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This Article is From Apr 27, 2018

कुशीनगर में ग़लती किसकी थी? और सज़ा का गणित क्या होता है?

Kranti Sambhav
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अप्रैल 27, 2018 00:07 am IST
    • Published On अप्रैल 27, 2018 00:07 am IST
    • Last Updated On अप्रैल 27, 2018 00:07 am IST
बारह इंतज़ार अब कभी ख़त्म नहीं होंगे, जिनके सफ़र घर और स्कूल के बीच ख़त्म हो गए. ये इंतज़ार ना तो उनके परिवारों के लिए ख़त्म होगा ना ही उनके स्कूल के दोस्तों के लिए. उनके मां-बाप कुछ दिनों तक, सुबह उनके टिफ़िन में क्या दिया जाएगा, सोने से पहले हर रात आदतन सोचेंगे. आदतन सुबह उठेंगे भी लेकिन नाश्ता नहीं बनाएंगे.

क्लास में उन बच्चों के साथ बेंच पर बैठने वाले मित्र भी साथ कुछ दिनों के लिए दोस्त के बस्ते के लिए जगह रखेंगे. लेकिन बार-बार ख़ाली सीट ही देखेंगे. तब कैसा महसूस करेंगे ये लिखना मेरे लिए मुश्किल है. आज के वक़्त के सोशल मीडिया पर भोथरे हुए अहसासों के बावजूद हमें उस रिश्ते की मासूमियत और गाढ़ेपन की हल्की सी याद तो होगी. ये भी याद होगा ऐसे किसी बेंच-मित्र के ट्रांसफ़र के बाद ही नया दोस्त बनाने में कितना वक़्त लग जाता था. और जब वो दोस्त हमेशा के लिए चला जाए तो…?

क्या परिवार अथाह दुख के अलावा पछतावे में भी होगा? क्या मां-बाप अपने बच्चे की सुरक्षा को लेकर थोड़ी और तत्परता और सतर्कता दिखाते तो स्थिति अलग हो सकती थी?

सुबह जब ख़बरें पहली बार आईं तो उसमें लग रहा था कि ट्रेन और स्कूल बस की टक्कर हुई थी. लेकिन दरअसल वो एक टाटा मैजिक गाड़ी थी, जो छोटी वैन होती है. सामान ढुलाई वाले छोटे ट्रक का पैसेंजर गाड़ी वर्ज़न. ऊपर से इसे 7 सीटर के तौर पर हम जानते हैं. और जब ऐसी छोटी वैन में 20-25 बच्चे रोज़ लद कर जाते होंगे तो क्या परिवार वालों को खटका नहीं लगा रहता होगा कि उनके बच्चों को चोट ना आ जाए. सोचिए कितने ही दिन हम ऐसे बेहिसाब लदे स्कूली वैन और रिक्शों को देखते हैं और हमारी नज़र उनपर एक सेकेंड अतिरिक्त ठहरती नहीं क्योंकि इतने अभ्यस्त हैं हम ऐसी लापरवाहियों के. क्या इन बच्चों को मां-बाप ने नहीं सोचा होगा कि किसी दूसरे वैन वाले को देखा जाए?

मुख्यमंत्री भी कुशीनगर पहुंचे थे. वहां मौजूद लोगों के गुस्से को देखकर गुस्से में आ गए थे. नौटंकी बंद करने के लिए कह रहे थे. क्या उन्हें नहीं लगा होगा कि जिन परिवारों के बच्चे मरे हैं और घायल हुए हैं वो वाकई गुस्से में होंगे? क्या उन्हें लगा होगा कि ये लोग एनकाउंटर में मारे गए अपराधियों के परिवार वाले नहीं, पॉलिटिक्स के नाम पर विरोध करने वाले सपाई या बसपाई नहीं, अपने परिवार के अबोध के मारे जाने से गुस्से से भरे लोग हों?

परिवार को सरकार दो-दो लाख रुपये दे रही है. जिन बच्चों की जान चली गई उनके परिवारवालों को. ये मुआवज़े इससे क्रूर कभी लगे थे? सरकारों द्वारा मुआवज़ा देना आम है. लोगों का मरना भी आम है. बच्चों का भी. लेकिन ऐसी घटनाओं से बहुत दुख होता है. सोचिए अब परिवार उस पैसे का क्या करेगा और ख़र्च करने से पहले उनके दिमाग़ में क्या क्या बातें आएंगी?

मुख्यमंत्री ने ये भी कहा कि प्रथम दृष्ट्या ड्राइवर की ग़लती लग रही है, जिसने ईयरफ़ोन लगाया हुआ था. लेकिन क्या मुख्यमंत्री ने रेलवे से फाटक पर कर्मचारी लगवाने के बारे में बात की? क्या स्कूलों को फटकारा जो ऐसे ओवरलोडेड वैन में बच्चों को आने देते हैं? स्थानीय पुलिस और प्रशासन के लोगों को हड़काया कि सात लोगों की गाड़ी में 25 बच्चे जब लदे रहते हैं तो पुलिस वाले क्या करते रहते हैं?

वैसे क्या उन बच्चों में कोई सरकारी अधिकारी और पुलिसवाले का बच्चा भी होगा जो बच्चों से ठूसी हुई ऐसी ही गाड़ियों को देश के तमाम हिस्सों में जाने देते हैं, नहीं रोकते?

प्रकृति की विडंबना पर अचरज होता है. हर दिन चलते-गाते-पढ़ते-लिखते, काम करते, आराम करते हम ग़लतियां करते हैं लेकिन उनमें से ज़्यादातर को सुधार लेते हैं या सकते हैं. कुछ ग़लतियां रबर रगड़ने से मिट जाती हैं, कुछ बैकस्पेस दबाने से. कुछ ग़लतियों को ठीक करने में महीनों लगते हैं, कुछ को साल. लेकिन ये ग़लती तो ऐसी है जिसकी सज़ा या ख़ामियाज़ा का हिसाब दिमाग़ में अंटता ही नहीं है. कैसे एक ईयरफ़ोन लगाने जैसी ग़लती जानलेवा हो जाती है? और अगर हो जाती है तो फिर उनके लिए क्यों जिन्होंने कोई ग़लती नहीं?

ये सब सवाल मेरे ज़ेहन में इसलिए कुलबुला रहे थे क्योंकि मैंने फ़ेसबुक-ट्विटर या एएनआई के माईक पर दुख नहीं व्यक्त किया था. आंकड़ों के पीछे चेहरे होते हैं जिन्हें मैं तलाश रहा था. सड़कों पर पड़े बस्तों के बारे में सोच रहा था. जिनपर स्पाइडरमैन या डोरेमॉन बना हो, या फिर बार्बी. ठंडे पानी से भरे फूटे मिल्टन बॉटल के बारे में सोच रहा था. शर्टों में सेफ़्टी पिन से लटकते रूमालों को याद कर रहा था.

क्रांति संभव NDTV इंडिया में एडिटर ऑटो और एंकर हैं...

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