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This Article is From Nov 05, 2019

मैं दिल्ली पुलिस के उस जवान के साथ खड़ा हूं जिसे पीटा गया - रवीश कुमार

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    नवंबर 05, 2019 18:00 pm IST
    • Published On नवंबर 05, 2019 17:54 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 05, 2019 18:00 pm IST

एक तस्वीर विचलित कर रही है. दिल्ली के साकेत कोर्ट के बाहर एक वकील पुलिसकर्मी को मार रहा है. मारता ही जा रहा है. पुलिस के जवान का हेल्मेट ले लिया गया है. जवान बाइक से निकलता है तो वकील उसका हेल्मेट बाइक पर दे मारता है. जवान के कंधे पर मारता है. यह दिल्ली ही नहीं भारत के सिपाहियों का अपमान है. यह तस्वीर बताती है कि भारत में सिस्टम नहीं है. ध्वस्त हो गया है. यहां भीड़ राज करती है. गृहमंत्री अमित शाह को इस जवान के पक्ष में खड़ा होना चाहिए. वैसे वो करेंगे नहीं. क़ायदे से करना चाहिए क्योंकि गृहमंत्री होने के नाते दिल्ली पुलिस के संरक्षक हैं.

दिल्ली पुलिस के कमिश्नर पटनायक को साकेत कोर्ट जाना चाहिए. अगर कमिश्नर नहीं जाएंगे तो जवानों का मनोबल टूट जाएगा. दिल्ली पुलिस के उपायुक्तों को मार्च करना चाहिए. क्या कोई आम आदमी करता तो दिल्ली पुलिस चुप रहती? दिल्ली पुलिस पर हाल ही हमला हुआ है. देश की एक अच्छी पुलिस धीरे-धीरे ख़त्म हो रही है. दिल्ली पुलिस का इक़बाल ख़त्म हो जाएगा.

सुप्रीम कोर्ट से लेकर साकेत कोर्ट तक के जज क्यों चुप हैं? उनकी चुप्पी न्याय व्यवस्था से भरोसे को ख़त्म करती है. एक जवान को इस तरह से पीटा जाना शर्मनाक है. अदालत के सामने घटना हुई है.

देश डरपोकों का समूह बन चुका है. जो भीड़ है वही मालिक है. वही क़ानून है. वही पुलिस है. वही जज है. बाक़ी कुछ नहीं है.

मुझसे यह तस्वीर देखी नहीं जा रही है. दिल्ली पुलिस के जवान आहत होंगे. उनके अफ़सरों ने साथ नहीं दिया. कोर्ट के जजों ने साथ नहीं दिया. गृहमंत्री ने साथ नहीं दिया.

मैं उस जवान के अकेलेपन की इस घड़ी में उसके साथ खड़ा हूं. दिल्ली पुलिस के सभी जवान काम बंद कर दें और सत्याग्रह करें. उपवास करें. जब सिस्टम साथ न दे तो उसका प्रायश्चित ख़ुद करें. ईश्वर से प्रार्थना करें कि वह उनके अफ़सरों को नैतिक बल दे. कर्तव्यपरायणता दे. उन्हें डर और समझौते से मुक्त करे. इक़बाल दे.

मैं साकेत कोर्ट के वकील का पक्ष नहीं जानता लेकिन हिंसा का पक्ष जानता हूं. हिंसा का पक्ष नहीं लिया जा सकता है. अगर यही काम पुलिस किसी वकील के साथ करती तो मैं वकील के साथ खड़ा होता. वकीलों के पास पर्याप्त क्षमता है. विवेक है. अगर उनके साथ ग़लत हुआ है तो वे इसे और तरीक़े से लड़ सकते थे. वे दूसरों को इंसाफ़ दिलाते हैं. अपने इंसाफ के लिए कोर्ट से बाहर फ़ैसला करें यह उचित नहीं है.

हमारी अदालतों की पुरानी इमारतों को ध्वस्त कर नई इमारतें बनानी चाहिए. जहां वकीलों को काम करने की बेहतर सुविधा मिले ताकि काम करने की जगह पर उनका भी आत्म सम्मान सुरक्षित रहे. यह बहुत ज़रूरी है. कोर्ट परिसर के भीतर काम करने की जगह को लेकर इतनी मारा-मारी है कि इसकी वजह से भी वकील लोग आक्रोशित रहते होंगे. बरसात में भीगने से लेकर गर्मी में तपने तक. दिल्ली में कुछ कोर्ट परिसर बेहतर हुए हैं लेकिन वो काफ़ी नहीं लगते. नया होने के कारण साकेत कोर्ट बेहतर है मगर काफ़ी नहीं. इन अदालतों के बाहर पार्किंग की कोई सुविधा नहीं. इमारत के निर्माण में पार्किंग की कल्पना कमज़ोर दिखती है. जिसके कारण वहां आए दिन तनाव होता है. तो इसे बेहतर करने के लिए संघर्ष हो न कि मारपीट. उम्मीद है तीस हज़ारी कोर्ट में हुई मारपीट की न्यायिक जांच से कुछ रास्ता निकलेगा. दोषी सामने होंगे और झगड़े के कारण का समाधान होगा. घायल वकीलों के जल्द स्वास्थ्य लाभ की कामना करता हूं.

कई लोग इसे अतीत की घटनाओं के आधार पर देख रहे हैं. वकीलों और पुलिस के प्रति प्रचलित धारणा का इस्तमाल कर रहे हैं. ताज़ा घटना की सत्यता से पहले उस पर पुरानी धारणाओं को लाद देना सही नहीं है. ऐसे तो बात कभी ख़त्म नहीं होगी. आधे कहेंगे पुलिस ऐसी होती है और आधे कहेंगे वकील ऐसे होते हैं. सवाल है सिस्टम का. सिस्टम कैसा है? सिस्टम ही नहीं है देश में. सिस्टम बनाइये.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

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