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This Article is From Dec 14, 2015

डॉ. विजय अग्रवाल : प्रदूषण पर जो करना है हमें ही करना है, क्योंकि 'सरकार' हमारी ही है

written by Dr. vijay agrawal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    दिसंबर 14, 2015 13:44 pm IST
    • Published On दिसंबर 14, 2015 11:51 am IST
    • Last Updated On दिसंबर 14, 2015 13:44 pm IST
'दिल्ली में एक दिन सम संख्या वाली और अगले दिन विषम संख्या वाली गाडि़यां चलेंगी', दिल्ली सरकार के इस फैसले के खिलाफ दायर जनहित याचिका को न्यायालय ने खारिज कर दिया। जाहिर है कि न्यायालय को याचिका को खारिज करने में जन का हित मालूम पड़ा होगा। लेकिन दिल्ली में डीजल कारों के पंजीयन पर रोक लगाए जाने के खिलाफ दायर जनहित याचिका स्वीकार हो गई।

यहां भी जाहिर है कि अपना यह फैसला न्यायालय को ठीक लगा होगा। अंतिम फैसला अभी होना है। तो यहां पहली बात तो यह कि अब यह तथ्य अच्छी तरह से परिभाषित हो ही जाना चाहिए कि दरअसल 'जन' कौन है, उसका 'हित' क्या है और यह भी कि उसका हित किसमें है। ऐसे मामलों पर फैसला देते समय जनता को भी कुछ दायित्‍व सौंपे जाने चाहिए, क्योंकि उसका संबंध सीधे-सीधे उसी के हित से होता है।
(ज़हरीली हुई राजधानी : दिल्ली का आनंद विहार प्रदूषण के मामले में देशभर में अव्वल)

दिल्‍ली की आत्‍मा का हुआ क्षरण
हमारे उपनिषद् में 'प्राण' (सांस) को आत्मा कहा गया है। आज दिल्ली की आत्मा (वायु) का कितना भयावह क्षरण हो चुका है, इसकी पर्यावरणीय और मेडिकल रिपोर्ट मौजूद है। इसके अनुसार वहां के लगभग 16  प्रतिशत बच्चे बुरी तरह रोगग्रस्त हैं, जिनमें उनकी प्रजनन-क्षमता तक का खोना शामिल है। ट्रेफिक के कारण बड़ी-बड़ी कोठियों वाले अरबपति भी अपनी जिन्दगी का लगभग 20  प्रतिशत वक्त गाडि़यों से खचाखच भरी सड़कों पर बिताने को अभिशप्त हैं।
(दिल्ली : क्यों घुट रही हैं आरके पुरम की सांसें?)

..पर कोई कुछ करना नहीं चाहता
हर कोई चाहता है कि इससे निजात मिले। लेकिन मुश्किल यह है कि इसके लिए करना कोई नहीं चाहता। यहां तक कि जैसे ही कुछ करने की बात उठती है, उन होने वाली बातों के खिलाफ उठने वाली आवाजें गुटबन्दी करके उसे दबाने से परहेज नहीं करतीं। खुद के स्वास्थ्य और अपने बच्चों की बेहतर जिन्दगी के लिए लोग अपने वर्तमान की छोटी-छोटी महत्वहीन-सी सुविधाओं तक को छोड़ने को तैयार नहीं हैं। फिर भी चाहते यही हैं कि प्रदूषण कम हो। तो फिर लोग ही बताएं कि अन्य उपाय क्या हैं? जबकि सच पूछिए तो इस महासंकट का अन्त चुटकियों में हो सकता है और तुरन्त भी, बशर्ते कि लोग करें तो।

गहरा है भारतीच चेतना का प्रकृति से संबंध
'माता भूमिः, पुत्रों अहम् पृथ्विया' भूमि मेरी माता है और मैं पृथ्वी का पुत्र हूं। ये अथर्ववेद के एक श्लोक के पांच वे चमकीले शब्द हैं, जो बताते हैं कि भारतीय चेतना ने हजारों साल पहले से ही प्रकृति के साथ अपना किस तरह का सम्बन्ध स्थापित कर लिया था। इस बारहवें मण्डल का नाम ही है 'पृथ्वी सुक्‍त'। एक राजा की पत्नी एक पुत्र को जन्म देती है और वह भी राजमहल में नहीं बल्कि साल वृक्षों के वन में। इस बालक को 27 वर्षों बाद जब ज्ञान प्राप्त होता है, तब किसी तक्षशिला विद्यालय में नहीं बल्कि एक वृक्ष के नीचे। बाद में जीवन भर वनों के बीच विहार करते रहने वाले इसी महाज्ञानी को भारतीय चेतना अपने ईश्वर का दसवां अवतार मानकर उसे पूजने लगती है। जी हां, आप ठीक समझ रहे हैं, मैं गौतम बुद्ध की ही बात कर रहा हूं।

मनुस्‍मृति में है कानून का उल्‍लेख
ऐसा था प्रकृति के साथ हमारा नाता। यहां तक कि अपने प्राचीनतम विधान को याद करने के लिए यह जानना सही होगा कि हमारे प्रथम पुरुष मनु ने 'मनुस्मृति' में कानून बनाया था कि जलाशयों को प्रदूषित करने वालों को मृत्युदण्ड दिया जाएगा।
इस तरह के पवित्र, व्यापक एवं गहरी प्रकृति-दृष्टि वाली भारतीय चेतना के पास अपनी संस्कृति एवं अपनी परम्परा के रूप में वह भूमिका पहले से ही मौजूद है कि लोग खुद सामने आकर घोषणा करें कि -
1. हम इस धरती को कलुषित नहीं होने देंगे।
2.  हम अपने नगर की आत्मा (वायु) को प्रदूषित नहीं करेंगे आदि-आदि।

सब कुछ हमारे हाथ में है
यह सब हमारे हाथ में है। हम आज ये कदम उठाएं, शाम तक उसके परिणामों की सुगन्ध को अपनी फिज़ा में बिखरा हुआ महसूस कर लेंगे। और सच पूछिए, तो तभी अपने पूर्वजों की उस इच्छा को पूर्ण करके उनका सच्चा श्राद्ध कर सकेंगे कि 'हम सक्रिय रहते हुए सौ बसन्त देखें।' इसी में स्वयं का हित है और इसी में है जनहित। जनतंत्र में हम ही सरकार हैं। इसलिए हमें यह क्यों नहीं सोचना चाहिए कि जो कुछ भी करना है, हमें ही करना है क्योंकि अन्ततः जिन्दगी हमारी है और हमारे बच्चों की।

डॉ. विजय अग्रवाल जीवन प्रबंधन विशेषज्ञ हैं...

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