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This Article is From Mar 09, 2015

पूजा प्रसाद का आलेख: कहां- कहां 'न्याय' बरपाएंगे हम?

pooja prasad
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  • Updated:
    मार्च 11, 2015 10:57 am IST
    • Published On मार्च 09, 2015 12:40 pm IST
    • Last Updated On मार्च 11, 2015 10:57 am IST

हम सब जानते हैं कि भीड़ जब किसी को 'न्याय' दिलवाने पर आती है तो किस क्रूरता से 'न्याय' दिलाती है। कैसा लगेगा उस वक्त जब पता चले कि जिन लोगों ने एक आदमी को सरेआम जला दिया है, उन्होंने यह कथित तौर पर न्याय के लिए नहीं बल्कि वैचारिक उद्देग या कुंठा के तहत किया? और, कैसा लगेगा यदि आपको पता चले कि जिस आदमी को सरेआम फांसी पर चढ़ा दिया है,  उसने वह अपराध किया ही नहीं था जिसके लिए उसे अपनी जान गंवानी पड़ी?

नगालैंड के दीमापुर में सेंट्रल जेल में बंद कथित रूप से बलात्कार के एक आरोपी को हजारों लोगों की भीड़ ने पहले तो जेल से निकाला, फिर पीट पीट कर मार डाला। हमारे चैनल के पास इस वीभत्स मार पिटाई और जनता द्वारा उस व्यक्ति को ठोक पीटकर मौत के घाट उतारे जाने की तस्वीरें थीं। लेकिन, हमने उन तस्वीरों को न तो वेब मीडियम और न ही टीवी पर दिखाया।

कौन तय करेगा कि किस अपराध के लिए क्या सजा हो? जाहिर है अदालत या कानूनी प्रक्रिया। फिर जब किसी अपराध के लिए हमने कानून व्यवस्था बनाई हुई है तो कितना सही है भीड़ बनकर किसी आरोपी या फिर दोषी भी सही, का कत्ल  कर डालना? दुखद यह है कि हमारे नेता भी तीखे बयानों के माध्यम से अपने रोष को सही दिशा दिलाने में असमर्थ रहते हैं। हाल ही में, निर्भया पर आधारित डॉक्युमेंट्री 'इंडियाजा डॉटर' का विरोध करते हुए राज्यसभा में सांसद जया बच्चन कह गईं, यदि सरकार निर्भया के रेपिस्ट मुकेश सिंह को लेकर कड़े कदम उठाने में अमसर्थ है तो उसे हमें सौंप दे, हम उसकी 'अच्छी देखभाल' कर लेंगे। ध्यान दें कि रेपिस्ट ने डॉक्युमेंट्री में अपने किए पर कोई अफसोस जाहिर नहीं किया है और सारा दोष निर्भया पर ही मढ़ा है। पर, यह तो सच है! यह तो हमारे समाज का आईना है!

न्याय बड़ा ही पवित्र सा काम है। इसे हर कोई पाना और किसी न किसी को दिलाना चाहता लगता है। लेकिन हम खुद कितने कठघरों में खड़े हैं, इस पर देखने या बांचने की फुरसत और जरूरत हमें नहीं होती। न्याय के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि यह कानून और नैतिकता की दुधारी तलवार पर रखकर पाया या दिलाया जाता है। जो कथित तौर पर इस तरह के न्याय करता है, वह कभी अपने कदम को कानूनी कदम के तौर पर और कभी नैतिक कदम के तौर पर जस्टिफाई करता है। खबरों में है कि हाल ही में जिस कैदी को दीमापुर के हजारों लोगों ने मार डाला है, उसे लेकर भीड़ में सुगबुगाहट थी कि एक बांग्लादेशी हमारी लड़की को कैसे छेड़ गया? BJP की नॉर्थ ईस्ट इकाई की नेता नेवानी ने तो यहां तक बोल दिया कि रेप को नगा सोसायटी बर्दाश्त नहीं करती। जिस समाज में रेप को बर्दाश्त नहीं किया जाता, वहां रेप होने ही नहीं दिया जाता! आखिर रेपिस्ट इसी समाज का हिस्सा होते हैं। नगालैंड के सीएम का कहना है कि रेप की अभी पुष्टि नहीं हुई है। ऐसे में क्या इस बात की भी गुंजाइश नहीं रहती कि व्यक्ति ने रेप किया न हो...? यदि मामला रेप का था तो सजा मिलनी जरूरी है और सजा क्या मिलेगी यह तय करना कानून का काम है। सोचिए, यदि इसी कभी चोरी, कभी डकैती, कभी रेप या किसी और आरोप या दोष के चलते भीड़ कथित तौर पर न्याय करती रही तो हम कैसा बर्बर समाज बन जाएंगे!

यदि हम किसी भी मामले में भीड़ को न्याय करना सही मानते हैं, दबी जुबान में कहते हैं कि 'होना तो यही चाहिए था, ऐसे नहीं सुधरते अपराधी' तो हमें भीड़ द्वारा ही दलित व आदिवासी महिलाओं को 'कुलटा' कहकर तमाम तरह से अपमानित किए जाने के मामलों पर भी मौन रह जाना चाहिए।

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