डॉ विजय अग्रवाल : 'ईगो' से मुक्ति की एक अचूक दवा

डॉ विजय अग्रवाल : 'ईगो' से मुक्ति की एक अचूक दवा

प्रतीकात्मक चित्र

(डॉ. विजय अग्रवाल जीवन प्रबंधन विशेषज्ञ हैं...)

समझ में नहीं आता कि लोगों ने जिंदगी को और जिंदगी के मकसद को इतना जटिल, इतना कठिन और इतना रहस्यमय क्यों बना दिया है...जबकि यह बहुत अधिक सुलझी हुई, सरल और बहुत साफ-साफ दिखाई देने वाली किसी ठोस वस्तु की तरह ही है। शायद हम लोग जिंदगी के बारे में इतने फिलॉसाफिकल अंदाज में इसलिए बात करते हैं, ताकि हमें यह विश्वास हो जाए कि हम जिसे जी रहे हैं, जिसे अपने कंधों पर उठाकर चल रहे हैं, वह कोई छोटी-मोटी, सरल और हल्की-फुल्की चीज नहीं है। क्या आपको नहीं लगता कि इतनी सरल धारणा को इतनी भूल-भूलैया वाली धारणा में बदलकर कहीं न कहीं हम अनावश्यक रूप से अपने महत्व को अधिक दिखाने की कोशिश कर रहे हैं?

मेरे लिए तो जिंदगी की बहुत ही सरल और व्यावहारिक परिभाषा है। मेरी इतनी कूव्वत नहीं है कि मैं जान सकूं कि आत्मा क्या है, मैं कौन हूं, कहां से आया हूं, क्यों आया हूं और कहां जाना है। मेरे लिए तो जिंदगी उतनी ही सरल, सहज और स्पष्ट है, जितनी कि पहाड़ियों के बीच बहती हुई नदी पहाड़ियों के लिए, आम के पेड़ों में लगी मंजरियां आम के पेड़ के लिए, गुलाब के पौधों पर उगे हुए तीखे कांटे गुलाब के लिए और लगातार गिरती और उठती हुई पलकें आंखों के लिए।

लगता है कि स्वयं को विशिष्ट समझने के हमारे विचार ने हमारे जीवन को जटिल बनाया है। अन्यथा तो यह भी इस प्रकृति का उसी तरह एक हिस्सा है, जैसे कि चांद और सितारे हैं, पहाड़ और नदियां हैं, चींटी और हाथी हैं और इस धरती की वे सारी चीजें हैं, जो प्रकृति ने बनाई हैं। यदि एक बार हम अपने को प्रकृति का ही हिस्सा समझ लेते हैं, तो फिर जीवन के गणित को सुलझाना बहुत आसान लगने लगता है। मुश्किल यह है कि हम खुद को प्रकृति का हिस्सा न समझकर यह समझ बैठे हैं कि प्रकृति हमारा हिस्सा है। या इसे यूं कह लीजिए कि प्रकृति हमारे लिए है।

यदि एक बार हम अपने जीवन को विशिष्ट न मानकर प्रकृति का हिस्सा मान लेते हैं, तो फिर हमारे सोचने-समझने का नजरिया ही बिल्कुल बदल जाता है। निःसंदेह प्रकृति ने ही हमें सोचने-समझने की शक्ति दी है। लेकिन हमें इस बात को भी सोचना-समझना होगा कि हम अपनी इस शक्ति का इस्तेमाल कर किस तरह से कर रहे हैं। इसका इस्तेमाल इस तरह भी हो सकता है, उस तरह भी हो सकता है और किसी भी तरह हो सकता है। हमारा यह सोचना-समझना अंततः हमें किस निष्कर्ष तक पहुंचाएगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम सोचने-समझने का यह काम किस नजरिए से कर रहे हैं। हमारा दृष्टिकोण क्या है। हमारी सोचने-समझने की क्षमता एक गाड़ी की तरह है। निश्चित तौर पर कहीं जाने के लिए गाड़ी कम महत्वपूर्ण नहीं है, लेकिन वह जाएगी कहां, इस बात का फैसला गाड़ी का स्टेयरिंग नहीं करेगा, बल्कि ड्राइवर के वे हाथ करेंगे, जो स्टेयरिंग को संचालित करते हैं। मुझे लगता है कि जैसे ही हमारी चेतना में यह सत्य बहुत गहरे धंस जाता है कि 'मैं भी प्रकृति का एक सामान्य अंग हूं', वैसे ही स्वयं को विशिष्ट समझने की चेतना गायब हो जाती है, ईगो नष्ट हो जाता है और आंखों के सामने बने हुए वे सारे जाले साफ हो जाते हैं, जो किसी भी वस्तु को स्पष्ट रूप से देखने में बाधा पैदा कर रहे थे।

वैसे यदि हम थोड़ा भी ध्यान दें, तो जीवन के इस गहरे सत्य को पकड़ पाने में कोई गलती नहीं होगी कि हमारी अधिकांश समस्याओं और संकटों की जड़ में यह 'ईगो' नामक खाद ही अपना कमाल कर रहा होता है। और यह 'इगो' कुछ और नहीं है, सिवाय खुद को विशिष्ट समझने के। यहां गौर करने की बात यह भी है कि जब हम इतनी शक्तिशाली और इतने विराट प्रकृति में स्वयं को विशिष्ट समझ सकते हैं, तो फिर मनुष्यों का वह समाज तो इसके सामने चुटकी भर भी नहीं है, जिसमें रहते हुए हम स्वयं को विशिष्ट समझते हैं। क्या अब आपको नहीं लगता कि स्वयं को प्रकृति का ही एक समान अंग समझकर हम अपने इस सबसे खतरनाक 'मनोवैज्ञानिक कैंसर' से मुक्ति पा सकते हैं?

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