रवीश कुमार का ब्‍लॉग : फ़ेस आइडेंटिफिकेशन सॉफ़्टवेयर और सवाल

तमाम संभावनाओं के बीच इसकी आशंका हावी है कि यह टेक्नॉलजी लोकतंत्र में आप नागरिकों के जनता होने के अधिकार और उसकी संभावनाओं को खत्म कर देगी. जनता सिर्फ मतदान करने के लिए नहीं होती है, वह अलग-अलग मुद्दों पर सरकार से अलग राय रख सकती है और इस राय के विरोध में प्रदर्शन में शामिल हो सकती है.

फ़ेस आइडेंटिफिकेशन सॉफ्टवेयर, लोकसभा में दिल्ली दंगों पर चर्चा का जवाब देते हुए जब गृहमंत्री अमित शाह ने इसका नाम लिया तो कुछ सदस्य सन्न रह गए. उनसे ज्यादा सन्न हो गए इस टेक्नॉलजी की जानकारी रखने वाले लोग. चीन को छोड़ कर दुनिया भर में इस टेक्नॉलजी को लेकर एक राय नहीं है. तमाम संभावनाओं के बीच इसकी आशंका हावी है कि यह टेक्नॉलजी लोकतंत्र में आप नागरिकों के जनता होने के अधिकार और उसकी संभावनाओं को खत्म कर देगी. जनता सिर्फ मतदान करने के लिए नहीं होती है, वह अलग-अलग मुद्दों पर सरकार से अलग राय रख सकती है और इस राय के विरोध में प्रदर्शन में शामिल हो सकती है. यह करना उसके लिए ज़रूरी होता है क्योंकि इसे करते हुए ही वो जांच करती है कि लोकतंत्र में उसे जनता होने का अधिकार है या नहीं, स्पेस है या नहीं. जैसे आप कल्पना कीजिए जैसे बीजेपी छत्तीसगढ़ में विपक्ष में है तो कांग्रेस यूपी में विपक्ष में है. दोनों अलग-अलग मुद्दों पर सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करेंगे. अब अगर फ़ेस आइंडेंटिफिकेशन सॉफ्टवेयर के इस्तमाल से इसमें शामिल सभी लोगों की पहचान कर ली जाए तो क्या लोग बेखौफ़ असमहति ज़ाहिर करने जाएंगे. अगर डेटाबेस में आपकी तस्वीर डालकर पता लगा लिया जाए कि आपके रिश्तेदार कौन हैं, आप कहां जाते हैं, किस किस से मिलते हैं, किस बाज़ार से सामान लेते हैं. इन जानकारियों का इस्तमाल आपको या आपके रिश्तेदार को परेशान करने में होने लगे तो क्या आप किसी नियम या नीति के खिलाफ प्रदर्शन कर पाएंगे? बहुत से लोग अकेले आवाज़ उठाने में डरते हैं अगर भीड़ से उन्हें अकेला कर दिया जाए तो क्या वे आवाज़ उठा पाएंगे? यह टेक्नॉलजी आपके जनता होने के अधिकार पर अंकुश लगाती है. जैसे किसी धरना स्थल पर हिंसा होती है. क्या यह टेक्नॉलजी फर्क कर पाएगी कि आप वहां मौजूद थे लेकिन हिंसा नहीं कर रहे थे, अगर कर पाएगी तो क्या आप इस सवाल का जवाब पक्के तौर पर जानते हैं. आप इस टेक्नॉलजी के पक्ष में हो सकते हैं लेकिन क्या आपने इससे पहले इसके खतरों को ठीक से जान लिया है, समझ लिया है?

अमरीका के हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव में एक साल के भीतर फेस आइडेंटिफिकेशन के खतरे को लेकर तीन बार चर्चा हो चुकी है. हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव की वेबसाइट पर आप यह बहस देख सकते हैं मगर हमें इसका वीडियो इस्तमाल करने की अनुमति नहीं मिली इसलिए हम एनिमेशन का सहारा ले रहे हैं. इस साल जनवरी में इस सॉफ्टवेयर के कमर्शियल इस्तमाल में पारदर्शिता और सटीकता को लेकर चर्चा हुई थी. उसके पहले मई 2019 में इस बात पर चर्चा हुई थी कि इस सॉफ्टवेयर के इस्तमाल से नागरिकता अधिकारों और स्वतंत्रता पर क्या असर पड़ेगा, उसके बाद जून 2019 में बहस हुई थी कि सरकार अगर इस्तमाल करेगी तो उसकी पारदर्शिता क्या हो. चर्चा में यह बात आई कि इस टेक्नॉलजी का इस्तमाल बैन कर देना चाहिए क्योंकि यह लोकतंत्र के लिए घातक है. सबसे बड़ा सवाल एक्यूरेसी यानी सटीकता को लेकर था. 2018 में अमरिकन सिविल लिबर्टिज यूनियन ने एमेज़ान की फ़ेशियल रिक्गनिशन सिस्टम को टेस्ट किया जिसमें 28 सांसदों के चेहरे अपराधियों से मिल गए जबकि उन्होंने कभी अपराध नहीं किया था. हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव की इस कमेटी की वाइस चेयर ने कहा कि उनका चेहरा भी एक ऐसे शख्स से मैच हो गया जिसे किसी अपराध में गिरफ्तार किया गया था. अगर पुलिस अफसर इस सिस्टम का इस्तमाल कर रहा है और मेरे चेहरे को एक ऐसे आदमी से मिला देता है जिसने अभी अभी बैंक लूटा है, तो क्या वह पुलिस वाला मुझे अरेस्ट नहीं करेगा, क्या सिर्फ फोटो का मिलना काफी है, वैज्ञानिक है? भारत जैसे देश में गलत पहचान के आधार पर अगर किसी को गिरफ्तार कर लिया गया, उठा लिया गया तो पूछताछ की प्रक्रिया में उसके जीवन के कई साल तबाह हो जाएंगे.

मैंने इस संदर्भ में टेक्नॉलजी विशेषज्ञों के कई लेख पढ़े. हर लेख में यह बात सामने आई है कि फेस आइंडेंटिफिकेशन के भी अपने बायस होते हैं यानी पूर्वाग्रह होता है. यह टेक्नॉलजी भी अपनी तरह से भेदभाव करती है. ठीक उसी तरह से जैसे पुलिस भेदभाव करती है. कई लेख में मिला कि यह टेक्नॉलजी एशियाई मूल और अफ्रीकी अमरीकी मूल के चेहरों को पहचाने में भेदभाव करता है. अल्पसंख्यकों, अश्वेत मूल और कमज़ोर तबके के लोगों के साथ भेदभाव करती है. दिसंबर 2017 की हफिंगटन पोस्ट की एक रिपोर्ट मिली है. जिसका सार यह है कि 'चीन की एक महिला ने आईफोन 10 को लेकर शिकायत की थी. इस फोन में एक सिस्टम है. आपके चेहरे को पासवर्ड बना लेता है. चेहरे को देखते ही वो खुल जाता है. महिला ने शिकायत की थी कि दूसरे के चेहरे से भी उनका फोन खुल गया. आई फोन का जवाब छपा है कि उन्हें इस मामले की पूरी जानकारी नहीं है. इसी रिपोर्ट में आई फोन बनाने वाली कंपनी एप्पल ने कहा है कि अगर कोई जुड़वां हैं या भाई बहन हैं तो ऐसी स्थिति में चेहरे की पहचान करने में गलती हो सकती है. मतलब यह फूल प्रूफ सिस्टम नहीं है.

देखिए अल्ट्रा साउंड एक टेक्नॉलजी है. लेकिन इसके ज़रिए लिंग भेद होता है. गर्भ में ही बच्चियों को मार दिया जाता है. यह अपने भारत में होता है. तो नियम बना, कानून बना. फेस टेक्नॉलजी को लेकर क्या नियम हैं, क्या कानून हैं यह सवाल पूछना चाहिए. क्योंकि अल्ट्रा साउंड मशीन की तरह अगर सरकार ने इसका इस्तमाल लोकतंत्र की भ्रूण हत्या में किया तो कैसे आप परखेंगे?

जैसे जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सटी में नकाब पहने गुंडे आते हैं. कई चैनलों पर यह वीडियो चलता है और गायब हो जाता है. आज तक इन गुंडो का पता नहीं चला. क्या आपने गृहमंत्री से सुना कि हम फेस आइडेंटिफिकेशन का इस्तमाल कर सबको पकड़ लेंगे. 5 जनवरी की घटना है मगर इन गुंडों का पता नहीं है. दूसरी तरफ वामपंथी छात्र नेता आइशी घोष के वीडियो को लेकर उनका मीडिया ट्रायल किया गया जबकि सर उनका फटा था.

अमित शाह ने दिल्ली दंगों में इसके इस्तमाल की बात की लेकिन जब उनसे पूछा गया कि नॉर्थ ईस्ट दिल्ली के मोहन नर्सिंग होम की छत पर सवार दंगाई में से कितनों को पकड़ा गया है तो स्पष्ट जवाब नहीं मिला. जबकि इस फुटेज में आप साफ साफ देख सकते हैं कि मोहन नर्सिंग होम की छत पर चढ़ कर दंगाई कैसे गोली चला रहे हैं. यही नहीं देर तक बोतलें फेंकने के वीडियो हैं. उसी नर्सिंग होम के नीचे ये लड़के पत्थर फेंकते हुए साफ साफ पहचाने जा सकते हैं.

वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर एक सभा में गोली मारने के नारे लगाते हैं. उनके साथ कई लोग नारे लगाते हैं. क्या सरकार ने इसका इस्तमाल कर उन्हें पकड़ने का प्रयास किया? गोली मारने के नारे कई रैलियों में लगाए गए खासकर नागरिकता कानून के समर्थन में हुई रैलियों में. क्या ऐसे खतरनाक नारे लगाने वालों की पहचान का प्रयास किया गया?

इन तीन उदाहरणों के ज़रिए आपने देखा कि एक सरकार जिस टेक्नॉलजी को वैज्ञानिक मानती है उसका इस्तमाल अपने हिसाब से करती है. इसी तरह की आशंकाएं दुनिया भर में एक्सपर्ट ने जताई हैं.

वोटर आई कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस के फोटो कैसे होते हैं आपको बताने की ज़रूरत नहीं है. आप खुद ही पहचान नहीं पाते हैं. क्या पहले से कोई डेटा बेस है, जिसमें ड्राइविंग लाइसेंस या वोटर आई कार्ड का फोटो डालकर पहचान की जा रही है, अगर है तो यह डेटा बेस कैसे बना, कब बना? क्या दिल्ली पुलिस के पास आधार का डेटा बेस है? लेकिन गृहमंत्री ने साफ कहा कि आधार का इस्तमाल नहीं होगा. तो डेटा बेस कहां से आया जिसमें वे किसी का फोटो डाल कर मिला रहे हैं? इस सवाल पर स्पष्टता ज़रूरी है. आपने सैन फ्रांसिस्को का नाम सुना होगा. यही पर सिलिकॉन वैली है. इसी जगह से आज की इस तरह की टेक्नॉलजी की क्रांति की शुरूआत होती है. इस सैन फ्रांसिस्को शहर में फेस रिक्गनिशन टेक्नॉलजी बैन की गई है. यहां के पुलिस संघ ने कहा था कि यह टेक्नॉलजी 100 प्रतिशत सटीक नहीं है. जिसे हमारे गृहमंत्री अमित शाह वैज्ञानिक बता रहे हैं. आपके परिवार में कोई न कोई आईटी प्रोफेशनल होगा, आप उससे सैन फ्रांसिस्सको के बारे में भोजपुरी या मगही में पूछ सकते हैं.

सैन फ्रांसिस्कों की पुलिस इसका इस्तमाल न तो नरसंहार के मामलों में कर सकती है और न ही छोटे मोटे अपराधियों को पकड़ने में. इस शहर के सुपरवाइज़र का बयान है कि 'यह टेक्नॉलजी मनोवैज्ञानिक रूप से बीमार कर देने वाली है. मैं इस तरह के शहर में नहीं रहना चाहूंगा. सरकारें इसका भयंकर दुरुपयोग कर सकती हैं. हम इसके जिन्‍न को वापस बोतल में बंद कर देना चाहते हैं. हम पुलिसिंग चाहते हैं मगर यह नहीं चाहते कि पुलिस स्टेट बन जाएं.'

सैन फ्रांसिस्कों में बकायदा बहस हुई और उसके बाद मतदान हुआ. इस टेक्नॉलजी को अमरीका के कुछ और शहरों में बैन किया गया है. लेकिन उसी अमरीका के एयरपोर्ट पर इस्तमाल भी होता है. कई जगहों पर इस्तमाल होता है. हिन्दी मीडिया में निजता के सवाल पर विस्तार से चर्चा नहीं होती है. हो सकता है कि आप इस टेक्नॉलजी के समर्थक निकलें लेकिन इसके खतरे क्या-क्या बताए जा रहे हैं, क्या हिन्दी की जनता तक ये सारी जानकारी चैनलों और अखबारों के ज़रिए पहुंची है? राज्यसभा में तृणमूल के सांसद डेरेक ओ ब्रायन इसके बारे में सवाल करते हैं तो अमित शाह के पास ठोस जवाब नहीं है. सिर्फ दलील है कि हिंसा हुई है तो प्राइवेसी को रुकावट नहीं मानना चाहिए.

लखनऊ में प्रदर्शनकारियों की तस्वीर लगा दी, जब अदालत ने पूछा कि किस कानून के तहत ऐसा किया गया तो सरकार ने ही कहा कि कोई कानून नहीं है. ऐसे खतरे पहले तोहफे की तरह आते हैं. आप खुशी खुशी अपने फोन में चेहरे को पासवर्ड बनाते हैं. आवाज़ और उंगलियों के निशान को पासवर्ड बनाते हैं. यानी डेटा बेस बनने देते हैं. तब आप नहीं समझ रहे होते हैं कि इनके खतरे क्या होंगे, किस तरह से आप फंस सकते हैं. मिशी चौधरी टेक्नॉलजी, प्राइवेसी और कानून की जानकार हैं. मिशी ने कहा कि अमरीकी चुनाव में उम्मीदवार वादा कर रहे हैं कि इस टेक्नॉलजी के इस्तमाल को रेगुलेट करेंगे. यूरोपीयन संघ में भी बहस चल रही है कि फेस आइंडेंटीफिकेशन टेक्नालजी के इस्तमाल की इजाज़त दी जाए या नहीं. भारत में एक ही झटके में गृहमंत्री ने इसे वैत्रानिक बता दिया. आपको अब भी अपर्याप्त लग रहा है तो माइक्रोसॉफ्ट के प्रेसिडेंट ब्राड स्मिथ के एक ब्लाग की चर्चा करना चाहूंगा. माइक्रोसाफ्ट भी इस टेक्नॉलजी को विकसित करने में लगा है. माइक्रोसाफ्ट की वेबसाइट पर भी यह ब्लाग मौजूद है. यह शब्दश अनुवाद नहीं है, भावार्थ है. 2018 का ब्लॉग है.

हमें इसके दुरुपयोग और जोखिम को लेकर खुली आंखों से देखना होगा. इस टेक्नॉलजी को लेकर तीन बड़ी समस्याएं नज़र आती हैं. जिस तरह से इस टेक्नॉलजी का इस्तमाल हो रहा है उसमें भेदभाव की पूरी संभावना है. किसके खिलाफ इसका इस्तमाल होगा और इसका नतीजा क्या होगा यह पहले से तय हो सकता है. इस टेक्नॉलजी का व्यापक इस्तमाल हुआ तो लोगों की निजता में नए तरीके का हस्तक्षेप शुरू हो जाएगा. सरकार के द्वारा इस टेक्नॉलजी का इस्तमाल करने से लोकतांत्रिक स्वतंत्रताओं को भारी खतरा पहुंचने वाला है. बड़ी संख्या में लोगों की निगरानी की जा सकती है.

गूगल के सीईओ सुंदर पिचाई ने जनवरी 2020 में इस टेक्नॉलजी पर बैन का सपोर्ट किया था जब यूरोपियन यूनियन इस पर रोक लगाने पर विचार कर रहा था. सुंदर पिचाई ने कहा था कि उनके हिसाब से जरूरी है कि सरकारें इससे जुड़ी समस्याओं से निपटने का उपाय पहले ही कर लें ताकि देर न हो जाए. क्या भारत में ऐसा हुआ है. पिचाई ने यह बात ब्रसेल्स में हुए एक सम्मेलन में कही थी. ज़रूर दिल्ली पुलिस के गुमशुदा बच्चों के तलाश की तारीफ की गई है लेकिन माइक्रोसाफ्ट के प्रेसिडेंट ने इसके खतरों को कभी कम नहीं किया. आपको याद होगा. प्रधानमंत्री मोदी ने झारखंड की रैली में कपड़ों से पहचानने की बात कही थी. अमित शाह ने कहा कि यह टेक्नॉलजी कपड़ों के आधार पर नहीं पहचानती, चेहरे से पहचानती है. क्या वे प्रधानमंत्री की आलोचना कर रहे थे? वही बता सकते हैं. मिशी चौधरी कहती हैं कि टेक्नॉलजी चेहरा भी देखती है और कपड़े भी.

अमरीका में या कहीं की भी पुलिस में भेदभाव के अपना सिस्टम होता है. अमरीका में अश्वेत लोगों के खिलाफ पुलिस रंग और चेहरा देखकर ही भेदभाव करती है. किसी और देश में मज़हब देखकर और कपड़े देखकर करती है. इस टेक्नॉलजी की समस्याओं के बारे में यह भी पढ़ने को मिला कि यह कई बार औरत और मर्द के बारे में भी फर्क नहीं कर पाता है. सुप्रीम कोर्ट ने निजता के अधिकार के मामले में एक विस्तृत फैसला दिया है. फेस आइंडेंटिफिकेशन टेक्नॉलजी का इस्तमाल के लिए क्या कानून बने हैं, किसी को पता नहीं है. सिर्फ यह कह देना कि किसी ने हिंसा की है तो उसमें नहीं देखा जाएगा तो यह बात अपर्याप्त है.

इस टेक्नॉलजी का चीन में खुलकर इस्तमाल हो रहा है. दुनिया चीन नहीं है. जहां भी लोकतांत्रिक समाज हैं, जहां भी लोग अपने अधिकारों को मूल्यवान समझते हैं वहां पर इस टेक्नॉलजी को लेकर चिन्ता जताई जा रही है.

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फेस आइडेंटिफिकेश टेक्नॉलजी है तो वैज्ञानिक लेकिन इसका इस्तमाल जनता के खिलाफ हो सकता है. परमाणु बम भी वैज्ञानिक है लेकिन यह कह कर आप कहीं धमाका नहीं कर सकते बल्कि एक आलोचना में यह बात पढ़ने को मिली कि यह टेक्नॉलजी परमाणु बम की तरह है. लोकतांत्रिक अधिकारों को चुनौती सिर्फ टेक्नॉलजी से ही मिलती है यह ज़रूरी नहीं है. टेक्नॉलजी के मिलने से उसका असर व्यापक हो जाता है. वरना आप फारुक अब्दुल्ला से पूछिए. 80 साल के इस सांसद को सात महीने तक कैद में रखने के बाद रिहा किया गया है. क्या फारुख अब्दुल्ला ने गोली मारने के नारे लगाए थे दिल्ली की सड़कों पर.