विज्ञापन
This Article is From May 08, 2018

खून से लथपथ कश्मीर को कैसे बचाएं?

प्रियदर्शन
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 08, 2018 18:13 pm IST
    • Published On मई 08, 2018 18:13 pm IST
    • Last Updated On मई 08, 2018 18:13 pm IST
कश्मीरी आतंकवाद से लड़ते हमारे सुरक्षा बलों का काम जैसे ख़त्म ही नहीं हो रहा. हमारी एजेंसियां एक लिस्ट बनाती हैं, उसे ख़त्म करती हैं, दूसरी तैयार हो जाती है. यह एक डरावना दृश्य है. अपनी नैसर्गिक सुंदरता के लिए विख्यात एक घाटी जैसे ख़ून से लथपथ है, वहां के नौजवानों के हाथों में पत्थर और उनकी आंखों में गुस्सा है. उनके घरों के पिछवाड़े में अपनों की लाशें दफ़्न हैं.

यह सिलसिला बुरहान वानी के मारे जाने के बाद से तेज़ हुआ है. बीच के वर्षों में कश्मीर रास्ते पर लौटता लग रहा था. पर्यटन का कारोबार फिर फूल-फल रहा था. नौजवान आतंकी रास्तों से वापस आते नज़र आ रहे थे. यह कहा जा रहा था कि कश्मीर में माहौल बाहर वाले ख़राब कर रहे हैं. पाकिस्तान में बैठे लश्कर और जैश के घुसपैठिए कश्मीर में मारे जा रहे थे. लेकिन इस एक साल में हालात बदल गए हैं. आतंकवाद में स्थानीय नौजवानों की भागेदारी बढ़ी है. बल्कि  कल तक सड़कों पर चक्कर काटने वाले, पुलिस बल में काम करने वाले और विश्वविद्यालयों में पढ़ाने वाले अचानक दहशतगर्द बन रहे हैं और सुरक्षा बलों की गोली खाकर मारे जा रहे हैं.

इस प्रक्रिया का एक पहलू और है. जो नौजवान अब बंदूक उठा कर फोटो खिंचवा रहे हैं और जिनके मां-बाप उनके मारे जाने पर शोक से ज़्यादा गरूर के एहसास से भरे हैं वे कुछ अरसा पहले तक पत्थर उठा रहे थे. इन पत्थरबाज़ नौजवानों को बहुत तरह से रोकने की कोशिश हुई. दूसरी बात यह हुई है कि जब सुरक्षा बल किसी आतंकी के खिलाफ़ कार्रवाई करते हैं तब अचानक बहुत सारे लोग उनके बचाव में चले आते हैं- वे सुरक्षा बलों का रास्ता रोकते हैं, उनके लिए कार्रवाई को मुश्किल बनाते हैं. इस क्रम में हर बार कुछ बेगुनाह लोग मारे जाते हैं.

रविवार को शोपियां की कहानी भी ऐसी ही थी. सुरक्षा बलों ने 5 आतंकियों को मारा लेकिन 5 और आम लोग सुरक्षा बलों की गोली से मारे गए. इसके बाद कश्मीर हमेशा की तरह ग़म और मातम में डूबा है.

यह कहानी पुरानी है. यह सवाल लगातार तीखा होता जा रहा है कि हम कश्मीर के साथ कैसे पेश आएं. क्योंकि यह समझ में आ रहा है कि पिछले तीन दशकों की हिंसा ने कश्मीर को बुरी तरह तोड़ डाला है- कुंठा, मायूसी और हताशा लगभग आत्मघाती हो चुकी हैं. मांएं बेटों के मारे जाने पर बंदूक की सलामी दे रही हैं. पिता बच्चों को बोल रहे हैं कि वे उसे सरेंडर करने को नहीं कहेंगे. पत्थरबाज़ों के पत्थर सैलानियों के लिए जानलेवा हो रहे हैं.

संकट यह है कि इस ज़ख़्मी कश्मीर को जितने नाजुक ढंग से छूना चाहिए, हम उतने ही क्रूर ढंग से उससे निबट रहे हैं. यह आधी-अधूरी शल्य चिकित्सा अंगों को जोड़ नहीं रही, उन्हें और ज़्यादा ज़ख़्मी छोड़ रही है. सवाल है, कश्मीर का क्या करें? अगर वहां आतंकवादियों का जमावड़ा है, अगर वहां बंदूक की संस्कृति बन गई है, अगर वहां आतंकवाद एक कारोबार है जिसमें दुनिया भर के स्टेक होल्डर हैं तो क्या भारतीय राष्ट्र राज्य उसे उसके हाल पर छोड़ दे? लेकिन इस सवाल का जवाब देने से पहले कहीं ज़्यादा बड़ा सवाल है- कश्मीर को कैसे देखें. जो लोग कश्मीर को भारत का अभिन्न हिस्सा बताते हैं, वे किस कश्मीर की बात करते हैं? क्या कश्मीर उनके लिए महज एक भूगोल है? या कश्मीर की बात करते हुए वे कश्मीरियों की भी बात करते हैं? बंटवारे के समय कश्मीर की संविधान सभा में शेख अब्दुल्ला ने जो भाषण दिया था, वह ऐतिहासिक है. उन्होंने कहा था, कश्मीर आज़ाद नहीं रह सकता. सामंतों और ज़मींदारों के मारे पाकिस्तान में नहीं जा सकता, अगर उम्मीद है तो भारत से है, नेहरू से है जो अपने यहां की कट्टरपंथी ताकतों का सामना कर पाएंगे.

लेकिन शेख अब्दुल्ला की उम्मीद सबने तोड़ी- सबसे पहले एक विधान, एक निशान, एक प्रधान के नाम पर चले नासमझ नारे और आंदोलन ने, फिर नेहरू के सलाहकारों ने और उसके बाद आने वाली सरकारों की नीतियों ने. इसके बावजूद कश्मीर रातों-रात हिंसक नहीं हुआ. 1978 में छपे अपने उपन्यास 'मिडनाइट्स चिल्ड्रेन' में सलमान रुश्दी का कश्मीरी नायक कहता है, कश्मीरियों के हाथ में बंदूक थमा दो तो वे बंदूक छोड़कर भाग जाएंगे.'

फिर ऐसा क्या हुआ कि वह मासूम कश्मीरी एक हिंसक कश्मीरी में बदल गया? किन ताकतों ने उसका सपना तोड़ा, किन ताकतों ने उसका मिज़ाज बदला? हम यह कह कर अपना दामन नहीं बचा सकते कि इस्लाम के नाम पर चली नई हवा ने, पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद ने- जैश और लश्कर ने, अल क़ायदा ने कश्मीर को बदला है. इन ताकतों ने बस उस माहौल का फ़ायदा उठाया है जो हमारी लापरवाही की वजह से बना है.

मौजूदा बीजेपी सरकार की कश्मीर नीति इस लिहाज से कहीं ज़्यादा लापरवाह साबित हुई है. उसमें राज्य की हिंसा को लेकर कुछ ज़्यादा ही भरोसा है और राज्य के दुख के प्रति एक तरह की उपेक्षा का भाव. उसके नेता बार-बार बातचीत की वकालत करते हैं, लेकिन वह बातचीत होती दिखाई नहीं पड़ती. बातचीत की कोशिश भी नहीं दिखती. उल्टे बार-बार अलग-अलग मुठभेड़ों, आतंकियों के अलावा बेगुनाह नागरिकों की मौतों की खबर आती है.  ऐसे मातमी माहौल में बातचीत नहीं हो सकती. किसी दबाव में वह होती भी है तो उसका कोई फायदा नहीं होता.

दरअसल कश्मीर भले बाकी भारत के लिए एक दुखती रग हो, वह बीजेपी के लिए एक चुनावी मुद्दा भी है. जिन तीन मुद्दों पर अस्सी और नब्बे के दशकों में उसकी राजनीति परवान चढ़ी, उसमें राम मंदिर, और समान नागरिक संहिता के अलावा धारा 370 भी है (दरअसल यह अनुच्छेद 370 है जिसे बीजेपी धारा बताती है). कश्मीर के नाम पर बाकी भारत में वोट बटोरे जाते हैं.

जाहिर है, कश्मीर समस्या बनी रहती है तो इसमें जितना फायदा पाकिस्तानी हुक्मरानों का है, उससे कम उन भारतीय शासकों का नहीं जो जज़्बाती मुद्दों की राजनीति करते हैं. कश्मीर को भी वे बिल्कुल राष्ट्रवाद के चश्मे से देखते हैं और वहां दिखने वाले भारत-विरोधी रुझान के लिए उस पर चाबुक चलाते हैं. जबकि नए दौर का यह सबक है कि दिल और देश चाबुकों से नहीं, संवाद से ही बनते और बदलते हैं. राष्ट्रवादियों का कश्मीर प्रेम कश्मीर को कुछ और दूर करता है. वहां चली एक-एक गोली कश्मीर को कुछ और पीछे करती है, वहां गिरा एक-एक शव कश्मीर को कुछ और अलग करता है. जीप से इंसान को बांध कर उसे सुरक्षा कवच में बदलने वाले अफ़सरों की चाहे जो भी मजबूरी रही हो, वह भारतीय राष्ट्र राज्य की क्रूर संकीर्णता का प्रतीक बन जाती है.

दरअसल चाहे जितना भी असंभव लगे, चाहे जितने भी ख़तरों से भरा हो, कश्मीर का हल बातचीत से ही होना है. यह कश्मीर के लिए जितना ज़रूरी है उतना ही भारतीय लोकतंत्र के लिए, जिसका स्वभाव हिंसक होने से बचाया जाना ज़रूरी है. हमें यह अंदाज़ा नहीं है कि अलग-अलग असंतोषों और अलगावों को लाठी और बंदूक के सहारे कुचलते हुए हमारी व्यवस्था किस तरह क्रूर होती जा रही है.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com