दिल्ली हिंसा : GTB अस्पताल में वो 5 दिन....

लाल रंग के झालर से घिरा आपातकालीन सेवा का बोर्ड नजर आया और पोर्टिको में मुंह पर पट्टी बांधे प्राइवेट गार्ड के साथ एक दिल्ली पुलिस की जिप्सी और दो कांस्टेबल भी तैनात दिखे थे. जानकारी के नाम पर 30 घायल और 4 या 8 के मौत की खबर थी. 

दिल्ली हिंसा : GTB अस्पताल में वो 5 दिन....

GTB अस्पताल के गेट नंबर तीन के बाहर ठेले पर चाय उबाल खा रही थी. गेट में दाखिल होते ही हल्की हवा के साथ पेड़ से सूखे पत्ते लगातार सड़क पर गिर रहे थे. 25 तारीख को सुबह 7 बजे मैं इन सबको नजरअंदाज करते हुए तेज कदमों से इमरजेंसी गेट की तरफ बढ़ा चला जा रहा था. दिमाग में 8 बजे के लाइव का डेडलाइन था सो मुझे कुछ जानकारी भी जुटानी थी. सुबह GTB अस्पताल के MD सुनील कुमार गौतम ने मेरा फोन उठाया लेकिन मैं अभी कुछ नहीं बता सकता कहकर मोबाइल काट दिया था. लाल रंग के झालर से घिरा आपातकालीन सेवा का बोर्ड नजर आया और पोर्टिकों में मुंह पर पट्टी बांधे प्राइवेट गार्ड के साथ एक दिल्ली पुलिस की जिप्सी और दो कांस्टेबल भी तैनात दिखे थे.

जानकारी के नाम पर 30 घायल और 4 या 8 के मौत की खबर थी. इमरजेंसी के बाहर खड़े होकर लाइव करने के दौरान एम्बुलेंस और पुलिस जिप्सी की आवाजाही बढ़ती जा रही थी। कोई अपनों को स्कूटी पर ला रहा था तो कोई ई रिक्शा से. कुछ लोगों को एम्बुलेंस तो कुछ को पुलिस जिप्सी में ला रही थी. जिस दंगे को कुछ देर पहले मैं रुटीन बवाल मान रहा था अब दिल दहलाने वाली घटना में तेजी से बदलती जा रही थी. 

इस बीच एक दरम्याने कद और गोरे रंग का शख्श माथे पर बड़ा सा तिलक लगाकर स्कूटी से इमरजेंसी पहुंचा. स्कूटी के बीच में निढ़ाल बैठे शख्स को गोली लगी थी. तुरंत उस शख्स को अस्पताल के अंदर पहुंचा कर टीका लगाया. युवक कुछ देर बाद बाहर आया. मैं हिम्मत जुटाकर उसके पास पहुंचा. वो रोते हुए मोबाइल से किसी से बात कर रहा था कि किसी तरह चच्चा को लेकर अस्पताल पहुंचा हूं लेकिन बचने की उम्मीद कम है. ये कहकर वो बैठा और बेतहाशा रो पड़ा. दूसरे दिन शवगृह के बाहर जब उनसे मुलाकात हुई तो उसने बताया कि हिन्दुवानी इलाके से चच्चा को लाना था इसलिए टीका लगा लिया था क्योंकि लोग नाम पूछकर जाने दे रहे थे. मैंने कहा क्या आप कैमरे के सामने बात कर सकते हैं. उसने गुस्से से भरकर मुझे देखा फिर बोला काम तो उन्हीं के साथ करना है. पैसे की मदद भी वही लोग कर रहे हैं. ये सब बोलकर मैं और दुश्मनी नहीं मोल लेना चाहता.

कोरोना वायरस को लेकर एहतियात बढ़ी

दिनभर अस्पताल में मचे चीख गुहार से गुजरते रात को जब मैं घर पहुंचता तो कभी दंगे में मारे गए असफाक की मां से अपनी मां की तुलना करने लगता तो कभी दो जवान बेटों को खोने वाले बाबू खान में मुझे अपने पिता की परछाई नजर आने लगती. सिर भारी हो जाता और मन बेचैनी से भर उठता। दूसरे दिन फिर एक सामान्य सुबह की उम्मीद में भारी कदमों से अस्पताल पहुंचते ही पता चला कि आज कैमरे से शूट नहीं करने दिया जा रहा है. पुलिस के लोग आज ज्यादा तादात में खड़े हैं. अचानक सायरन की आवाज दूर से गूंजने लगी. प्राइवेट गार्ड सीटी बजाते हुए रास्ते को साफ करने लगे. तेज रफ्तार से आई जिप्सी में से एक घायल पुलिस वाले को उतारा गया. मैं मोबाइल से शोट्स ले रहा था तभी एक सादे कपड़े और एक वर्दी में दरोगा आया. आते ही मेरा मोबाइल छीन कर बोला. तुझे समझ में नहीं आ रहा है. समझांऊ क्या? गुस्से से उसका चेहरा लाल हो रहा था मेरी निगाह उनकी नेम प्लेट पर गई. दरोगा का नाम प्रणय दिनेश ही देख पाया था कि सादी वर्दी वाले लंबे कद का युवक घसीटता हुआ मुझे इमरजेंसी गेट के पास ले गया. मैंने कहा हम अपना काम कर रहे हैं सर. वो तीखे आवाज में बोला अभी सिखाता हूं तेरा काम. 

दंगे सिर्फ़ मुहल्ला नहीं जलाते, आपसी भरोसा भी राख हो जाता है

मैंने उलझने के बजाए संभलने की कोशिश की. और वो मोबाइल छीनकर अंदर चला गया. करीब आधे घंटे बाद एक शख्स आया और पंद्रह मिनट मानवता पर लेक्चर देकर मेरा मोबाइल वापस दे गया. निराश कदमों से मैं अब इमरजेंसी से पोस्टमार्टम हाउस की ओर चल पड़ा. यहां दूर से ही हाय मेरा बेटा. कहकर रोने की तीखी आवाज सुनाई पड़ी. मैं तेजी से पोस्टमार्टम हाउस की ओर भागा. सफेद पैंट और शर्ट के ऊपर शाल ओढ़े सांवले चेहरे का अधेड़ आदमी जार जार रो रहा था. उसके भारी भरकम शरीर को दो लोगों ने संभाल रखा था. पता चला कि ये राहुल सोलंकी के पिता हरी सिंह हैं. दंगे में मारे गए राहुल सोलंकी की मार्केटिंग टीम की एक लड़की उसके दोस्त फिरोज के बगल में रो रही थी. मेरे पूछने पर भी मुसलमान होने के वजह से फिरोज अपना नाम नहीं बता रहा था. दूसरे दिन अखबार से पता चला कि वो राहुल का खास दोस्त था.

तो आप उनका आर्थिक बहिष्कार करना चाहते हैं?

यहां राहुल के पिता के बगल में मेहताब की भाभी रो रही थी. वो बार बार बोले जा रही थी कि मेहताब हर बार कहता भाभी मेरी शादी करवा दो. रोते बिलखते परिवारों को दिलासा देने वाले कई अनजान लोग भी शवगृह के बाहर खड़े होते. कई बार बाइट लेने के दौरान आवाज भर्राने लगती और आंखें डबडबाने. फिर संभला पेशेवर बनने की कोशिश की. माहौल बदलने के लिए हर घंटे बाद मैं शवगृह से अस्पताल के इमरजेंसी गेट पर आ जाता. इसी गेट पर एकदम हड़बड़ाती एक महिला शबाना आई. बोली भाईजान आप एनडीटीवी में हो न मैंने कहा जी. उसने तुरंत एक वॉयस रिकार्डिंग मेरे कान पर लगाते कहा सुनो मेरी बहन कितनी परेशान है। प्लीज आप लोग ही मदद कर सकते हो इसीलिए मैं इतनी दूर से आई हूं. ये कहकर वो रोने लगी. मैंने उसे दिलासा देते कहा घबराइए नहीं मैं बात करता हूं..उसे रोता देख पास खड़े जयभगवान नाम के शख्स भी आ गए. शबाना रोते हुए लगातार बोले जा रही है. भाई जान हिन्दू मरे या मुसलमान..कुत्ता बिल्ली को भी नहीं मरना चाहिए. किसी भी धर्म में मारना नहीं लिखा है. इन नेताओं का क्या जाता है वो चाहे वारिस पठान हो या कपिल मिश्रा. जयभगवान ने दिलासा देते कहा बहन जी रहना हमें आपको साथ में है. वो लगातार रोए जा रही थी हम सब मूक दर्शक बने खड़े थे.

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इन पांच दिनों में मैने रिपोर्टिंग में कोई कमाल नहीं किया लेकिन दंगे की क्रूरता और सबकुछ लुटा चुके लोगों के दर्द के ठंडेपन को महसूस किया. लगा शवगृह में धर्म साथ छोड़ देता है और दुख खामोशी बनकर आपके सामने खड़़ा हो जाता है...शवगृह...मौत...दंगा और भीड़ ये शब्द जब जब कान में पड़ेंगे तब तब परवेज, आमिर, आसिफ,राहुल और नितिन कुमार याद आएंगे.

(रवीश रंजन शुक्ला एनडीटीवी इंडिया में रिपोर्टर हैं)

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