हर साल आगजनी की घटना के बाद तमाम सांसद अपने क्षेत्र का दौरा करते ही रहते हैं. कई सांसद बहुत उदारता पूर्वक पीड़ितों को मदद सामग्री भी बांट आते हैं लेकिन वरुण ने सोचा कि इन लोगों के घर क्यों जल जाते हैं और कौन लोग हैं जिनके घर जलते हैं. इस सवाल के जवाब में उन्हें यह पता चला कि चार गांव ऐसे हैं जहां हर साल या एक दो साल के अंतराल में एक तिहाई मकान जल जाते हैं. अपनी टीम के ज़रिये पहले लोगों में चेतना जगाई कि गर्मी के दिनों में घरों के आस पास बीड़ी न पीयें या आग न जलायें और फिर इस पर काम करने लगे कि इनका मकान पक्का कैसे हो सकता है. इस काम में दक्ष विदेशी संस्थाओं ने सुझाव दिया कि पांच लाख में एक घर बन सकता है. वरुण ने हाथ खड़े कर दिये कि इतने पैसे का इंतज़ाम वे नहीं कर पाएंगे. इसके बाद उन्होंने ठेकेदारों से बात की और अंत में ठेकेदारों की जगह मिस्त्री से बात की ताकि कमीशन और कमाई का हिस्सा कुछ कम हो जाए. अंत में ये मकान डेढ़ लाख के बजट पर बनने लगे. वरुण गांधी ने भी कुछ पैसे दिये हैं लेकिन बड़ा हिस्सा स्थानीय लोगों ने दिया है. आस पास के व्यापारियों और साधारण लोगों ने.
इन घरों की बनावट सरल है. एक कमरा है. उससे लगा एक शौचालय है. जोड़े में घर बनाए गए हैं और एक खास रंग दिया गया है ताकि इनकी पहचान से स्थानीय लोगों में मदद की भावना विकसित हो. यह मकान लोगों की ही ज़मीन पर बने हैं. जिन लोगों को यह घर मिलने वाला है उनके नाम जारी कर दिये गए हैं. जिनसे कोई भी संपर्क कर जांच कर सकता है. हर राज्य में सरकार भी ग़रीबी रेखा से नीचे के बेघर लोगों के लिए मकान बनाने की योजना चलाती है. लोगों को पैसे देती है. वरुण ने इसके लिए किसी योजना की मदद नहीं ली है. आमतौर पर सांसद शादी ब्याह और श्राद्ध में घर घर घूमकर पांच सौ, हज़ार रुपये देकर कितना ख़र्च कर देते हैं. ऐसे प्रयासों से कम से कम भले वो हज़ारों के घर न जा पाए लेकिन सौ दो सौ के घर तो बना ही देगा. सरकारी योजनाओं से भी करोड़ों घर बने हैं. एक सांसद के प्रयास से बने ये सौ घर उन योजनाओं के लिए भी चुनौती का काम करेंगे. लोगों के बीच इस बात को लेकर प्रतियोगिता होगी कि किसी योजना से बना घर अच्छा है या सांसद का बनवाया अच्छा है.
हाल ही में पंजाब के एक किसान जसवंत सिंह की आत्महत्या की ख़बर आपने पढ़ी होगी. जसंवत सिंह अपने पांच साल के बेटे को बांहों में भर कर नहर में कूद गए. कोई कितना हताश हो जाता होगा कि अपने बेटे के साथ आत्महत्या कर ले. दस लाख का कर्ज़ा हो गया था जसवंत पर. इस घटना के बाद से यही सोच रहा था कि उस ज़िंदादिल पंजाब को क्या हो गया है. क्या लोगों ने लोगों के लिए जीना बंद कर दिया है. दुनिया भर में पंजाबी समुदाय के पास अरबों रुपये हैं. क्या वे लोग मिलकर अपने इन कर्जदार किसानों की मदद नहीं कर सकते जैसे महाराष्ट्र में नाना पाटेकर किसानों की मदद करने के लिए आगे आए हैं. अक्षय कुमार ने भी कर्ज़ में डूबे किसानों की मदद की है. इस हफ्ते के दैनिक हिंदुस्तान में छपी ख़बर पर नज़र पड़ी, वरुण गांधी ने लोगों की मदद से 3600 किसानों को कर्ज़मुक्त किया है.
3600 किसानों को कर्ज़मुक्त करना कोई साधारण घटना नहीं है. वरुण और उनकी टीम ने किसी भी किसान की मदद नहीं की. बकायदा सर्वे कराया कि आत्महत्या करने वाले किसानों की कर्ज़ की क्या स्थिति है और कर्ज़े का कारण फ़सलों की बर्बादी या कुछ और. पता चला कि जो किसान आत्महत्या करते हैं उनमें से चालीस फीसदी ऐसे हैं जिनकी तीन चार साल से फ़सल बर्बाद हो रही है और वे इतनी ही बार से कर्ज़ नहीं चुका पा रहे हैं. इस जानकारी के आधार पर एक पैमाना बना कि उन किसानों की मदद की जाएगी जो तीन चार साल से कर्ज़ नहीं चुका पा रहे हैं. जिनकी लगातार या एक दो साल के अंतराल पर तीन चार बार अलग अलग कारणों से फसल बर्बाद हुई है. बैंकों से जानकारी जुटाई गई. पता चला कि किसी ज़िले से डेढ़ सौ तो किसी ज़िले से तीन सौ किसान वरुण के बनाए पैमाने में फिट होते हैं. बुंदेलखंड में तो ऐसे किसानों की संख्या हज़ारों में है.
वरुण ने अपनी तरफ से डेढ़ करोड़ ही दिये लेकिन जब उन्होंने अपनी तरफ से दिया तो स्थानीय स्तर के समृद्ध लोग भी आगे आए. किसी ने एक हज़ार भी दिया तो किसी ने पचास हज़ार भी. जिस किसान को मदद चाहिए उसके बारे में स्थानीय सभाओं और छोटी बैठकों में जानकारी दी गई. लोगों ने अपनी क्षमता के अनुसार राशि दी. इस तरह से 18 करोड़ रुपये जमा हो गए जिसे अलग अलग ज़िलों के कर्ज़दार किसानों के बीच बांटा जा चुका है. यह छोटी कामयाबी नहीं है. ऐसे प्रयासों का असर यह भी हो सकता है कि लोगों का राजनीति और राजनेता में यकीन गहरा होगा. अगर उन्हें ये भरोसा हो जाए तो स्थानीय स्तर पर ही लोग इतनी पूंजी तो जमा कर ही सकते हैं कि कुछ सौ के घर बन जाएं और कुछ सौ किसानों के कर्ज़ चुक जाएं. राजनीति में भाषण देने और चुनाव जीतने के अलावा भी कुछ होना चाहिए.
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