हर पार्टी को तारणहार नजर आ रहे आंबेडकर

हर पार्टी को तारणहार नजर आ रहे आंबेडकर

भारत के संविधान निर्माता डॉ. भीमराव आंबेडकर की 125वीं जयंती पर देश की शायद ही कोई राजनैतिक बिरादरी हो जो उनकी विरासत को अपना बताने से पीछे छूट जाना चाहती हो। इसकी वजहें क्या मौजूदा दौर की कुछ अलग किस्म के राजनैतिक हालात में छुपी हैं? अगर ऐसा है तो ये हालात हैं क्या? इन सवालों के जवाब तलाशने से ही आंबेडकर नाम 'जपने' की आज की होड़ का मर्म समझा जा सकता है।

संविधान सभा में भी कई कटु अनुभवों से गुजरे थे बाबा साहेब
आजादी की लड़ाई और उसके बाद भी जाति-विषमता, गैर-बराबरी और अन्याय के खिलाफ अपने संघर्ष में आंबेडकर निपट अकेले ही नहीं दिखते, बल्कि कई ओर से चुनौतियों का सामना भी करते दिखते हैं। यहां तक कि संविधान सभा में उन्हें कई बार कटु अनुभवों से गुजरना पड़ा। उसके बाद लंबे दौर तक वे लगभग भुला दिए गए। उनकी याद बस उनकी जयंतियों तक ही सीमित रही। संविधान की भी तीखी आलोचनाएं की जाती रहीं और उसे बदलने की भी कौल उठाई जाती रही है। लेकिन आज आजादी के करीब 68 साल बाद कोई ऐसा नहीं बचा है जो उनसे अपना गहरा नाता न जोड़ना चाहता हो।

सालों तक माल्यार्पण करके ही दायित्व पूरा करती रही कांग्रेस
वह कांग्रेस भी उनकी कसमें खा रही है जो बीते वर्षों में बस उनकी मूर्तियों पर माल्यार्पण करके ही अपना दायित्व पूरा हुआ समझती रही है। भाजपा और संघ परिवार भी उनका जयकारा लगा रहा है जो कभी उनके संविधान को बदलने की बात किया करता था और उसके नेता कहा करते थे कि संविधान यूरोपीय देशों के दस्तावेजों के अलग-अलग हिस्सों से बना लिया गया है। वामपंथी पार्टियों को पहले कभी उनके तरीके रास नहीं आते थे और जो जाति के बदले वर्ग संघर्ष को अहम मानते थे, आज उनके लिए भी आंबेडकर तारणहार की तरह दिखने लगे हैं।

हैदराबाद, जेएनयू विवाद से फिर चर्चा में आया दलित मुद्दा
असल में हाल में हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला की खुदकुशी और उसके बाद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के विवाद से दलित मुद्दा नए सिरे से बहस के केंद्र में आ गया है। इन दोनों ही घटनाओं ने सभी राजनैतिक दलों में आंबेडकर के प्रति एक नया आकर्षण पैदा किया है। मौजूदा सरकार और उसके खिलाफ मोर्चा लेने वालों, दोनों के लिए आंबेडकर और संविधान रक्षा कवच की तरह बन गया है। हाल में रोहित वेमुला के एक साथी प्रशांत को एक सभा में कहते सुना गया कि यह सरकार मुसलमानों को आतंकवादी कहकर खारिज कर देती है, आदिवासियों को माओवादी बता देती है लेकिन कोई दलित जब आंबेडकर का संविधान हाथ में लेकर खड़ा होता है तो उस पर हाथ डालने से घबराती है। इसी तरह जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार लाल और नीले रंगों (कम्युनिस्ट और आंबेडकर) के साथ गांधी के समन्वय की बात करने लगे हैं और संविधान को ही अपने ऊपर लगे कथित आरोपों के लिए ढाल बनाने की कोशिश करते दिखते हैं।

मोदी की 'यह' राजनीतिक रणनीति रही कामयाब
हालांकि एक मायने में कह सकते हैं कि संविधान के प्रति यह नई आस्था अन्ना आंदोलन के दौरान नए सिरे से भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में ही पैदा हो गई थी। फिर, 2014 के लोकसभा चुनावों की तैयारी के वक्त से ही नरेंद्र मोदी ने संविधान को एकमात्र पवित्र पुस्तक बताकर अपने को भारत विचार के प्रबल दावेदार के रूप में पेश करने की कोशिश की। लोकसभा चुनावों में खासकर हिंदी पट्टी में जैसे बड़े पैमाने पर भाजपा को दलित युवाओं के वोट हासिल हुए, उससे उनकी यह राजनैतिक रणनीति सफल होती दिखी। इन्हीं वोटों को ख्याल में रखकर बिहार के विधानसभा चुनावों में रामविलास पासवान और हिंदुस्तान आवाम मोर्चा के जीतन राम मांझी से गठजोड़ भी किया गया। लेकिन इन चुनावों में यह फार्मूला शायद संघ प्रमुख मनमोहन भागवत के आरक्षण की समीक्षा संबंधी बयान और हरियाणा की एक घटना पर एक केंद्रीय मंत्री के बयान की वजह से उतना कारगर नहीं हो पाया।
 
मोदी सरकार के लिए यूपी में है परीक्षा की घड़ी
फिर, हाल के दौर में हैदराबाद विश्वविद्यालय की घटना से भी सरकार के खिलाफ दलित विरोधी होने का माहौल बना, जिसकी भरपाई सिर्फ आंबेडकर के प्रति श्रद्धा ज्ञापन ही कर सकता है। इसके अलावा मोदी सरकार के लिए सबसे बड़ी परीक्षा की घड़ी उत्तर प्रदेश में अगले साल आने वाली है, जहां उसे दलित वोटों की सबसे अधिक दरकार होगी।

यहां दलित आबादी करीब 17 प्रतिशत है जिस पर कांग्रेस की पकड़ हुआ करती थी और करीब दो दशकों से मायावती की बहुजन समाज पार्टी उसकी दावेदार बन गई है। लेकिन लोकसभा चुनावों में खासकर दलित युवाओं के वोट भाजपा और मोदी की ओर आकर्षित हुए थे जिससे उसे कुल 80 संसदीय सीटों में से 71 (सहयोगी अपना दल को मिलाकर 73) में जीत हासिल करने में मदद मिली थी। इसलिए अगर उत्तर प्रदेश में इस नए वोट बैंक को हासिल करने में भाजपा और मोदी कामयाब हो गए तो शायद 2019 के लोकसभा चुनावों में भी उनकी राह आसान हो जाएगी। इसी वजह से सरकार ने जन-धन योजना और स्टैंड अप योजना के तहत दलित उद्यमियों को खास तवज्जो देने का कार्यक्रम शुरू किया है।

आंबेडकर में आस्था दलित वोट को बरकरार रखने का हथियार
यही गणित कांग्रेस के दिमाग में भी है। उसी में उसे अपने उद्धार का उपक्रम दिखता है। इसी दलित और भूमिहीन बिरादरी पर पकड़ बनाने के लिए यूपीए सरकार के दौर में मनरेगा और खाद्य सुरक्षा जैसी योजनाएं शुरू की गई थीं। इसी वजह से कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी हर दलित उत्पीड़न की घटना सुनकर दौड़ पड़ते हैं।

रोहित वेमुला की खुदकशी के बाद हैदराबाद में और बाद में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भी पहुंचे तो शायद यही 'गणित' उनके दिमाग में होगा। इस वोट बैंक के पारंपरिक किरदारों मायावती की बसपा और बिहार के दलित नेताओं के अलावा नई किरदार आम आदमी पार्टी भी है। आखिर आम आदमी पार्टी और केजरीवाल को सबसे अधिक लोकप्रियता दिल्ली में इसी तबके में जो हासिल है। सो, वे भी अपनी ओर से आंबेडकर भक्ति दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ते। बाकी क्षेत्रीय पार्टियों के लिए तो आंबेडकर में आस्था उनके वोट बैंक को बरकरार रखने का औजार है ही। खासकर जनता परिवार की पार्टियां और दक्षिण की पार्टियों में तो आंबेडकर के प्रति पहले से ही पुख्ता रुझान है।

चुनावी गणित के अलावा आंबेडकर भक्ति की दूसरी वजहें
इन चुनावी सियासी गणितों के अलावा आंबेडकर भक्ति की दूसरी गंभीर वजहें भी हो सकती हैं। दरअसल उदारीकरण के दौर में सभी राजनैतिक धाराओं का दिवालियापन उजागर हो चुका है। कांग्रेस तो मनमोहन सिंह के जरिए इस नई अर्थ नीति की सूत्रधार है ही, भाजपा भी अपना स्वदेशी राग छोड़कर विदेशी पूंजी और नव-उदारवादी नीतियों की दावेदार बन गई है। इस मायने में बाजारवाद के पैरोकार मोदी को मनमोहन सिंह से आगे मानते हैं। इस अर्थनीति ने देश की अर्थव्यवस्था को ऐसा मोहताज बना दिया कि वामपंथी पार्टियां भी कोई वैकल्पिक अर्थ नीति की बात भूल गईं।

देश की मुख्यधारा की किसी राजनैतिक पार्टी के पास इससे इतर कोई नीति नहीं रह गई है।  इससे कारपोरेट की संपत्तियां तो कई गुना बढ़ीं और शहरी मध्यवर्ग के कुछ तबके भी गुलजार हुए। कुछ क्षेत्रों में चमक भी लौटी लेकिन गांव बदहाल होने लगे। शहरों में भी निचले तबके की नौकरियों की आमदनी घट गई और मजदूर यूनियनों के खात्मे के साथ नौकरियों में सुरक्षा भी नहीं रही। इससे उदारीकरण के ढाई दशक बाद इसके विद्रुप चेहरे दिखने लगे। इसे संभालने में भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था कारगर नहीं हो पा रही है।

हर वर्ग में उम्मीद पैदा कर सकते हैं आंबेडकर
ऐसी स्थिति में हमारे कितने महापुरुष नए सिरे से सियासी प्रतीक बन सकते हैं, जो व्यापक आस्था जगा सकते हैं। गांधी का कम से कम स्वदेशी तो काफी पहले खारिज किया जा चुका है। हालांकि गांधी का दर्शन इतना व्यापक है कि उन्हें खारिज करना आसान नहीं है। फिर भी नए संदर्भों में वे उत्साह नहीं जगाते। नेहरू भी खारिज किए जा चुके हैं या उन्हें खारिज करके ही कांग्रेस विरोधी पार्टियों का आधार बनता है। कांग्रेस के लिए भी उनका इतना ही महत्व बच गया है कि उनका खानदान उसकी एकजुटता का कारण बना हुआ है। सरदार पटेल या नेताजी भी इन संदर्भों में कारगर नहीं दिखते। उन्हें नेहरू को खारिज करने के ही काम में लाया जा सकता है, जिसकी अब ज्यादा जरूरत नहीं रह गई। ऐसे में इकलौते आंबेडकर बचते हैं जो हर वर्ग में एक उम्मीद पैदा कर सकते हैं।

आंबेडकर सिर्फ निचले तबकों को न्याय दिलाने के ही प्रतीक नहीं हैं, बल्कि देश को एकसूत्र में बांधने वाले संविधान के भी निर्माता हैं। वे विकास और शहरीकरण के भी समर्थक हैं। वे अंग्रेजी राज के ऐसे विरोधी नहीं रहे हैं जैसा आजादी के दौर में हमारे दूसरे नेता। वे आधुनिक समाज की बात करते दिखते हैं। इसलिए वे नव-उदारवाद के पैरोकारों के लिए भी कुछ हद तक मुफीद बैठते हैं। यही वजह है कि आज आंबेडकर सबके प्रतीक बन गए हैं। सत्ता में बने रहने वाले प्रभु वर्ग के भी और उसके विरोध में उठ खड़े होने वाले प्रतिरोध के स्वरों के भी।

हरिमोहन मिश्र वरिष्ठ पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं...

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