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This Article is From Jun 21, 2018

इतिहास को बनाते और बनते हुए देखने का सुख

Dr Vijay Agrawal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जून 21, 2018 11:18 am IST
    • Published On जून 21, 2018 11:06 am IST
    • Last Updated On जून 21, 2018 11:18 am IST

अमेरिका के अप्रत्याशित (अनप्रेडिक्टिबल) राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और उत्तरी कोरिया के सिरफिरे-से जान पड़ने वाले राष्ट्रपति किम जोंग उन का शुक्रिया कि उन्होंने दुनिया को सुकून से सांस लेने का एक अवसर उपलब्ध कराया है, अन्यथा न्यूज़ चैनलों के 'दुनिया दो दिन की' तथा '10 सेकंड में महाप्रलय' जैसे कार्यक्रमों ने लोगों की नींद उड़ाकर उन्हें महावैराग्य की ओर धकेलने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. आगे चाहे जो भी हो, फिलहाल तो राहत है ही.

...और इसी कारण 12 जून, 2018 का दिन दुनिया के इतिहास में तब तक के लिए दर्ज हो गया, जब तक दुनिया मौजूद रहेगी. इसी के साथ समय की पीठ पर इन दो नेताओं के नाम के अक्षर भी हमेशा-हमेशा के लिए अंकित हो गए.

बस, यही इतिहास है, और इतिहास में नाम दर्ज हो जाना ही है - अमरता. दार्शनिक फुकुयामा ने अमरता को'स्मृतियों की फुसफुसाहट' कहा था. शरीर को तो नष्ट होना ही होना है. अमरता केवल भविष्य की स्मृतियों में स्वयं को संरक्षित करके ही हासिल की जा सकती है, और इतिहास अपने समय की स्मृतियों का एक संचित कोष है. भला कौन इस कोष का हिस्सा बनना नहीं चाहेगा.

जब हम देश और दुनिया की राजनीति को इस चश्मे से देखते हैं, तब पता चलता है कि क्यों राजनीति के क्षेत्र में इतनी अधिक आपाधापी है, दुनिया के किसी भी क्षेत्र से अधिक; यहां तक कि ट्रेड-वार से भी अधिक. हालांकि जीवन के हर क्षेत्र का अपना-अपना इतिहास होता है, लेकिन इतिहास नामक विषय का केंद्र तो राजनीति ही है. इसलिए ऐसे में यह बहुत अस्वाभाविक नहीं लगता कि दुनिया का एक बहुत बड़ा व्यापारी दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश का सर्वेसर्वा बनने की सोचे और एक छोटे से देश का कमउम्र का ही सही; शासक अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए पूरी दुनिया में खौफ पैदा कर दे. सिकंदर के 'विश्वविजेता' बनने के सपने के मूल में कहीं न कहीं इतिहास का पहला पन्ना बनने की ख्वाहिश ही काम कर रही थी.

मैं इतिहास का विद्यार्थी ही नहीं, इतिहास प्रेमी भी हूं. मेरे सामने इतिहास के स्पष्टतः दो रूप हैं. एक वह, जिसे मैं सिर्फ इतिहास की किताब में पढ़कर जान रहा हूं, और दूसरा इतिहास का वह टुकड़ा है; जो मेरी आंखों के सामने से गुज़रा है, और मैं उस देखे और कुछ सीमा तक भोगे हुए इतिहास को पढ़ रहा हूं. पिछले महीने जब मैं द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के इतिहास के बारे में पढ़ रहा था, तो मुझे ऐसा लग रहा था कि मैं अपने देखे हुए दौर का एक बार फिर साक्षात्कार कर रहा हूं. इसे पढ़ने का आनंद अद्भुत था. मैं सोचता हूं कि इतिहास को मात्र एक तटस्थ दर्शक होने पर यदि इतिहास मुझे इतना आनंद दे सकता है, किसी सत्य-उपन्यास का आनंद, तो जो इतिहास को बना रहे हैं, उन्हें कितना अधिक आनंद मिलता होगा. उनके आनंद की तो शायद कल्पना ही नहीं की जा सकती. कहीं ऐसा तो नहीं कि इस अकल्पनीय आनंद की कल्पना ही अक्षय ऊर्जा का स्रोत बनकर राजनीतिज्ञों को इसके लिए कुछ भी कर गुज़रने के लिए लगातार उकसाती रहती है.

मानता हूं कि इतिहास को पढ़ना एक रचनात्मक काम नहीं हो सकता. इतिहास को पढ़ाने में भी कोई क्रिएटिविटी नहीं है, लेकिन इतिहास को बनाने में तो है. इस प्रकार से क्या राजनीति को इतिहास के क्षेत्र की एक रचनात्मक गतिविधि तथा इन गतिविधियों से प्राप्त सुख को एक रचनात्मक सुख नहीं कहा जा सकता. इस पर विचार किया जाना चाहिए.

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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