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This Article is From Sep 22, 2015

सुशील महापात्रा की कलम से : रंगीन जमाने की ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरें

Sushil kumar Mahapatra
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    सितंबर 22, 2015 18:42 pm IST
    • Published On सितंबर 22, 2015 17:54 pm IST
    • Last Updated On सितंबर 22, 2015 18:42 pm IST
यह है मेरठ का गांधी आश्रम, सोमवार को अपने प्राइम टाइम शो के शूट के लिए हम इस आश्रम में पहुंचे। जब गांधी के साथ आश्रम जुड़ जाता है तो सब कुछ अलग लगता है। मेरठ का यह आश्रम भी कुछ अलग सा दिखाई दिया। चारों तरह रंगीन इमारतों से घिरी यह पुरानी इमारत अपनी अलग पहचान बनाए है। हम इस आश्रम के अंदर गए तो सोचा पुरानी इमारत में काम करने वाले लोग भी क्या पुराने होंगे? मगर वहां कोई भी दिखाई नहीं दिया। आश्रम में हरे भरे पेड़ हैं जिनमें से एक पेड़ पर बंदर की उछलकूद चल रही थी। मैंने अपने मोबाइल के कैमरे से तस्वीरें  खींचना शुरू कर दीं। लेकिन यह क्या, मेरे मोबाइल का कैमरा अपने आप किसी ऐसे मोड में चला गया जिसमें रंग गायब हो गए और हर फोटो ब्लैक एंड वाइट जैसा  दिखाई दे रहा था। लगा कि शायद मेरा यह कैमरा मुझसे ज्यादा समझदार है। शायद मेरे कैमरा को पता चल गया था कि मेरठ का यह गांधी आश्रम अब रंगीन नहीं रहा। समय के साथ-साथ इस आश्रम का रंग भी उड़ गया है। जो कुछ ब्लैक एंड व्हाइट जमाने के लोग इस आश्रम में खादी के कपड़े बनाने में लगे हुए हैं, वे अपने आपको इस रंगीन दुनिया से अलग रखते हैं। आजकल की रंगीन सोच इन लोगों पर कोई प्रभाव नहीं डाल पाई है। यह बुजुर्ग लोग गांधीजी के उसूलों पर चलते हुए जी रहे हैं। खादी बनाते हैं और खादी ही पहनते हैं। खादी उद्योग को खतरे से बचाने के लिए यह लोग इस आश्रम में काम कर रहे हैं।

मेरठ के गांधी आश्रम में खादी निर्माण में उपयोग की जाने वालीं मशीनें।

पैसे से ज्यादा खादी की खुशबू में सुकून
घूमते-घूमते हम आश्रम के एक कमरे में पहुंच गए। कमरा बहुत बड़ा था और उसके अंदर बड़ी-बड़ी मशीनें लगी थीं,  लेकिन मशीनों को चलाने वाला कोई भी आदमी नजर नहीं आया। समझ भी नहीं आ रहा था कि इन मशीनों को किस काम के लिए इस्तेमाल किया जाता है। जब हमने नजर घुमाई तो हमारे पीछे एक बुजुर्ग आदमी खड़े हुए नजर आए। उनसे हमारी बात हुई। उनका नाम लालचंद है और वह इस आश्रम में करीब 60 साल से काम कर रहे हैं। जब उनकी उम्र 18 साल थी तब से वह इस आश्रम में कार्यरत हैं। रिटायर हो गए हैं लेकिन फिर भी अपना काम नहीं छोड़ा है। उनको लगता है अगर काम छोड़ देंगे तो खादी का कपड़ा बनना बंद हो जाएगा। लालचंद जी को तनख्वाह भी ज्यादा नहीं मिलती। उनको मेहनताने के रूप में रोज 110 रुपये मिलते हैं। वह महीने में 2000 से लेकर 2500 तक कमा लेते हैं। रोज काम भी नहीं मिलता है। अगर काम नहीं, तो पैसा नहीं। लाल चंद जी ने बताया की यह मशीन खादी की डाई के लिए इस्तेमाल होती है। पहले इस विभाग में ज्यादा लोग काम करते थे, लेकिन समय के साथ-साथ सब यह काम छोड़ के चले गए या फिर रिटायर हो गए। नए लोग यह काम करने के लिए तैयार नहीं हैं, लेकिन लाल चंद जी खुशी से काम करते हैं। पैसा कमाना उनका मकसद नहीं, गांधीजी के खादी उद्योग को खतरे से बचाना उनका मकसद है। पैसे से ज्यादा खादी की खुशबू उन्हें पसंद है।
खादी पर छपाई का काम करते हुए सतीश चंद गैरोला।

जमाने को रंग बांटे, खुद की जिंदगी बेरंग
यह सिर्फ लालचंद जी की कहानी नहीं। इस आश्रम में खादी के लिए काम करने वाले हर बुजुर्ग की ऐसी ही कहानी है। घूमते-घूमते हम एक दूसरे कमरे में पहुंच गए। यह कमरा भी बहुत बड़ा है जिसमें काफी सामान रखा दिखा लेकिन काम करने वाले एक ही बुजुर्ग व्यक्ति नजर आए। इस तस्वीर में जो बुजुर्ग  दिखाई दे रहे हैं, इनका नाम सतीश चंद गैरोला है, जो पौड़ी गढ़वाल के रहने वाले हैं। इनका काम है खादी के ऊपर छपाई करना। पचास साल से इस आश्रम में काम कर रहे हैं। इस लंबे अरसे में इन्होंने न जाने कितने लाख कपड़ों पर पर रंग-बिरंगी अलग-अलग डिजाइन की छपाई की होगी। हालांकि रंगों से छपाई के इस पेशे ने इनकी आर्थिक स्थिति पर ऐसी कोई छाप नहीं छोड़ी जिससे इनकी बेरंग जिंदगी में खुशी का रंग घुल सके। इसके बावजूद खादी को बचाने के लिए वह काम कर रहे हैं। 20 साल की उम्र में यहां आ गए थे और तब से खादी के कपड़े बनाने में मदद कर रहे हैं। दस साल बीत गए रिटायर हुए लेकिन फिर भी काम जारी है। रिटायरमेंट के समय 3500 रुपये वेतन मिलता था, अब महीने में करीब 2000 मिलता है।

जब कमाई ही कम हो तो वेतन कैसे ज्यादा मिले
हमने गांधी आश्रम के सचिव पृथ्वी रावत जी से फोन पर बात की। उनसे कई सवाल किए, क्यों लोगों को कम तनख्वाह मिलती है, नए लोग इस धंधे में क्यों नहीं आते हैं, क्या खादी की बिक्री कम हो गई है?...वगैरह...वगैरह... रावत जी का जवाब था कि खादी की बिक्री में पिछले साल से इस साल सात प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। खादी की बिक्री से जो फायदा होता है, उसी में से लोगों को तनख्वाह दी जाती है। सरकार कर्मचारियों के वेतन के लिए कोई मदद नहीं करती है। अगर बिक्री बढ़ेगी तो ज्यादा फायदा होगा और लोगों को ज्यादा वेतन मिल सकेगा। रावत जी का यह भी कहना है कि सरकार सरकारी स्कूलों और ऑफिसों में काम करने वाले लोगों के हफ्ते में एक दिन खादी के कपड़े पहनकर आने का नियम बनाए। इससे खादी की बिक्री बढ़ेगी और खादी बनाने वालों की तनख्वाह भी बढ़ सकेगी।

शूट खत्म होते ही हम आश्रम के बाहर आ गए, ब्लैक एंड व्हाइट दुनिया से रंगीन दुनिया में। अपनी गाड़ी में बैठकर हम दिल्ली के लिए रवाना हो गए। काफी देर तक गांधी आश्रम के दृश्य हमारे दिलो-दिमाग में घूमते रहे। प्रतिबद्धता कितनी बड़ी चीज होती है। गांधी के सिद्धांतों को अपनाए रहने की प्रतिबद्धता...रंगीन जमाने में भी ब्लैक एंड व्हाइट जीवन की सीमाओं में बने रहने की प्रतिबद्धता...।

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