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This Article is From Nov 23, 2016

प्राइम टाइम इंट्रो : जिस लोकपाल के लिए लड़े, वो कहां है?

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    नवंबर 23, 2016 21:43 pm IST
    • Published On नवंबर 23, 2016 21:37 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 23, 2016 21:43 pm IST
18 दिसंबर 2013 को लोकपाल पास हुआ था. 23 नवंबर 2016 आ गया. लोकपाल नहीं है. 2011 से लेकर 2013 तक दिल्ली से चलने वाले मीडिया में जितनी बहस लोकपाल और भ्रष्टाचार को लेकर हुई उतनी किसी दूसरे मुद्दे को लेकर नहीं हुई. लोकपाल की क्षमता और भ्रष्टाचार के मिट जाने की तमाम संभावनों पर खूब बहस हुई. पहली बार लोग किसी कानून और उसके ढांचे को लेकर इस तरह से बहस करने लगे. ठीक उसी तरह से जैसे इन दिनों नोटबंदी को लेकर घर-घर में बहस हो रही है. सब हुआ, लेकिन लोकपाल नहीं आया. अभी तक वो लोकपाल नहीं आया है, जिसे भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ कर फेंकना था, नोटबंदी आ गई है, जिसके बारे में दावा है कि भ्रष्टाचार दूर करने का ऐतिहासिक कदम है. ऐतिहासिक तो लोकपाल को भी कहा गया था. सदन में पेश किये जाने के 46 साल बाद लोकपाल कानून पास हुआ था. इतिहास बनकर भी लोकपाल का वर्तमान नहीं बन सका. सबक यही है कि इतिहास बनाने से वर्तमान नहीं बनता है.

क्या वे भी भूल गए जो लोकपाल की लड़ाई लड़ते थे. नोटबंदी के हंगामे में लोकपाल का ज़िक्र आया भी तो सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद. लोकपाल आंदोलन से एक पार्टी बनी, जिसकी दिल्ली में सरकार है. इस आंदोलन से दो लोग अलग हुए जिनमें से एक केंद्र में विदेश राज्य मंत्री हैं. एक पुडुचेरी की लेफ्टिनेंट गवर्नर हैं. अन्ना हज़ारे अभी तक नैतिक गुरु के पद पर बने हुए हैं. समय-समय पर टीवी पर अवतरित होते रहते हैं. संसद में लोकपाल यूपीए के समय पास हुआ था. नोटबंदी को लेकर इतनी लड़ाई हो रही है? क्या आपने कांग्रेस के किसी नेता को 'लोकपाल लोकपाल' करते सुना है. लोकपाल को पास कराने में बीजेपी का भी हाथ था और उसने भी खूब श्रेय लिया था. लोकसभा में विपक्ष की नेता के रूप में सुषमा स्वराज का यादगार भाषण कौन भूल सकता है. इस वक्त सुषमा जी अस्तपाल में हैं और हम भी और आप दर्शकों की तरफ से भी उनके शीघ्र स्वस्थ होने की कामना करते हैं. ऐसा नहीं है कि मौजूदा प्रधानमंत्री मोदी ने गुजरात से लोकपाल का स्वागत नहीं किया था. 18 दिसंबर को ही उन्होंने तीन ट्वीट किया था.

उस वक्त लोकपाल के समर्थन में बोलने वाले 125 करोड़ भारतीय की तरफ से बोलते थे. इस वक्त भी नोटबंदी के समर्थक 'पूरा देश पूरा देश' बोल रहे हैं. लोकपाल के समय वाला देश कैसे भूल गया. नोटबंदी के समय वाला देश कैसे नहीं भूलेंगे, हम कैसे दावा कर सकते हैं. लोकपाल की नियुक्ति एक पहलू है. लोकपाल नाम की संस्था का ढांचा क्या तैयार कर लिया गया है. प्रशांत भूषण की टीम ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी जिस पर अदालत की टिप्पणी आई है.

लोकपाल से लेकर नोटबंदी तक सपना एक ही है, भ्रष्टाचार मिटना चाहिए. नोटबंदी वाले भी लोकपाल के लिए फिर से संघर्ष कर सकते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि लोकपाल को एक डेड लेटर नहीं बनने दिया जाना चाहिए. सरकार को इसके लिए एक डेडलाइन तय करनी होगी. 7 दिसंबर को फिर से सुनवाई होगी. मौजूदा लोकसभा में नेता विपक्ष नहीं है और लोकपाल की नियुक्ति की कमेटी में नेता विपक्ष का होना ज़रूरी है. नियुक्ति के इसी नियम में बदलाव करना है. 2014 के बाद के संसद के सत्रों के रिकार्ड काम करने की खबरें आती हैं. कई सारे बिल के पास होने की खबरें आती हैं. जीएसटी जैसा असंभव सा लगने वाला बिल पास हो गया. लोकपाल की नियुक्ति में किसकी दिलचस्पी नहीं है. यह राय कब बन गई कि भ्रष्टाचार मिटाने में लोकपाल का कोई रोल ही नहीं है. लोकपाल आंदोलन ने मीडिया को भी बदला था. जो टीवी चैनल भूत प्रेत में लगे हुए थे वे भ्रष्टाचार की लड़ाई का प्रसारण सेंटर बन गए. एंकरों के मसीहा बनने का दौर यहीं से शुरू होता है.

आज़ादी पार्ट टू लांच कर दी गई. सबको लग रहा था कि वे देश की आजादी के लिए जी जान से बहस में जुटे हैं. जैसा अब बताया जा रहा है कि आप जिस तकलीफ से गुज़र रहे हैं वो देश के लिए है. आम लोग टीवी स्टूडियो से लेकर माइक पर आ गए. मीडिया ने उस भूख को उजागर किया. भ्रष्टाचार मिटाने के कार्यक्रमों को टीआरपी मिलने लगी. लोकपाल ही वो टर्निंग प्वाइंट था जिसके कारण टीवी के बंद स्टूडियो की दीवारें ढह गईं. आम लोगों की बात पहुंचने लगी. जुनूनी बहस आज भी हो रही है बस किसी को याद दिलाने की ज़रूरत है कि ऐसी ही बहस पहले भी हो चुकी है. ज्यादा नहीं तीन साल पहले.

इस वक्त की तरह उस वक्त भी खूब सर्वे हो रहे थे। न्यूज़ चैनल सीएनएन, आईबीएन और सीएनबीसी टीवी 18 ने सीएसडीएस के साथ मिलकर एक अखिल भारतीय सर्वे किया था. 'हिन्दू' अखबार ने भी छापा था. 9 अगस्त 2011 के फर्स्ट पोस्ट में इस सर्वे पर रिपोर्ट छपी. सर्वे में शामिल 34 प्रतिशत लोगों ने कहा था कि लोकपाल का नाम सुना है.
24 प्रतिशत लोगों ने कहा था कि उन्हें पता है कि लोकपाल क्या है. पढ़े-लिखे लोगों में 67 फीसदी ने लोकपाल के बारे में सुना था और 51 प्रतिशत ने कहा था कि उन्हें पता है कि लोकपाल क्या है.

ऐसे सर्वे तमाम चैनलों और अखबारों ने किए होंगे, लेकिन उस समय के सर्वे का सवाल ठीक लगता है कि जिस लोकपाल को लेकर इतना हंगामा है ज़रा पूछा तो जाए कि कितने लोगों ने नाम सुना है और कितने लोगों को लोकपाल का मतलब पता है. उस सर्वे के सवाल काफी बारीक थे. लोकपाल पर आपके क्या मत हैं? क्या आप सरकार के तर्क से सहमत हैं? क्या आप अन्ना हज़ारे के तर्क से सहमत हैं?

अभी कहा जा रहा है कि सिर्फ अमीर भ्रष्ट हैं, लेकिन उस वक्त के सर्वे में पांच कैटगरी के बारे में पूछा गया था कि इनमें से कौन सबसे भ्रष्ट है - सरकार, निर्वाचित प्रतिनिधि, न्यायपालिका, बिजनेसमैन, उद्योगपति, एनजीओ और मीडिया. सर्वे में शामिल 32 फीसदी लोगों ने कहा था कि सरकार सबसे भ्रष्ट है और 43 फीसदी लोगों ने कहा था कि चुने हुए नेता सबसे भ्रष्ट हैं.

इसी तरह के सर्वे इन दिनों भी हो रहे हैं. नोटबंदी के बाद मुख्य सवाल यही हो गया है कि आप सरकार के फैसले से खुश हैं या नहीं. सर्वे के सवाल इसी के आसपास हैं. तब लोकपाल को लोग भ्रष्टाचार का मुक्तिदाता मान कर सर्वे में शामिल हो रहे थे, अब उसे भूल कर लोग नोटबंदी को नया मुक्तिदाता मानने लगे हैं. तब भी वही लोग थे, अब भी यही लोग हैं. क्या लोकपाल की तरह कुछ सवाल इस तरह से पूछे जा सकते हैं जैसे -
क्या आप जानते हैं कि काला धन कैसे कैसे बनता है?
क्या आप जानते हैं कि नगदी नोट के अलावा काला धन कितने प्रकार के होते हैं?
क्या आप जानते हैं कि फर्जी कंपनी बनाकर दूसरे देशों में पैसा रखा जाता है?
क्या आप मानते हैं कि सिर्फ नोटबंदी से ही काला धन मिट जाएगा?


लोकपाल के समय यह पूछा गया कि आप इसके बारे में कितना जानते हैं. नोटबंदी के समय भी पूछा जाना चाहिए कि आप काला धन के बारे में क्या जानते हैं. अब हर कोई यही पूछ रहा है कि क्या आप सरकार के फैसले के साथ हैं? कम से कम मुख्य सवाल तो यही है कि क्या आप सरकार के फैसले के साथ हैं? भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई का विरोध वो भी नहीं करेगा जो भ्रष्टाचार में शामिल है. 'दैनिक जागरण' और 'हिन्दुस्तान' के सर्वे हैं. 19 नवंबर के 'दैनिक जागरण' के सर्वे का पहला सवाल है कि इस कदम से होने वाली परेशानी के बावजूद आप इसके पक्ष में हैं? इस सर्वे में शामिल 86.1 प्रतिशत लोगों ने कहा है कि हां हैं. क्या बड़े नोट बंद करके सरकार ने सही कदम उठाया है- 84.8 फीसदी लोगों ने कहा है कि सही कदम उठाया है. चौथा सवाल है कि क्या इससे काला धन समाप्त हो जाएगा और आगे इसके रास्ते बंद हो जाएंगे. इसके जवाब में लोगों की राय में भारी बदलाव दिखता है. 25 प्रतिशत लोग कहते हैं कि सहमत नहीं हैं, 67.2 फीसदी कहते हैं कि सहमत हैं. जबकि सरकार के कदम को अच्छा मानने वालों का प्रतिशत 84.8 और 86.1 प्रतिशत है.

20 नवंबर को हिन्दी अखबार दैनिक हिन्दुस्तान में एक सर्वे प्रकाशित होता है। जागरण के सर्वे में अच्छा कदम बताने वालों की प्रतिशत 85 या उससे अधिक है. हिन्दुस्तान का सर्वे बताता है कि पिछले दस दिन में नोटबंदी के समर्थक लगातार कम हुए. 8 नवंबर को ही हिन्दुस्तान के सर्वे में 78 फीसदी लोगों ने समर्थन किया था. सात दिन बाद समर्थकों की संख्या घटकर 61.93 प्रतिशत हो गई. 10 दिन बाद समर्थकों की संख्या घट कर 46 प्रतिशत हो गई.

टाइम्स आफ इंडिया ने भी 22 नवंबर को सी-वोटर का एक सर्वे छापा है जिसके अनुसार 80 फीसदी लोगों ने कहा है कि वे नोटबंदी से होने वाली तकलीफों की परवाह नहीं करते. सारा सवाल इसी पर है कि फैसले के समर्थक हैं या इससे हुई तकलीफ को परवाह करते हैं या नहीं. अन्ना आंदोलन के दौरान ही अरविंद केजरीवाल ने लोकपाल से जुड़े हर पहलू पर जनमत संग्रह का चलन शुरू किया था.

2011 में लोकपाल कैसा होना चाहिए इसे लेकर पुरानी दिल्ली और माडल टाउन में सर्वे करा दिया गया था. तब काफी मज़ाक उड़ा था कि कानून संसद के विवेक से बनता है या इस तरह से मिस्ड कॉल वाले सर्वे से. नोटबंदी के दौर में यही सर्वे फिर से लौट आए हैं. प्रधानमंत्री ने एप जारी किया है जिसपर काले धन को लेकर दस सवाल पूछे गए हैं. भारतीय इतिहास का इतना बड़ा फैसला. उसी तरह से लोकपाल के बारे में कहा जाता था और इन सर्वे पर सवाल उठते थे. उस समय केजरीवाल सर्वे करके दिल्ली के ऑटो पर चिपका देते थे. उन सर्वे का मज़ाक उड़ता था, सवाल होते थे.
संसद के भीतर शरद यादव कहा करते थे कि कानून सदन के विवेक से बनेगा. टीवी की बहस और सर्वे से नहीं. वैसे 24 घंटे के भीतर प्रधानमंत्री के एप पर पांच लाख से ज्यादा लोगों ने वोट कर दिया है. दो सवालों में तो 98 और 99 प्रतिशत समर्थन में मत मिले हैं. अगर आप आलू किसान हैं, गरीब जनता हैं, मज़दूर हैं तो आपको भी सर्वे में हिस्सा लेना चाहिए. सर्वे के सवाल पर भी सवाल हुआ है, लेकिन प्रधानमंत्री ने इस ऐतिहासिक भागीदारी के लिए सबका आभार जताया है.

याद कीजिए लोकपाल के दौर की वो तमाम तल्खियां, तेज़ियां कहां हवा हो गईं हैं. दोस्त-दोस्त आपस में लड़ने लगे थे. नई राजनीतिक निष्ठाएं बन रही थीं. कहीं वही सब तो फिर से नहीं हो रहा है. क्या नोटबंदी के बाद से आप और आपके मित्र समूह में बहसबाज़ी तेज़ नहीं हुई है. ज़रूर हुई होगी. याद कीजिए लोकपाल के वक्त की बहसों का क्या हुआ. आम आदमी पार्टी ने केंद्र के लोकपाल को स्वीकार नहीं किया और अपना जनलोकपाल बनाने का एलान कर दिया.

4 दिसंबर 2015 को दिल्ली विधानसभा में दिल्ली जनलोकपाल बिल पास हो गया. इसकी भी आलोचना हुई. कहा गया कि जब मुख्यमंत्री केजरीवाल आंदोलन करते थे तब कहते थे कि लोकपाल की नियुक्ति में नेता ज़्यादा होंगे तो ईमानदारी से काम नहीं कर सकता है. लेकिन जब दिल्ली का जनलोकपाल आया तो उसमें नेता ही ज़्यादा थे. जब इसकी आलोचना हुई तो अन्ना के कहने पर दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस को भी शामिल किया गया. जनलोकपाल बिल पास होकर भी लागू नहीं हुआ है. इसके भी पास हुए करीब एक साल होने को आ गए हैं. फिलहाल दिल्ली में लोकायुक्त हैं.

दोनों दौर को याद कीजिए. नेताओं में कितना घमासान होता था. भ्रष्टाचार को मिटाने वाला लोकपाल आया भी नहीं. लेकिन इस दौरान भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए कई कानून बने, एसआईटी बनी. अघोषित संपत्ति घोषित करने की योजना आई. नोटबंदी आ गई, मगर लोकपाल का पद खाली रह गया. नोटबंदी से होने वाली परेशानियों और सरकार की लचर तैयारियों के खिलाफ विपक्ष ने 28 नवंबर को देशव्यापी आक्रोश दिवस का एलान किया है. उस वक्त भी यानी 23 अगस्त 2011 को अन्ना हज़ारे के आहवान पर गैर एनडीए के 9 विपक्षी दलों ने राष्ट्रव्यापी आंदोलन का समर्थन किया था.

लोकपाल नहीं आया ये एक तथ्य है पर ऐसा नहीं है कि सरकार लोकपाल कानून के बारे में भूल ही गई. इसी 27 जुलाई 2016 के हिन्दू अखबार की रिपोर्ट है कि राज्य सभा और लोकसभा ने लोकपाल और लोकायुक्त संशोधन बिल 2016 पास कर दिया है. मगर इस संशोधन का संबध लोकपाल की नियुक्ति के लिए चयन समिति की शर्तों को बदलना नहीं था. आप जानते हैं कि चयन समिति में नेता विपक्ष होना चाहिए मगर लोकसभा में नेता विपक्ष नहीं है. इसलिए नियुक्ति नहीं हो रही है. 27 जुलाई को जो संशोधन पास हुआ वो इसलिए था कि 31 जुलाई तक अधिकारियों को अपनी और अपने परिजनों की संपत्ति का ब्यौरा जमा करना था. अधिकारियों के अलावा एनजीओ के बोर्ड मेंबर और ट्रस्टी को भी संपत्ति का ब्यौरा देना था. संशोधन के ज़रिये 31 जुलाई की समय सीमा बढ़ा दी गई. इस वक्त भी भ्रष्टाचार को मिटाने की खूब दावेदारियां हो रही हैं.

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