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This Article is From Apr 07, 2017

हमारे भी हैं मेहरबां कैसे-कैसे...!

Chandra Mohan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अप्रैल 07, 2017 14:21 pm IST
    • Published On अप्रैल 07, 2017 14:17 pm IST
    • Last Updated On अप्रैल 07, 2017 14:21 pm IST
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल चाहते हैं कि वित्तमंत्री अरुण जेटली के साथ उनके मुकदमे का पौने चार करोड़ रुपये का बिल दिल्ली की जनता भरे. इसके साथ एक बार फिर हमारे जनप्रतिनिधियों की सार्वजनिक मर्यादा के प्रति आपराधिक लापरवाही का मामला जीवित हो गया है. माल-ए-मुफ्त, दिल-ए-बेरहम...!

अन्ना हजारे के आंदोलन की पैदायश हैं अरविंद केजरीवाल. राजनीतिक शुद्धता तथा ईमानदारी का दम भरते हुए उन्होंने राजनीति में प्रवेश किया था. लोगों को शुरू में उनसे आशा भी बहुत थी, इसीलिए इन्हीं ईवीएम, जिन पर अब वह सवाल उठा रहे हैं, के द्वारा दिल्ली की जनता ने 70 में से 67 सीटें उनकी आम आदमी पार्टी को दी थीं.

लेकिन अरविंद केजरीवाल ने निराश किया. वह आम आदमी से अधिक आम बिगड़े नेता निकले.

मैं मानता हूं - केजरीवाल के खिलाफ़ नाजायज़ पैसा कमाने का कोई आरोप नहीं लगा, लेकिन जनता के पैसे का निजी हित के लिए इस्तेमाल भी तो किसी भ्रष्टाचार से कम नहीं.

मामला अरुण जेटली द्वारा उन पर मानहानि के मुकदमे का है. अदालत में खुद केजरीवाल ने स्वीकार किया है कि यह 'प्राइवेट मामला' है, फिर दिल्ली की जनता वकील राम जेठमलानी का एक करोड़ रुपये का रिटेनर तथा हर पेशी पर 22 लाख रुपये की फीस का बोझ, जो कुल 3.86 करोड़ रुपये बनता है, क्यों उठाए...?

अब जेठमलानी का कहना है कि वह गरीबों से पैसे नहीं लेते और अगर केजरीवाल 'गरीब' हैं तो वह उनसे इस केस के पैसे नहीं लेंगे. वैसे उनके 'गरीबों' की श्रेणी में लालू यादव भी आते हैं, जिनका केस उन्होंने मुफ्त लड़ा था. उन्होंने यह भी बताया कि वह यह केस मुफ्त में ही लड़ना चाहते थे, लेकिन अरविंद केजरीवाल ने ही कहा - आप हमें बिल भेजें.

अगर अपनी जेब से पैसा जाना होता, तो केजरीवाल तत्काल जेठमलानी की पेशकश स्वीकार कर लेते, लेकिन क्योंकि इरादा सरकारी खज़ाने के इस्तेमाल का था, इसलिए कहा - नहीं, हम बिल देंगे. जिसके बाद मनीष सिसोदिया ने विभाग को आदेश दिया कि एक दिन में अदायगी कर दी जाए. वह नहीं चाहते थे कि मामला उपराज्यपाल, यानी एलजी के पास पहुंचे. उनका दुर्भाग्य है कि मामला वहीं पहुंच गया है और अब बड़ा विवाद खड़ा हो गया है.

दिलचस्प है कि केजरीवाल, जिनकी हर मामले पर राय होती है, इस मामले पर खामोश हैं. न ही वह कह रहे हैं कि 'लोग ऐसा चाहते हैं', 'मैंने सुना है', 'मुझे बताया गया है'... लेकिन इस तरह परोक्ष आरोप लगाकर वह उस संस्था की विश्वसनीयता खत्म करने की कोशिश कर रहे हैं, जिसके कामकाज पर देश गर्व कर सकता है. मेरा अभिप्राय चुनाव आयोग से है. गुलाम नबी आजाद भी अब ईवीएम पर संदेह कर रहे हैं. तो क्या पंजाब में भी दोबारा चुनाव होने चाहिए...?

असली शिकायत हमारे नेताओं की मानसिकता से है. वे जनसेवक नहीं रहे. मुफ्तखोर हो गए. उनका अपना हित सार्वजनिक हित से ऊपर रहता है. इसके लिए वे अपने पद का दुरुपयोग करने में हिचकते नहीं. लेकिन कभी-कभी खज़ाने में हाथ डालते वक्त अरविंद केजरीवाल की तरह पकड़े जाते हैं या अपनी चप्पल का इस्तेमाल करते वक्त रवींद्र गायकवाड़ की तरह हवाई जहाज से उतार दिए जाते हैं.

मुझे अरविंद केजरीवाल या रवींद्र गायकवाड़ में अधिक अंतर नज़र नहीं आता. जनप्रतिनिधि होते हुए भी यह खुद को जनता से ऊपर समझते हैं. अफसोस यह है कि वीआईपी संस्कृति, जो देश की जनता पर बहुत बड़ा बोझ है, के खिलाफ सबसे ऊंची आवाज़ पहले 'आप' ने ही उठाई थी, लेकिन इसी के नीचे उन्होंने अपना पौने चार करोड़ रुपये का बिल जनता को थमा दिया, लेकिन दबंग हैं.

यही मानसिकता रवींद्र गायकवाड़ की है. वह भी दबंग हैं. चप्पल से उन्होंने एयर इंडिया के अधिकारी को पीट डाला और गर्व से माना कि '25 बार पीटा है...' हमने इन्हें इतना सिर पर चढ़ा रखा है कि वह सोचते हैं कि किसी की इनके आचरण पर सवाल करने की जुर्रत कैसे हो गई...?

'तुम जानते नहीं, मैं कौन हूं...?' - यह संस्कृति इस देश में फैल गई है. बहुत कम जनप्रतिनिधियों में शालीनता या नम्रता या मर्यादा रह गई है. जब कोई सरकारी एजेंसी उनके खिलाफ कार्रवाई करती है, तत्काल कह दिया जाता है कि राजनीतिक बदला लिया जा रहा है.

उमा भारती का कहना है कि वह मंत्रियों के लिए वीआईपी कल्चर पूरी तरह खत्म करने के खिलाफ हैं. मंत्री जब ज़रूरी काम के लिए जा रहे हों, तो लाल बत्ती लगी होनी चाहिए. लेकिन दुनिया के अधिकतर देशों में तो ऐसा नहीं है. ब्रिटेन में कई मंत्री अंडरग्राउंड ट्रेन से आते-जाते हैं. वे भी तो काम करते हैं. जब नई पंजाब सरकार ने लाल बत्ती बंद करने का आदेश निकाला, तो कई मंत्रियों और विधायकों ने इसका विरोध किया. एक विधायक का कहना था कि 'वी हैव अर्न्ड इट', अर्थात् हमने यह अर्जित किया है.

...और हम समझते रहे कि इन्होंने हमारी सेवा करने का सौभाग्य 'अर्न' किया है...!

बराक ओबामा जब रिटायर हुए तो व्हाइट हाउस से निकलकर किराये के मकान में चले गए. किराया वह खुद देते हैं. यही परम्परा ब्रिटेन में है, जहां डेविड कैमरन पद छोड़ने के साथ ही 10, डाउनिंग स्ट्रीट का बंगला छोड़ गए और किराये के मकान में पहुंच गए. किराया वह भी खुद ही देते हैं. लेकिन यहां जब राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री 'पूर्व' होते हैं, तो उन्हें एक सरकारी बंगले से निकालकर एक और सरकारी बंगले में सुसज्जित कर दिया जाता है. उनका ताज़िन्दगी खर्चा करदाता उठाता है.

सार्वजनिक कल्याण और शुचिता के प्रति यह जो लापरवाह रवैया है, वही 'चप्पल-मार' सांसद और 3.86 करोड़ रुपये के बिल पैदा करता है. कल को अगर अरविंद केजरीवाल यह मुकदमा हार जाते हैं, तो क्या 10 करोड़ रुपये का जुर्माना भी दिल्ली की जनता ही उठाएगी...?

केजरीवाल का दिल्ली की जनता को यह संदेश लगता है कि बिजली का बिल मत दो. पानी का बिल मत दो, लेकिन मेरे वकील का बिल देना नहीं भूलना...!

चंद्रमोहन वरिष्ठ पत्रकार, ब्लॉगर और कॉलम लेखक हैं...

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