1968 के बारे में बहुत सारे लोगों को ज्यादा पता नहीं है लेकिन ये आदर्शवादी विचारधारा का आदर्श दौर था. इस दौर में अन्याय का विरोध रोमांचक तरीके से युवाओं ने किया. ये कहना है प्रसिद्ध इतिहासकार दिलीप सिमियन का है. 1968 के पचास साल पूरा होने पर इतिहासकार दिलीप सिमियन जनज्वार वेबसाइट के एक कार्यक्रम में बोल रहे थे. उन्होंने कहा कि 1968 में ही चेग्वारा को मारा गया, प्राग स्प्रिंग की शुरुआत हुई, साम्यवादी ताकतों को हराने के नाम पर अमरीका ने वियतनाम वार की शुरुआत की, चीन में जन आंदोलन शुरू हुआ, फ्रांस में छात्रों के सशक्त आंदोलन की नींव पड़ी. 1968 में मार्टिन लूथर किंग की हत्या और फिर अश्वेतों का आंदोलन, भारत में नक्सलबाड़ी आंदोलन और बांग्लादेश में फौजी ताकतों के खिलाफ बंगालियों का एकजुट होना. दुनियी भर में कई घटनाएं एक साथ हो रही थीं. लेकिन 1968 के इतने सारे आंदोलनों का केंद्र बिंदु वियतनाम वार के अमरीकी टेट ओफेंसिव ऑपरेशन को कहा जा सकता है जिसके फोटो ने पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया.
इतिहासकार दिलीप सिमियन का कहना है कि उनके जैसे लोगों का मानना था कि पश्चिमी जगत में क्रांति नहीं हो सकती थी लेकिन 1968 में फ्रांस में एक करोड़ से ज्यादा छात्र मजदूरों के आंदोलन ने उनकी सोच के लिए भी एक चुनौती खड़ी कर दी थी. हालांकि इस आंदोलन के पीछे द्वितीय विश्व युद्ध के बाद शिक्षा के क्षेत्र में हो रही तरक्की और नई विचारधारा थी. छात्रों और मजदूरों के बीच काफी समन्वय था. पेरिस के एक यूनिवर्सिटी में छात्रों ने पाठ्यक्रम के बदलाव पर कई सारी थोपी गई पाबंदियों के खिलाफ दो मई 1968 को आंदोलन शुरू कर दिया था. दो दिन में लाखों लोग फ्रांस की सड़कों पर आ गए.
दिलीप सिमियन बताते हैं कि बीते सौ साल में दुनिया में चार प्रमुख घटनाएं घटी हैं. पहला 1917 में बोल्शेविक क्रांति हुई जिसने पूंजीवादी सत्ता का अंत किया. दूसरा जो दुनिया के लिए काला इतिहास है यानी 1939 का द्वितीय विश्वयुद्ध जिसका केंद्र बिंदु नस्लवाद था जिसके नाम पर लाखों यहूदियों को मौत के घाट उतार दिया गया. तीसरा 1945 का साल जब दूसरा महायुद्ध खत्म हुआ, यूनाइटेड नेशन की स्थापना हुई और भी दुनिया में कई सुधारात्मक कदम उठाए गए. चौथा 1968 जो आदर्शवादी विचारधारा का आदर्श वक्त था.
इतिहासकार दिलीप सिमियन कहते हैं कि 1968 का भावी राजनीति और दुनिया पर इसका प्रभाव किस तरह पड़ा ये कहना मुश्किल है लेकिन इसने हमें ये जरूर सिखाया कि सत्य को हमेशा सिद्धांतों से ऊपर रखना चाहिए. उन्होंने इसके पीछे तर्क दिया कि सत्तर के दशक में उनके जैसे बहुत सारे छात्र नक्सलबाड़ी आंदोलन से जुड़े थे जिन्हें ये बताया गया कि बांग्लादेश में पाकिस्तान जनरल याहिया प्रक्रियावादियों के खिलाफ लड़ाई लड़ रहा है. इस लड़ाई में चूंकि पाकिस्तान की मदद चीन कर रहा था, चीन में साम्यवादी सरकार थी, तो हमें क्रांतिकारी याहिया का साथ देने को कहा गया. लेकिन जब हमने देखा कि वहां गरीब मजदूर बंगालियों को पाकिस्तानी सेना मार रही है तो हमने सच को सिद्धांतों से ऊपर रखकर जनरल याहिया को क्रांतिकारी मानने से इंकार कर दिया.
उन्होंने कहा कि सिद्धांतों में हमेशा लचक की गुंजाइश रखनी चाहिए ताकि सत्य को देखकर या एक दूसरे से चर्चा करके उसमें संशोधन किया जा सके. आज के इस दौर में लोग अपने अपने सिद्धांतों को लेकर इतने कट्टर हो गए हैं कि दूसरे के तर्क को लोग सुनना ही नहीं चाहते हैं. इसलिए कई सारी जटिलतांए पैदा होती हैं. 1968 के कई आंदोलन शायद हमें यही सिखाते हैं कि हमें ज्यादा से ज्यादा सत्यशोधक होने की जरुरत है.
रवीश रंजन शुक्ला एनडटीवी इंडिया में रिपोर्टर हैं.
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This Article is From May 27, 2018
आखिर इतना खास क्यों है 1968 का साल
Ravish Ranjan Shukla
- ब्लॉग,
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Updated:मई 27, 2018 16:46 pm IST
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Published On मई 27, 2018 12:52 pm IST
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Last Updated On मई 27, 2018 16:46 pm IST
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