2019 के लोकसभा चुनाव से पहले 'बड़े भाई' पर तक़रार...

2014 में मोदी के नाम पर नीतीश राज़ी नहीं थे लिहाज़ा वे अलग लड़े. बीजेपी ने रामविलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा को लेकर चुनाव लड़ा और मोदी के नाम पर बड़ी कामयाबी पाई.

2019 के लोकसभा चुनाव से पहले 'बड़े भाई' पर तक़रार...

मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार के साथ सुशील कुमार मोदी (फाइल फोटो)

कैराना, गोरखपुर और फूलपुर की हार के बाद अब बीजेपी को उसके सहयोगी दलों ने आंखें दिखाना शुरू कर दिया है. जो सहयोगी दल राज्यों में ताकत में हैं वे चाहते हैं कि बीजेपी वहां छोटा भाई बन कर रहे. शिवसेना और बीजेपी के बीच बड़े भाई-छोटे भाई का झगड़ा तो 2014 से चला आ रहा है, लेकिन अब बिहार में नीतीश कुमार की पार्टी के साथ भी बीजेपी की इसी बात पर रस्साकशी शुरू हो गई है. यह झगड़ा इसलिए क्योंकि 2019 के लोकसभा चुनाव में ये सारे भाई मिल कर तो चुनाव लड़ेंगे पर यह इस बात पर निर्भर करेगा कि बड़ा भाई कौन होगा ताकि ज्‍यादा से ज्यादा सीटों पर वह चुनाव लड़ सकें. वैसे शिवसेना ऐलान कर चुकी है कि 2019 का चुनाव वह अकेले लड़ेगी, लेकिन पालघर की हार के बाद शायद शिवसेना भी दोबारा इस बात पर सोचे. बीजेपी भी चाहेगी कि शिवसेना साथ रहे ताकि कांग्रेस-एनसीपी को टक्कर दी जा सके. लेकिन सवाल यही है कि जब विधानसभा में सीटों का बंटवारा इसी बात पर नहीं हो सका कि बड़ा भाई कौन होगा यानी किसे ज्यादा सीटें मिलेंगी तो फिर 19 में बात कैसे बनेगी. बिहार की बात करें तो वहां भी बीजेपी के लिए सिरदर्द बड़ा है.

2014 में मोदी के नाम पर नीतीश राज़ी नहीं थे लिहाज़ा वे अलग लड़े. बीजेपी ने रामविलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा को लेकर चुनाव लड़ा और मोदी के नाम पर बड़ी कामयाबी पाई. अब यही कामयाबी 2019 में उसके लिए चुनौती है. क्योंकि नीतीश को तब सिर्फ दो सीटें हाथ आईं जबकि बीजेपी और सहयोगी 31 सीटें जीत गए. जबकि 2009 में बीजेपी और जेडीयू साथ मिल कर चुनाव लड़े थे. तब बीजेपी ने 12 और जेडीयू ने 20 सीटें जीती थीं. अब बीजेपी के साथ वापस आने के बाद नीतीश कुमार की पार्टी उनके बड़े भाई की भूमिका वापस चाहती है. यानी वो घड़ी की सुइयां 2009 में वापस घुमाना चाहती हैं. रविवार रात को जेडीयू की बैठक के बाद पुराने फार्मूले की याद दिलाई गई जिसमें जेडीयू 25 और बीजेपी 15 पर लड़ती थी. हालांकि नए सहयोगियों को साथ लेने की बात भी कही गई. लेकिन जेडीयू ने यह साफ कर दिया कि बड़े भाई नीतीश ही हैं.

जेडीयू के इस रुख से पासवान भी चौकन्ने हो गए हैं. उन्होंने रविवार को अपने बेटे चिराग पासवान के साथ बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह से मुलाकात की. उनकी पार्टी चाहती है कि वो 2014 की ही तरह सात सीटों पर लड़े. उधर, उपेंद्र कुशवाहा भी चाहते हैं कि सीटों का बंटवारा जल्दी से जल्दी हो. ज़ाहिर है वे भी नहीं चाहते कि उनकी सीटों में कोई कमी हो. वैसे भी उनकी पटरी नीतीश कुमार के साथ नहीं बैठती. नीतीश के बीजेपी के साथ वापस आने के बाद उनके कार्यक्रमों में आरजेडी नेता देखे जा रहे हैं.

तो सवाल है कि आखिर गठबंधन को बचाए रखने के लिए सीटों का बलिदान कौन देगा? जो बीजेपी 21 सीटें जीती क्या वो कदम पीछे खीचेंगी? क्या नीतीश कुमार को बड़ा भाई मानेगी? बीजेपी के भीतर नीतीश कुमार के कट्टर समर्थक माने जाने वाले सुशील मोदी कहते हैं कि 'देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं लेकिन बिहार में तो नेता नीतीश कुमार हैं ही. एनडीए दोनों नेताओं के काम के आधार पर वोट मांगेगा.' वे आगे कहते हैं कि 'जब दिल मिल गए हैं तो सीटों को लेकर बैठ कर बातचीत हो जाएगी.' वे कहते हैं कि 'बिहार में बीजेपी, जेडीयू, लोक जनशक्ति पार्टी और राष्ट्रीय लोक समता पार्टी सब मिल कर चुनाव लड़ेंगे.'

तो बिहार की जनता से एनडीए क्या मोदी और नीतीश दोनों के नाम पर वोट मांगेगा? हालांकि इसमें कोई विचित्र बात नहीं क्योंकि 2014 में पंजाब-महाराष्ट्र में एनडीए के साझा प्रचार में चाहे प्रकाश सिंह बादल और उद्धव ठाकरे के नाम और चेहरे रहे हों लेकिन चुनाव मोदी के नाम पर ही लड़ा गया था. दरअसल, क्षेत्रीय पार्टियों की सारी पैंतरेबाजी इसी बात पर है कि ज्यादा से ज्यादा सीटों पर लड़ने का मौका मिले ताकि 2019 में चुनाव के बाद किसी एक दल को बहुमत न मिलने पर अपने विकल्प खुले रखे जा सकें. अब बीजेपी ने सात जून को पटना में एनडीए की बैठक बुलाई है. इसमें बिहार से जुड़े मुद्दों पर चर्चा की जाएगी. नीतीश बिहार को विशेष राज्य के दर्जे का मुद्दा जिंदा रखना चाहते हैं. लेकिन हकीकत यह है कि यह बिहार को नहीं मिल सकता. तो ऐसे में नीतीश के लिए क्या रास्ता हो सकता है? पासवान और नीतीश की करीबी क्या रंग लाएगी? और बिहार में बड़ा भाई कौन है? यह भी कहा जा रहा है कि जल्दी ही मोदी मंत्रिमंडल का विस्तार हो जो कि अगले लोकसभा चुनाव से पहले का शायद अंतिम मंत्रिमंडल विस्तार हो. ऐसे में अभी तक सत्ता में हिस्सेदारी से दूर जेडीयू इसमें शामिल होने के लिए दबाव बना रही हो. लेकिन यह बात जरूर है कि बिहार में एनडीए का भविष्य काफी हद तक इस बात को तय कर देगा कि 2019 में एनडीए के लिए क्या तस्वीर बनेगी.

(अखिलेश शर्मा एनडीटीवी इंडिया के राजनीतिक संपादक हैं)

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