रबंधन क्या अपने शिक्षकों के पास ले जाता कि हां जी अब बोलिए कि आपको सैलरी नहीं मिल रही है. चेयरमैन नंदु जी ने लिखा है कि उन्हें पिछड़ी जाति के होने के कारण निशाना बनाया जा रहा है. उनका कहना है कि 'शिक्षकों के सारे आरोप आधारहीन और तथ्यहीन हैं. पीएफ के मामले में कानून अपना काम कर रहा है. हम आपको आश्वस्त करना चाहते हैं मई 2018 से पहले अधिकतम सैलरी का भुगतान कर दिया जाएगा. ज़्यादातर शिक्षक दो तीन साल पुराने हैं तो 2011 से सैलरी न मिलने की बात कैसे सही हो सकती है. हमारे यहां 50 से 60 फीसदी छात्र पिछड़ी और अति पिछड़ी जाति के हैं. हमारा 50 से 60 फीसदी राजस्व स्कॉलरशिप और फ्रीशिप से आता है तो इसलिए सैलरी का संबंध राजस्व से है. हम 40 फीसदी राजस्व के सहारे कैसे संस्थान चला सकते हैं. छात्रों की संख्या नहीं होने के कारण कॉलेज का एक इंजीनियरिंग कॉलेज बंद कर दिया गया है इसलिए उनके लैब बंद हैं.'
चेयरमैन ने यह भी कहा कि आपने कितने शिक्षकों से बात की, क्या आपको लगता है कि 10 फीसदी शिक्षकों से बात कर लेने से स्टोरी जेनुइन हो जाती है, तो क्या सौ फीसदी शिक्षकों से बात करनी चाहिए थी, क्या ऐसा होता है, अगर दो ही शिक्षकों को सैलरी नहीं मिल रही है जिसके बारे में खुद चेयरमैन कहते हैं कि अधिकतम सैलरी मई 2018 तक मिल जाएगी. नहीं मिल रही होगी तभी तो कह रहे हैं कि मई 2018 तक मिल जाएगी. फिर भी चेयरमैन साहब को लगता है कि ये स्टोरी ग़लत है. चेयरमैन साहब के जवाब में पद की गरिमा कम धमकी ज्यादा है. वे जब यह कहने लगते हैं कि क्या आपने इन शिक्षकों का पांच साल मस्टर रोल चेक किया है, इनमें से आप पाएंगे कि इनमें से 40 से 70 फीसदी बार ये लोग लेट आते हैं. जल्दी चले जाते हैं.
हमने पचासों कॉलेज और बीसों यूनिवर्सिटी की खराब हालत पर सीरीज की है. चेयरमैन साहब पहले हैं जो इतने कमज़ोर तर्कों से अपना बचाव कर रहे हैं. शिक्षक की सैलरी नहीं मिल रही है तो कोई झूठ क्यों बोलेगा, नहीं मिल रही है तो दे दीजिए. बात खत्म. लैब नहीं चल रहे हैं तो चला दीजिए. हम इनके मेल के सारे पहलु को कोट नहीं कर रहे हैं वर्ना चेयरमैन साहब कहेंगे कि हम जितना घंटा बोलेंगे आप उतना घंटा दिखाइये. सोहित मिश्रा अपनी रिपोर्ट पर कायम हैं. चेयरमैन साहब ने लिखा है कि वे मेरे फैन हैं. मुझे ऐसे फैन पर निराशा हुई और आपसे भी निवेदन है किसी का फैन मत बनिए, सिस्टम देखिए वो ठीक हो रहा है या नहीं.
गाज़ियाबाद के संतोष मेडिकल यूनिवर्सिटी के शिक्षक कलेक्टर के दफ्तर के बाहर प्रदर्शन कर रहे हैं. इसमें नॉन टीचिंग और छात्र भी हैं. 30 अक्तूबर के दिन यह प्रदर्शन हुआ था. संतोष मेडिकल यूनिवर्सिटी सेंट्रलाइज्ड डीम्ड यूनिवर्सिटी है. पी महालिंगम साहब इसके संस्थापक हैं जिनकी बुधवार को यानी 1 नवंबर को एडिशनल डिस्ट्रिक्टि मजिस्ट्रेट के साथ बैठक होने वाली है. एडीएम में संस्थान के रिकॉर्ड भी चेक किए हैं. शिक्षकों का कहना है कि नोटबंदी के बास से उन्हें नियमित सैलरी नहीं मिल रही है. प्रबंधन कारण नहीं बता रहा है जबकि एडमिशन भी पूरे हुए हैं. शिक्षकों का आरोप है कि 2013 से पीएफ का फार्म जमा नहीं हो रहा है. ये शिक्षक एक महीने से विरोध कर रहे हैं. ये शिक्षक भी अपने विरोध से पहले छात्र संगठनों के प्रदर्शनों पर हंसा करते होंगे, आज इन्हें खुद प्रदर्शन करना पड़ रहा है. रजिस्ट्रार डॉक्टर वी पी गुप्ता ने आदेश निकाला है कि अपरिहार्य कारणों से पोस्ट ग्रेजुएट और अंडर ग्रेजुएट की पढ़ाई 30 अक्तूबर से अगले आदेश तक के लिए बंद की जाती है. यूनिवर्सिटी ने अपना एक इम्हतान भी रद्द कर दिया है.
हमने संतोष मेडिकल कॉलेज के रजिस्ट्रार से बात की. वी पी गुप्ता ने कहा कि पिछले साल से पीजी और बीडीएस की सीटें खाली चली गईं हैं जिससे कॉलेज आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रहा है. धीरे-धीरे हालात ठीक हो जाएंगे. धीरे-धीरे हम सारे लोगों की सैलरी रीलीज़ कर रहे हैं. अच्छी बात है कि गाज़ियाबाद प्रशासन ने इस मसले में पहल की है और एक नवंबर को कॉलेज के चैयरमैन से बैठक के बाद समस्या को सुलझाने का प्रयास किया जाएगा. हर जगह की समस्या एक ही है मगर सब अपनी अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं. दिल्ली के स्कूल ऑफ प्लानिंग एंड आर्किटेक्ट के छात्रों ने अपनी मांगें मनवा ली है.
सोमवार रात पौने नौ बजे यानी प्राइम टाइम शुरू होने से पहले छात्रों ने आंदोलन समाप्ति का एलान कर दिया. प्रशासन ने छात्रों की ज़्यादातर मांगे मान ली है. पिछले पांच दिनों से यहां के छात्र सुबह शाम प्रदर्शन कर रहे थे. सुरक्षा से लेकर पानी और सफाई की व्यवस्था उनकी मुख्य मांगे थीं. आंदोलन का नतीजा ही था कि हास्टल और कॉलेज के कैंपस में नया वाटर कूलर आ गया. सफाई भी हो गई. प्रशासन ने छात्रों को डराने के लिए परिवार वालों को भी पत्र लिखा. जिसमें बताया गया था कि अगर आपके बच्चे इसी तरह प्रदर्शन करते रहे तो सेमेस्टर मिस हो सकता है. मगर छात्र पीछे नहीं हटे. क्लासरूम में सोते रहे, अपने कमरे में नहीं गए. अब समझौता हो गया है और मांगे मान ली गईं हैं.
जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्र मीरान हैदर 7 दिनों से भूख हड़ताल पर हैं. उनके साथ कई और छात्र हड़ताल पर हैं और दिन रात धरने पर बैठ रहे हैं. मीरान हैदर और उनके साथियों की मांग है कि जब यहां शिक्षक यूनियन है, कर्मचारी यूनियन है तो छात्र संघ क्यों नहीं है. जामिया ने एक रणनीति के तहत छात्र संघ को ख़त्म कर दिया है. छात्र संघ बनाने की जब भी बात होती है टालमटोल होने लगती है. जब छात्रों के प्रतिननिधि मंडल ने इस केस को लड़ रहे वकील से मुलाकात की तब बता चला कि 2011 के वाइस चांसलर छात्र संघ नहीं चाहते थे. यूनिवर्सिटी स्वायत्त संस्था है. प्रशासन चाहे तो आज चुनाव हो सकता है जैसे जेएनयू में होता है. वीसी कहते हैं कि मामला कोर्ट में अटका है मगर छात्र कहते हैं कि ये बहाना है. शम्सी मुस्तफा और इमरान अहमद भी भूख हड़ताल पर बैठे थे जिन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया था. जामिया के इस आंदोलन के समर्थन में सांसद अली अनवर भी आ चुके हैं. ऑस्कर फर्नांडिस भी आए हैं. जामिया के कई पूर्व छात्र नेता आ रहे हैं. डीयू से भी रतन लाल और सचिन नारायण यहां भाषण दे चुके हैं. जेएनयू के छात्र संगठन और शिक्षकों के संगठन ने भी अपना समर्थन दिया है. जामिया में 17000 छात्र पढ़ते हैं, यहीं यूनियन की आज़ादी नहीं तो यहां के छात्र तमाम मुद्दों पर अभिव्यक्ति की आज़ादी की लड़ाई कैसे लड़ेंगे.
छात्र संगठन नहीं होने से कॉलेज में जाने वाले छात्र आवाज़ नहीं उठा पाते. वैसे जहां हैं वहां भी कॉलेज में शिक्षकों के नहीं होने, शिक्षकों की नियुक्तियों में धांधली, उनके कम वेतन को लेकर आंदोलन नहीं है. हर तरफ चुप्पी है. जो छात्र आंदोलन कर रहे हैं वो अपने जोखिम पर कर रहे हैं बाकी तमाशा देखते हैं तब तक जब तक वे खुद किसी शोषण का शिकार नहीं हो जाते और किसी छात्र नेता या शिक्षक नेता की तलाश में नहीं लग जाते. आंदोलन की ज़रूरत आपको है, सरकार को नहीं. आंदोलन नहीं होंगे तो आवाज़ कैसे उठेगी. अब सोचिए दिल्ली में प्रदर्शन जंतर मंतर पर नहीं होगा तो कहां होगा.
वैसे अब जंतर मंतर पर नहीं हो सकेगा. नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल के आदेश के बाद जंतर मंतर को खाली करवा दिया गया है. आम जनता की कई मांगें इस छोटी सी जगह से उठी हैं और यहां से करीब में बनी संसद और सरकार तक पहुंची हैं. यहां लाउडस्पीकर से शोर हो रहा था तो बंद कर दिया गया. गली मोहल्ले में लाउडस्पीकर से शोर हो रहा है कोई बंद नहीं कर रहा है मगर लोकतंत्र के लिए जो जगह है वो ध्वनि प्रदूषण के नाम पर बंद कर दी गई और समाज में किसी प्रकार की बेचैनी नहीं हुई. अदालत का आदेश है तो पुलिस और एनडीएमसी ने सबको बसों में ठूंस कर यहां से हटा दिया. निर्भया आंदोलन की गूंज यहीं सुनाई दी थी, अण्णा हज़ारे ने यहीं से आंदोलन किया, बीजपी कांग्रेस लेफ्ट किसने यहां प्रदर्शन नहीं किया होगा. बहुत से कमज़ोर लोग यहां धरने पर बैठे मिल जाते थे कि यहां आते जाते मीडिया की निगाह पड़ जाए और बात सरकार तक पहुंच जाए. एक आदेश से आवाज़ छिन गई. यहां अब गमले लगाए जाएंगे. इसी तरह पहले कभी लाल किला के पीछे प्रदर्शन होते थे. मैंने खुद कवर किया है मगर वहां भी प्रदर्शन बंद कर दिया गया. पार्क बना दिया गया. वोट क्लब पर रैली की तस्वीर आपको वीपी सिंह, देवीलाल, चौधरी चरण सिंह, शरद यादव, लालू यादव, नीतीश कुमार किसके घर पर नहीं होगी, मगर वहां तो कब से यह सब बंद हो चुका है. एनजीटी ने कोई दूसरी जगह नहीं दी है मगर कहा है कि आंदोलन कारी रामलीला मैदान जैसी दूसरी जगह जाएंगे. 12 एकड़ के रामलीला मैदान में एक दिन के प्रदर्शन का किराया 50,000 रुपया है. इससे एमसीडी को साल में 3 से 4 करोड़ की कमाई होती है. वो इसे मुफ्त में नहीं देना चाहती है. लोकतंत्र की संस्था है एमसीडी, इसके प्रतिनिधि जनता से चुनकर आते हैं, वो अब कह रहे हैं कि फ्री में प्रदर्शन करने के लिए मैदान नहीं देंगे.
स्पेस ऑफ प्रोटेस्ट, प्रदर्शन की जगह का स्थान लोकतंत्र में जनता की संसद के समान होता है. मज़दूर किसान शक्ति संगठन के निखिल डे ने बताया कि जयपुर के स्टेच्यु सर्किल में 55-55 दिनों का धरना चला. शहर को पता चला, लोग जुड़े और देश को पता चला कि सूचना के अधिकार जैसा कोई अधिकार मिल सकता है, मनरेगा जैसा कानून बन सकता है. निखिल ने कहा कि आरटीआई में जब पहले साल यूपीए कोई संशोधन करना चाहती थी तो इसके खिलाफ जंतर मंतर पर प्रदर्शन हुआ और उनकी जीत हुई तब उनके साथी शंकर ने एक गाना लिखा था जंतर की मंतर की जय जय बोलो. आज आप जयपुर के स्टेच्यु सर्किल के पास धरना प्रदर्शन नहीं कर सकते हैं. शहर में प्रदशन की जगह नहीं है. ऐसा नहीं है कि हमें और आप को प्रदर्शन की ज़रूरत नहीं है, कायदे से हर जगह सरकार को प्रदर्शन करने की जगह मुफ्त देनी चाहिए, वहां तक जाने के लिए बस देनी चाहिए, हर तरह की सुविधा होनी चाहिए क्योंकि जो प्रदर्शन करता है वो लोकतंत्र को सुंदर बनाता है, जीवंत बनाता है. वोट देना लोकतंत्र में सबसे आखिरी काम है, उससे पहले जो सबसे ज़रूरी काम है, लगातार किसी जगह पर पहुंच कर आवाज़ उठाना. इसलिए जामिया के छात्रों की मांग में दम है कि छात्र संघ होना चाहिए. छात्र संघ भी स्पेस आफ प्रोटेस्ट है. 13 अक्तूबर को केरल हाई कोर्ट ने अंतरिम आदेश जारी किया है कि कालेज के कैंपस में प्रोटेस्ट नहीं किया जाएगा, क्योंकि संस्थान अध्ययन के लिए बने हैं, कैंपस को हड़ताल और प्रदर्शन मुक्त रहना चाहिए.
This Article is From Oct 31, 2017
प्राइम टाइम इंट्रो : छात्र राजनीति में नए संगठनों की धमक
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:अक्टूबर 31, 2017 23:00 pm IST
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Published On अक्टूबर 31, 2017 21:21 pm IST
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Last Updated On अक्टूबर 31, 2017 23:00 pm IST
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