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क्यों खो गई इंकलाब की वो आवाज, क्या कमजोर पड़ गई हैं ट्रेड यूनियनें

Ravindra Patwal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 09, 2025 17:00 pm IST
    • Published On जुलाई 09, 2025 12:42 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 09, 2025 17:00 pm IST
क्यों खो गई इंकलाब की वो आवाज, क्या कमजोर पड़ गई हैं ट्रेड यूनियनें

देश की 10 केंद्रीय ट्रेड यूनियनों ने नौ जुलाई को 'भारत बंद' का आह्वान किया है. इस 'भारत बंद' को संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) जैसे किसान संगठनों और ग्रामीण श्रमिक संगठनों का भी समर्थन हासिल है. इसी दिन राष्ट्रीय जनता दल के नेतृत्व वाले महागठबंधन ने भी बिहार में हो रहे वोटर लिस्ट के सघन पुनरीक्षण (एसआईआर) के खिलाफ चक्काजाम की घोषणा की है. इस बंद से बैंकिंग और बीमा क्षेत्र, डाक, परिवहन, दूरसंचार, रेलवे कर्मचारी, कोयला सहित अन्य खदानें, इस्पात उद्योग, कंस्ट्रक्शन वर्कर्स, बीड़ी कर्मचारी, आंगनवाड़ी, आशा, मिड-डे मील वर्कर्स, घरेलू सहायिका, रेहड़ी-पटरी और ऑटो-टैक्सी सेवाओं पर असर पड़ने की संभावना है.  

क्यों बुलाया गया है भारत बंद 

केंद्र की एनडीए सरकार ने 2019-2020 के बीच 29 केंद्रीय श्रम कानूनों को सरलीकृत ढांचे में लाने का दावा कर चार श्रम संहिताओं में समेकित किया. लेकिन ट्रेड यूनियनों का कहना है कि इनके जरिए श्रमिकों के अधिकारों के बजाय कॉर्पोरेट हितों को तरजीह दी जा रही है. ट्रेड यूनियन के अधिकारों में भारी कटौती हुई है और हड़ताल के लिए 60 दिन की पूर्व-सूचना और कुछ मामलों में तो बिना पूर्व समझौते के हड़ताल पर जाने पर रोक है. उद्योगों में व्यापक छंटनी या बंदी के लिए पहले 100 मजदूरों से अधिक संख्या वाले उद्यमों को सरकार से अनुमति लेने की जरूरत पड़ती थी. इसे अब बढ़ाकर 300 कर दिया गया है. इसी प्रकार श्रमिक यूनियन को मान्यता देने की सीमा को 10 फीसदी से बढ़ाकर 20 फीसदी कर दिया गया है. इससे श्रमिकों के लिए यूनियन का गठन करना चुनौती बन गया है.

देश में 1990 के दशक में शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण से निजीकरण को बढ़ावा मिला है. ट्रेड यूनियनों का मानना है कि इस प्रकिया से स्थायी नौकरियां बड़े पैमाने पर कम हुई हैं. इससे सार्वजनिक उत्तरदायिता कमजोर हुई है. बढ़ती बेरोजगारी, सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र में रिक्तियों के बाद भी भर्तियों में कमी, सरकारी स्कूलों में तालाबंदी और बिजली वितरण के निजीकरण की पहल जैसे मुद्दे मजदूरों और आम लोगों के बीच में चर्चा का विषय हैं. 

भारत बंद के दौरान ओडिशा के एक रेलवे स्टेशन पर पटरी पर जाम लगाते आंदोलनकारी.

भारत बंद के दौरान ओडिशा के एक रेलवे स्टेशन पर पटरी पर जाम लगाते आंदोलनकारी.

संगठित श्रमिक और कर्मचारी काफी समय से ओल्ड पेंशन स्कीम को बहाल करने की मांग कर रहे हैं. उनका कहना है कि नई पेंशन स्कीम और यूनिफाइड पेंशन स्कीम (यूपीएस) सम्मानजनक सेवानिवृत्ति के लिए अपर्याप्त हैं. वहीं पिछले तीन दशक से संविदा पर रोजगार का दायरा बढ़ता जा रहा है. मजदूर संगठन संविदा रोजगार को खत्म करने और प्रति माह न्यूनतम 26 हजार रुपये वेतन लागू करने और गिग वर्कर्स, घरेलू श्रमिकों और खेतिहर मजदूरों जैसे अनौपचारिक श्रमिकों के लिए भी सामाजिक सुरक्षा को सुनिश्चित करने की मांग कर रहे हैं. इन्हीं सब मांगों को लेकर यह बंद बुलाया गया है.

ट्रेड यूनियनों की नाराजगी के केंद्र में पिछले वर्ष श्रम मंत्री मनसुख मंडाविया को सौंपे गये 17 मांगों का एक चार्टर है. श्रमिक संगठनों का कहना है कि सरकार ने इन मांगों को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया है. पिछले एक दशक से वह वार्षिक श्रम सम्मेलन आयोजित करने में विफल रही है. उनका कहना है कि सरकार का यह रवैया श्रम बल के प्रति उसकी उपेक्षा को दर्शाता है.

'भारत बंद' से बैंकिंग, बिजली, परिवहन और डाक सेवाओं में व्यवधान आने की संभावना है. हालांकि, नीतिगत परिवर्तनों को हासिल करने में इसकी प्रभावशीलता निरंतर लामबंदी, आम जनता के समर्थन और सरकार द्वारा वार्ता की मेज पर आने की इच्छा पर निर्भर करती है. हालांकि 'भारत बंद' से सरकार श्रम संहिताओं को फौरन निरस्त नहीं करने जा रही है या निजीकरण की प्रक्रिया को रोका नहीं जा सकता है, लेकिन यह श्रमिकों और किसानों के मुद्दों को राष्ट्रीय पटल पर रखने का काम करेगा. इससे सरकार और श्रमिक हितों के बीच बातचीत का मंच तैयार हो सकता है. 

भारत बंद के दौरान बिहार के महागठबंधन की ओर से आयोजित चक्काजाम में शामिल होते कांग्रेस नेता राहुल गांधी और अन्य नेता.

भारत बंद के दौरान बिहार के महागठबंधन की ओर से आयोजित चक्काजाम में शामिल होते कांग्रेस नेता राहुल गांधी और अन्य नेता.

ट्रेड यूनियन आंदोलन का घटता प्रभाव 

भारत में ट्रेड यूनियन आंदोलन का इतिहास स्वतंत्रता आंदोलन के दौर से रहा है. आजादी के बाद सार्वजनिक क्षेत्र में पूंजी निवेश और उद्योगों ने श्रमिकों के पक्ष को सामने लाने की जरूरत को बल दिया. 70-80 के दशक को रेलवे में हुई हड़ताल और मुंबई की टेक्सटाइल मिलों की ऐतिहासिक हड़ताल के लिए जाना जाता है. लेकिन 90 के दशक में वैश्वीकरण और उदारीकरण से भारत में हुए विदेशी पूंजी निवेश से ऑटोमोबाइल और आईटी क्षेत्र में हुए तेज विकास ने मध्य वर्ग के लिए  संभावनाओं के नए द्वार खोल दिए. 

इसने केंद्र की करीब सभी सरकारों के लिए नए मानदंड स्थापित कर दिए. यह मान लिया गया कि भारतीय अर्थव्यस्था के तीव्र विकास के लिए हर क्षेत्र में निजी पूंजी निवेश को प्रोत्साहन देना ही सही नीति है. कई अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल को 'जॉबलेस ग्रोथ' नाम देते हैं, यानि यूपीए काल में आर्थिक विकास तो तेजी से हुआ लेकिन रोजगार सृजन के बगैर. मौजूदा मोदी शासनकाल को प्रोफेसर अरुण कुमार जैसे अर्थशास्त्री 'जॉबलास ग्रोथ' की संज्ञा देते हैं, जिसका अर्थ है जीडीपी वृद्धि तो हो रही है, लेकिन नौकरियां बढ़ने या स्थिर रहने की बजाय घटती जा रही हैं.      

वास्तविकता में देखें तो हाल के दशकों में ट्रेड यूनियन आंदोलन लगातार कमजोर हुआ है. अधिकांश सेंट्रल ट्रेड यूनियनों का कार्यक्षेत्र सार्वजनिक एवं संगठित क्षेत्र तक सीमित है. ये वे क्षेत्र हैं, जहां पहले से श्रमिक संगठन कार्यरत हैं और श्रमिकों के न्यूनतम हितों की गारंटी को सुनिश्चित किया गया है. लेकिन पिछले कुछ दशकों से इन क्षेत्रों में भी अनुबंध पर नियुक्तियों ने ट्रेड यूनियनों की मोलभाव की ताकत को काफी हद तक कमजोर कर दिया है. 

भारत बंद के दौरान कोलकाता के जादवपुर विश्वविद्यालय के बाहर प्रदर्शन करते आंदोलनकारी.

भारत बंद के दौरान कोलकाता के जादवपुर विश्वविद्यालय के बाहर प्रदर्शन करते आंदोलनकारी.

असंगठित कामगार और यूनियनों का अभाव

वहीं दूसरी ओर, 2016 में नोटबंदी और जीएसटी की शुरुआत ने बड़े पैमाने पर छोटे और लघु उद्यमों को पहले ही हाशिए पर डाल दिया था. इसे कोरोना महामारी ने पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया, जबकि अधिकांश रोजगार सृजन की संभावना इसी क्षेत्र में है. वहीं दूसरी ओर, बिग कॉर्पोरेट मोनोपली या डुओपोली के तहत कम उत्पादन के बावजूद भारी मुनाफा कमाने की स्थिति में बने हुए हैं. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा कॉर्पोरेट टैक्स में भारी छूट और भारी मुनाफे पर बैठे होने के बावजूद कॉर्पोरेट द्वारा नए पूंजी निवेश से बचने के पीछे अर्थव्यस्था में मांग के संकट को देखा जा रहा है. आज भारतीय अर्थव्यस्था एक ऐसे दोराहे पर खड़ी है, जिसमें व्यापक उपभोक्ता वर्ग के पास क्रय शक्ति का अभाव है, वहीं दूसरी तरफ कॉर्पोरेट अपने मुनाफे को उद्योग-धंधों को बढ़ाने में लगाने के बजाय शेयर, बांड मार्केट या रियल एस्टेट में लगा रहा है.

ट्रेड यूनियन मूवमेंट को गिग इकॉनमी, फ्रीलांसिंग सेवा और स्टार्टअप इकॉनमी ने और भी ज्यादा प्रभावित करने का काम किया है. अनुबंध श्रमिकों को अक्सर थर्ड पार्टी एजेंसियों के माध्यम से नियुक्त किया जाता है, जिसके कारण ऐसे रोजगार में असुरक्षा और यूनियन के तहत मोलभाव की ताकत नहीं होती. भारत में करीब 86 फीसदी रोजगार असंगठित क्षेत्र में है, जो बताता है कि वास्तव में आम श्रमिकों की क्या दशा है. पिछले कुछ सालों से गिग इकॉनमी में बूम देखा जा रहा है. इसमें श्रमिकों को गिग वर्कर्स कहा जाता है, जैसे, स्विगी, जोमैटो के लिए डिलीवरी राइडर्स या उबर,ओला के लिए ऑटो या टैक्सी ड्राइवर. देश में गिग वर्कर्स की संख्या करीब 90 लाख है, जो पूरी तरह से विकेंद्रीकृत, ऐप-आधारित टास्क को पूरा करने पर अपना मेहनताना पाने के हकदार होते हैं. श्रमिक वर्ग का यह हिस्सा श्रमिक अधिकारों के न्यूनतम सुरक्षा से भी वंचित है और पूरी तरह से दूर बैठे नियोक्ता पर निर्भर है.

देश में करीब 90 लाख गिग वर्कर हैं. इन गिग वर्करों को न्यूनतम सामाजिक सुरक्षा भी नहीं मिलती है.

देश में करीब 90 लाख गिग वर्कर हैं. इन गिग वर्करों को न्यूनतम सामाजिक सुरक्षा भी नहीं मिलती है.

आंदोलनों को कमजोर करती तकनीक

इस 'भारत बंद' को संगठित श्रमिक संघों के अलावा किसान संगठनों ने भी समर्थन दिया है, जिन्हें अर्थव्यस्था के वैश्वीकरण और पश्चिम पर बढ़ती निर्भरता ने लगातार कमजोर ही किया है. इसे नवंबर 2020 और मार्च 2022 में हुए 'भारत बंद' में भी महसूस किया गया. 'भारत बंद' का प्रभाव कम पड़ने का बड़ा श्रेय बैंकिंग-बीमा और डाक सेवा क्षेत्र में तकनीकी क्रांति को जाता है. इसने ग्राहकों को बैंक जाने और भुगतान लेने या जमा करने की जरूरत को काफी हद तक खत्म कर दिया है. नतीजा, देशव्यापी बंद के आह्वान के बावजूद अब आम लोगों के रोजमर्रा के कार्यों और लेन-देन पर शायद ही कोई असर पड़ता है. इन सबके बावजूद 'भारत बंद' का आह्वान ट्रेड यूनियनों की लंबित मांगों और लगातार उपेक्षा से उपजे आक्रोश को दर्शाता है. यह बताता है कि विकसित भारत के लिए जीडीपी विकास दर के साथ-साथ समग्र विकास को भी तरजीह देनी होगी. 

अस्वीकरण: लेखक वरीष्ठ पत्रकार हैं. वो सम सामयिक राजनीतिक, आर्थिक और पर्यावरण से जुड़े विषयों पर लिखते हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.

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