विचार बदलना मुश्किल काम होता है. दिमाग़ की चक्की में नई बातों को डालना पड़ता है, पुर्ज़ों में तेल डालते रहना पड़ता है कि चक्की चलती रहे. बातों को बारीक़ पीसकर विचार में तब्दील करती रहे. इससे ज़्यादा मुश्किल काम होता है धारणा बदलना. धारणा विचारों की बोरियों को एक पर एक रखने पर बनती हैं. इसी लिए धारणा बदलने के लिए ज़्यादा मेहनत करनी पड़ती है. बोरियों को एक एक कर उतारना चढ़ाना होता और उनकी प्लेसमेंट बदलनी पड़ती है. लेकिन ये काम बहुत मुश्किल होता है अगर आप बुद्धिजीवी हैं. आपके बुद्धि ने इतनी मेहनत से जिस धारणा तो तैयार किया था उससे मोह होना तो लाज़िमी है. लेकिन ज़्यादा मुश्किल होता है पत्रकारों के लिए. जिनकी हर धारणा पब्लिक स्पेस में जा चुकी होती है और उसके बदलने का मतलब हर पुरानी ट्वीट और लेखनी को लेकर सवाल जवाब करना . और फिर ईगो भी तो होता है. लेकिन मेरे साथ ये समस्या नहीं क्योंकि मेरे ऊपर बुद्धिजीवी या पत्रकार होने का कोई आरोप नहीं टिका है और यही वजह है मेरी दुविधा की. मैं सोच में पड़ा हूं कि क्या मुझे अपने पिछले ब्लॉग का सीक्वेल लिखना पड़ेगा जिसमें राहुल गांधी का नए सिरे से आकलन करना पड़ेगा.
अगर आप दुविधा में हैं कि मैं क्यों दुविधा में हूं तो ये वाला ब्लॉग पढ़िएगा.
इसमें मैंने राहुल गांधी और अभिषेक बच्चन को आलोचना झेलने के मामले में युवाओं के लिए प्रेरक व्यक्तित्त्व होने का आरोप लगाया था. उस ब्लॉग के गूढ़ साहित्य को जिसने भी समझी हो उन्हें समझ में आएगा कि मैं कहना क्या चाहता हूं. आख़िर उस ब्लॉग से इस ब्लॉग के बीच ऐसा क्या कुछ बदला है कि मैं धारणा बदलने के बारे में सोच रहा हूं. तो उसका जवाब ये है कि उस और इस ब्लॉग के बीच कुछ चुनाव हुए हैं. कई राज्यों के चुनाव हुए हैं. जहां पर पॉलिटीशियन के तौर पर तो क्या तीर मारे गए हैं वो तो दिख ही गया हम लोगों को. गुजरात में हार ही गए. यूपी में दुर्गति ही हुई. उत्तराखंड. हिमाचल इत्यादि ही हो गए. नॉर्थ ईस्ट की तो बात ही क्या. लिस्ट तो ज़बर्दस्त लंबी है ही. अभी जब ब्लॉग टाइप कर रहा हूं तो स्थिति साफ़ नहीं कि कांग्रेस-जेडीएस की सरकार बनेगी कि नहीं लेकिन ये तो तय है कि कांग्रेस की सरकार तो गई.
जब से राहुल राजनीति में आए हैं गजब हारने का रिकॉर्ड बनाए हैं. पंजाब चुनाव से बच-बच के निकले तो पंजाब में पार्टी बच गई. मैप से कांग्रेस सरकारें सफाचट्ट हो गईं. कोई ना कोई तो रिकॉर्ड बना होगा. इन सबके बाद सोशल से लेकर ऐंटी सोशल मीडिया तक में जो दुर्गति हुई उसका नमूना तो हमारे व्हाट्सऐप में रोज़ाना आता ही रहता है. तो कहानी वहां तो नहीं बदली. ना तो राहुल गांधी की और ना कांग्रेस की. लेकिन पता नहीं क्यों बीजेपी उनको ज़बर्दस्त सीरियसली लेने लगी. मतलब राहुल गांधी के एक-एक बयान का जवाब देने के लिए आधा दर्जन मंत्री टाइप के नेता सामने आने लगे. राहुल गांधी के हर बयान का प्रति-बयान आ रहा था. हर आरोप का प्रत्यारोप. बीजेपी नेताओं ने इतना ग्रिल किया कि आलू की फ़ैक्ट्री से रफ़ाल और जीएसटी पर भी बोलने लग गए हैं. स्थिति ये आ गई है कि अब वो प्रधानमंत्री को भी चैंलेंज देने लगे हैं. रोज़ाना सवाल पूछने लगे हैं. कई कई वाक्य बिना रुके बोलने लगे हैं. यहां तक कि हिंदी में भी बोलने लगे हैं. तो इस बीच कुछ लोग तो गुजरात में उनकी मोरल विक्ट्री ढूंढने लगे थे कुछ कर्नाटक में नाकों चने चबवाने की बात कर रहे थे. जिन सबका निंदा प्रस्ताव पारित हो चुका है.
कुल मिलाकर स्थिति ये बन गई है कि बीजेपी नेताओं ने यथास्थिति नहीं रहने दी है. राहुल गांधी को राहुल गांधी नहीं रहने दिया. पहले की तरह ऐसे ही आलोचना झेलते रहते, चुटकुले उन पर बनते रहते, मीम सोशल मीडिया पर वायरल होते रहते तो मैं भी निश्चिंत रहता. पुराना वाला ब्लॉग ही ऐप्लिकेबल रहता. लेकिन चूंकि मैं अपने व्यंग्य को बहुत सीरियसली लेता हूं तो लगता है कुछ नया लिखना पड़ेगा. सोच और विचार की बोरियों को हिलाना-डुलाना पड़ेगा. थोड़े दिन मॉनिटर करना पड़ेगा.
(वैसे एक बार ये भी विचार आया था कि कहीं मेरे पिछले ब्लॉग को अंग्रेज़ी में ट्रांसलेट करके राहुल गांधी ने पढ़ा तो नहीं. अगर ऐसा है तो फिर उसी लिंक को अभिषेक बच्चन के पास भी ठेला जा सकता है.)
क्रांति संभव NDTV इंडिया में एडिटर ऑटो और एंकर हैं...
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This Article is From May 18, 2018
राहुल गांधी पर बीजेपी का उपकाऱ और ब्लॉग को लेकर मेरी दुविधा...
Kranti Sambhav
- ब्लॉग,
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Updated:मई 18, 2018 23:03 pm IST
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Published On मई 18, 2018 23:03 pm IST
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Last Updated On मई 18, 2018 23:03 pm IST
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