मुख्य सचिव और सचिव स्तर के अधिकारियों की तैनाती और तबादले को लेकर दिल्ली सरकार और उप राज्यपाल का विवाद लड़ाई में बदल चुका है। दोनों पक्ष नियमों और प्रावधानों का अपने अपने हिसाब से मतलब निकाल रहे हैं।
दिल्ली को लेकर भ्रम की स्थिति पहले से रही है इसलिए हर मुख्यमंत्री ने पुलिस और ज़मीन के मामलों का नियंत्रण उन्हें सौंप देने से लेकर पूर्ण राज्य की मांग की है। कांग्रेस और बीजेपी दोनों ने ऐसा किया है और दोनों ने ऐसा तब किया है जब केंद्र में उनकी विरोधी सरकार हो। अनुकूल सरकार होने पर दोनों इस लड़ाई को ताक पर रख देते हैं।
दिल्ली अब बदल गई है। करीब दो करोड़ की आबादी वाले इस राज्य को लम्बे समय तक नगरपालिका से कुछ अधिक मात्र की सरकार के रूप में नहीं देखा जा सकता। जिस संविधान ने दिल्ली को केंद्र शासित राज्य का दर्जा दिया है उसमें कहीं नहीं लिखा है कि दिल्ली के लिए जो व्यवस्था की जा रही है वो अंतिम है। हैरानी हुई जब इसे अपूर्ण या अपर्याप्त मान कर पूर्ण राज्य का दर्जा देने की सबसे लंबी लड़ाई लड़ने वाली बीजेपी ने उपराज्यपाल का पक्ष लिया।
क़ायदे से मौजूदा विवाद पर बीजेपी अपनी पुरानी मांग के औचित्य को मज़बूती से रख सकती थी और उपराज्यपाल के अधिकारों को सीमित करने की लाइन ले सकती थी जैसी बाकी दलों ने ली है। अब बीजेपी बताती नहीं थक रही कि उपराज्यपाल चुने हुए मुख्यमंत्री से ज्यादा शक्तिशाली हैं और संविधान की इस व्यवस्था से सर टकराने से कोई लाभ नहीं। यहां तक कि योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण के स्वराज मंच ने भी इस मुद्दे पर उप राज्यपाल का साथ नहीं दिया है।
दस साल तक पूर्ण राज्य का दर्जा न देने के सौ बहाने करने वाली कांग्रेस ने भी उपराज्यपाल का साथ नहीं दिया है। उस उपराज्यपाल का जिसकी नियुक्ति कांग्रेस ने ही की थी। इस विवाद को आप प्रधानमंत्री के सहयोगी संघवाद के नज़रिये से देखें तो बीजेपी की सक्रियता हैरान करती है। उपराज्यपाल की अति सक्रियता केंद्र की शह पर हो या बिना शह के लेकिन प्रधानमंत्री के सहयोगी संघवाद के ख़िलाफ़ तो है ही।
एक मुख्यमंत्री अपनी टीम नहीं बनाएगा तो काम कैसे करेगा। उसके अधिकारियों की नियुक्ति और तबादला कोई और करेगा तो क्या चुनाव में उपराज्यपाल जवाबदेही लेंगे। जनता के बीच जाकर कहेंगे कि मुख्यमंत्री की गलती नहीं है क्योंकि अधिकारियों को मैं चला रहा था। जब प्रधानमंत्री अध्यादेश लाकर अपने लिए योग्य अधिकारी की नियुक्ति कर सकते हैं तो दिल्ली सरकार के हित में नियमों को क्यों नहीं बदला जा सकता। भले ही पूर्ण राज्य का दर्जा न देना चाहें मगर एक चुने हुए प्रतिनिधि को अपनी टीम बनाने का बुनियादी अधिकार तो दिया ही जा सकता है। मिलना ही चाहिए।
ग़लती केजरीवाल सरकार से भी हुई है। लोकतंत्र में हर लड़ाई सड़क की नहीं होती। एक अधिकारी पर आरोप लगाकर, एक अधिकारी के कमरे में ताला बंद करना, उपराज्यपाल को एजेंट बताकर नहीं लड़ सकते। वैसे हर दल के मुख्यमंत्री ने राज्यपालों को एजेंट बताया है। उन्हें सड़क से लेकर कोर्ट तक में घसीटा है। इनमें से कई मुख्यमंत्री राजनीति से रिटायर होने के बाद राज्यपाल भी बने हैं! अगर शकुंतला गैमलिन किसी कंपनी की एजेंट हैं तो उनका ऊर्जा सचिव के पद से तबादला क्यों नहीं किया गया जैसे बाकी अधिकारियों का किया गया। दस दिन के लिए हुई नियुक्ति से क्या हो जाता? क्या यह कोई प्लान था कि छुट्टी पर गए मुख्य सचिव वापस ही न आएं और गैमलिन को ही बना दिया जाए। यह सब आशंकाएं हैं जिन्हें सार्वजनिक रूप से मथने पर मट्ठा ही निकलेगा। लस्सी नहीं।
शकुंतला गैमलिन के महिला होने का सवाल बेतुका है। उस लिहाज़ से विदेश सचिव के पद से सुजाता सिंह को प्रधानमंत्री हटा ही नहीं सकते थे जबकि उनके रिटायर होने में सात महीने बाकी थे। तब तो एक महिला के साथ नाइंसाफी का सवाल नहीं जुड़ा था। सुजाता सिंह ने अपना सम्मान बचाने के लिए इस्तीफ़ा दे दिया और आईएएस अधिकारियों के संघ ने बैठक भी नहीं की जैसे इस विवाद के संदर्भ में की। छत्तीसगढ़ के कलेक्टरों को चश्मा पहनने पर नोटिस मिला तब तो ओमेश सैगल ने देर रात तक बैठक नहीं की और सरदार पटेल का कथन नहीं बांचा। एक सवाल और ज़हन में आता है। जब दिल्ली आयोग के अधिकारी आशीष जोशी को हटाया गया तब उपराज्यपाल ने हस्तक्षेप क्यों नहीं किया। तब क्या मुख्यमंत्री ने उपराज्यपाल से मंज़ूरी ली थी। इसलिए दोनों पक्षों को लेकर सतर्कता और समान दूरी बरतनी चाहिए।
आईएएस संघ की बैठक के बाद दिल्ली के पूर्व सचिव ओमेश सहगल का बयान काफी महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। हम उम्मीद करते हैं कि उपराज्यपाल, मुख्यमंत्री और केंद्रीय गृहमंत्री मिलकर काम करेंगे। आईएएस अफ़सर संघ के नेता के तौर पर किसी एक को ग़लत या सही नहीं कहा। जबकि वे साफ-साफ कह सकते थे कि कौन ग़लत है। उन्होंने अधिकारी पर सार्वजनिक आरोप लगाने की निंदा भी की। राष्ट्रपति से मिलने के बाद राजनाथ सिंह ने भी यही कहा कि दोनों पक्ष मिलकर सुलझा लें। उनकी बात का सम्मान कम से कम केंद्र के प्रतिनिधि के तौर पर उपराज्यपाल को करना चाहिए था। उल्टा जंग जी ने पहले के तबादले रद्द कर दिये। मुख्यमंत्री को भी संयम और मर्यादा के साथ इस लड़ाई को जमकर लड़ना चाहिए।
ज़ाहिर है राजनीति हो रही है और लड़ाई भी। लोकतंत्र में कुछ सवाल सैद्धांतिक और कानून के होते हैं जिन्हें बारीकी और सब्र के साथ जनता के बीच रखा जाता है। केजरीवाल सरकार सुप्रीम कोर्ट से नियमों और अधिकारों पर स्पष्टता मांग सकती है। इस मामले में अब यही रास्ता बचा है। राष्ट्रपति के पास यह मामला तो पहुंचा लेकिन वहां से अभी कोई राय नहीं आई है। दोनों पक्षों ने पब्लिक में जितना कहना था कह लिया है। सवाल यह नहीं है कि कौन सही है। बड़ा सवाल है कि क्या सही है। क्या किसी भी व्यवस्था में चुने हुए मुख्यमंत्री के अधिकारी की तैनाती या तबादले का अधिकार केंद्र के नामित प्रतिनिधि का होना चाहिए?
This Article is From May 21, 2015
दिल्ली सरकार बनाम उपराज्यपाल : कौन सही है या क्या सही है
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:मई 21, 2015 10:22 am IST
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Published On मई 21, 2015 00:30 am IST
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Last Updated On मई 21, 2015 10:22 am IST
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