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This Article is From Jan 29, 2015

मनीष शर्मा की नज़र से : कहीं बेकार न जाए कर्नल एमएन राय की शहादत

Manish Sharma, Vivek Rastogi
  • Blogs,
  • Updated:
    जनवरी 29, 2015 17:53 pm IST
    • Published On जनवरी 29, 2015 17:50 pm IST
    • Last Updated On जनवरी 29, 2015 17:53 pm IST

नई दिल्ली : शहीद कर्नल मुनींद्र नाथ राय के परिवार को उनकी वीरता और शहादत पर गर्व है। गणतंत्र दिवस पर उन्हें सैन्य सम्मान मिला और अगले दिन जम्मू-कश्मीर के त्राल में आतंकियों से मुठभेड़ में वह शहीद हो गए, लेकिन क्या देश और देश की सरकार सचमुच अपनी सेना का दिल से सम्मान करती है...? इस देश में आतंकवादियों के मानवाधिकारों के बारे में बात करने वाले शुभचिंतक आपको हर जगह मिल जाएंगे, परन्तु सेना के जवानों के हितों की रक्षा के बारे में बात करने वाला कोई है...? यह कैसी विडम्बना है कि आज़ाद भारत के इतिहास में भारत के जवानों ने कभी भी दुश्मन मुल्क पर चढ़ाई के दौरान शहादत नहीं पाई है, बेचारे घर की रक्षा में ही शहीद हो जाते है। लगता है, भारत के सैनिकों को आक्रमण करने के लिए नहीं, बल्कि रक्षा करने के लिए ट्रेनिंग मिलती है।

गणतंत्र दिवस पर सम्मानित करने के अलावा क्या सरकार जानती है कि उनकी ज़िन्दगी किन हालात में गुज़र रही है...? हर समय तनाव-भरी ज़िन्दगी, मानवाधिकारों के उल्लंघन का डर, समय पर छुट्टियां न मिलना, घर-परिवार से दूर रहना जैसे कई कारण हैं, जो या तो उन्हें आत्महत्या के लिए मजबूर कर देते हैं या फिर वे समय से पहले रिटायरमेंट ले लेते हैं। पिछले साल जुलाई में तत्कालीन रक्षामंत्री अरुण जेटली ने राज्यसभा में बताया था कि वर्ष 2009 से लेकर 2013 तक 597 सैनिकों ने आत्महत्या की, जिनमें सबसे ज़्यादा मामले आर्मी के जवानों के थे। सरकार के मुताबिक इन पांच सालों में 498 आर्मी वालों, 83 एयरफोर्स वालों, और 16 नेवी के जवानों ने आत्महत्याएं कीं। इन पांच सालों में आर्मी के 1,349 जवानों ने समय से पहले रिटायरमेंट भी ली।

आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पॉवर एक्ट (AFSPA) के खिलाफ बात करने वाले लोग भूल जाते हैं कि हमारे सैनिक कश्मीर में किन परिस्थितियों में काम करते हैं। इस एक्ट के दुरुपयोग का इल्ज़ाम हमारे जवानों पर हमेशा लगता है। अगर कश्मीर में AFSPA का सचमुच दुरुपयोग हो रहा होता तो कर्नल एमएन राय  आतंकवादियों को सरेंडर करने की बजाए मारने पर यकीन रखते। तब शायद वह बच भी जाते। एक अख़बार के अनुसार मिंदोरा गांव में दो आतंकियों के एक घर में छिपे होने की ख़बर मिलने पर कमांडिंग ऑफिसर कर्नल राय अपने सैनिकों के साथ वहां पहुंचे। आतंकियों के घरवालों ने कहा कि वे उन पर गोली नहीं चलाएं और हम उनका आत्मसमर्पण करवा देंगे। कर्नल राय ने अपने ऑपरेशनल प्रोसीजर की बात मानने के बजाए आतंकियों के परिजनों की बात पर यकीन कर लिया। इसके बाद कर्नल राय खुद आतंकी का समर्पण कराने के लिए उसके ठिकाने की तरफ बढ़े तो आतंकी ने मौका पाकर फायरिंग कर दी। दोनों को ही गोलियां लगीं, लेकिन कर्नल राय ने तुरंत कार्रवाई की और दोनों आतंकवादियों को मार गिराया।

वह दौर गया, जब बॉलीवुड में 'हकीकत' और 'बॉर्डर' जैसी फिल्में बनती थीं, जिनसे हर नागरिक को अपने सैनिकों पर, और हर सैनिक को खुद पर गर्व होता था। आजकल तो 'हैदर' जैसी फिल्मों को सराहा जाता है और अवार्ड दिए जाते हैं, जिनमें सैनिकों को नकारात्मक दिखाया जाता है। 'हैदर' जैसी फिल्में हमारे जवानों को सोचने के लिए मजबूर कर देती हैं कि वे किसके लिए लड़ रहे हैं, या वे किसकी रक्षा कर रहे हैं...? जिन सैनिकों की मदद से निर्माता कश्मीर में शूटिंग कर पाते हैं, उन्ही सैनिकों को फिल्मों में खलनायक के तौर पर पेश करते हैं।

इसी बात का एहसास शायद भारत की सर्वोच्च अदालत को भी हुआ, और इसीलिए इस साल 13 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका के जवाब में कहा कि क्यों फिल्म बनाने वाले सिर्फ सिक्योरिटी फोर्स की कथित ज्यादतियों की तस्वीर पेश करते हैं...? क्यों सिर्फ एक पक्ष की चीजों को दिखाया जाता है...? क्यों सिर्फ एक पक्ष के ह्यूमन राइट्स की बात की जाती है, और दूसरे पक्ष को नजरअंदाज कर दिया जाता है...?

एक समारोह में सैनिक को सम्मान देने से सरकार की ज़िम्मेदारी ख़त्म नहीं हो जाती। सरकार को समझना चाहिए कि सैनिक भी इंसान होते हैं और उनकी भी ज़रूरते होती हैं। वे सम्मान के साथ-साथ अच्छी ज़िन्दगी के भी हक़दार हैं। उनके हितों की रक्षा के लिए भी आवाज़ उठनी चाहिए। उनकी नकारात्मक छवि देश के हित में नहीं है। भारत का सैनिक इतना भी टूट न जाए कि वह देश की रक्षा तो क्या, अपनी रक्षा भी न कर पाए। और यह स्थिति हम सब के लिए घातक है।

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