भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (IIT) में अंडरग्रेजुएट पाठ्यक्रमों का फोकस विज्ञान तथा इंजीनियरिंग की परम्परागत शाखाओं की पढ़ाई परम्परागत तरीके से ही देने पर रहता है, जबकि दुनिया ऑटोमेशन, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) तथा असॉर्टेड डिजिटल तकनीकों के साथ बहुआयामी होती जा रही है. परम्परागत उत्पादन में भी तेज़ी से बदलाव हो रहे हैं, रूटीन वस्तुओं का उत्पादन रोबोटिक असेम्बली लाइनों (अब तो 3डी प्रिंटिंग से भी) के ज़रिये किया जा रहा है, जिन पर निगरानी रखने की ज़रूरत बेहद कम हो गई है. कैमिकल संयंत्रों को भी कम कर्मियों की ज़रूरत है, क्योंकि सेंसर और इंटरनेट से जुड़ी तकनीकों को काम पर लगा दिया गया है. निर्माण क्षेत्र में भी इसी तरह के प्रभाव देखे जा सकते हैं. कुल मिलाकर, परम्परागत इंजीनियरिंग से जुड़े रोज़गारों में कमी देखी जा रही है. क्लाउड और ऐप्स के बूते चलने वाला तकनीक के वर्चस्व वाले युग में कम्प्यूटर विज्ञानियों और ऑपरेटरों की ज़रूरत है, और इसके अलावा बहुत कम चीज़ें परम्परागत रह गई हैं. कभी-कभार वास्तव में होने वाले नवोन्मेष, जैसे कोई नया डिज़ाइन या नया उत्पाद, को भी सोचने और विकसित करने के लिए बहुत कम लोगों की ज़रूरत रह गई है. यह माहौल विज्ञान तथा इंजीनियरिंग की कक्षाओं - कम्प्यूटर विज्ञान या इंजीनियरिंग या कुछ हद तक इलेक्ट्रिकल या इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियरिंग को छोड़कर - में आ गए संकट को साफ दिखाता है.
इस परिदृश्य में IIT का कोई इंजीनियर कहां फिट होता है...? पहले साल के दौरान, जब विद्यार्थी अक्रियाशीलता से जूझ रहे होते हैं, और वे JEE के आधार पर हासिल हुई शाखा की 'अप्रासंगिकता' के बारे में भी सीखना शुरू करते हैं - कोर (इंजीनियरिंग शाखाओं) में कम प्लेसमेंट अवसरों के बारे में, कोडिंग और एनैलेटिक्स की तुलना में कम वेतन के बारे में, और उन कुछ साथियों के बारे में, जिन्हें तकनीकी कंपनियों में बड़ी-बड़ी तनख्वाहें मिलने वाली हैं. विद्यार्थी उन आकर्षक संभावनाओं से भी परिचित होते हैं, जहां वे स्टार्टअप के ज़रिये 'बहुत-सा पैसा' बना सकते हैं, क्योंकि IIT ग्रेजुएटों को नौकरियां तलाशने की जगह नियोक्ता बन जाने की शानदार कहानियां सुनने को मिल ही रही हैं. बेशक, इन स्टार्टअप की तकनीकी क्वालिटी के बारे में, उनकी नकल की प्रवृत्ति (आप टमाटर बेचते हैं, हम प्याज़ बेचेंगे) या रूटीन ऐप-आधारित सेवाप्रदाताओं, ऑनलाइन विक्रेताओं वगैरह के वर्चस्व के बारे में ज़्यादा कुछ नहीं बताया जाता है, जिनमें से बेहद कम का ही जन्म किसी नए आइडिया के तहत हुआ है. कितनी बार ऐसा हो पाता है, जब किसी कामयाब, विश्वस्तरीय उत्पाद का कोई संबंध IIT की शिक्षा से मिली तकनीकी जानकारी से होता है...?
आमतौर पर जो संदेश विद्यार्थी समझ पाते हैं, वह यही है कि परम्परागत शाखाओं में हासिल किया गया ज्ञान बहुत प्रासंगिक नहीं है - और प्रवेश के समय मौजूद अक्रियाशीलता या नाकाबिलियत बरकरार रह जाती है. शैक्षणिक कार्यों के प्रति विद्यार्थी कतई निर्लिप्त, और कभी-कभी प्रतिरोधी हो जाते हैं, और कुछ मामलों में तो वे स्थायी रूप से आलस की गोद में चले जाते हैं, और इनमें से ज़्यादा ऊर्जावान विद्यार्थी वैकल्पिक रुचियां पैदा कर लेते हैं - जैसे, पर्सनैलिटी डेवलपमेंट (नेतृत्व, उत्तरदायित्व वाले पद), एक्स्ट्रा करिकुलर गतिविधियां (खेल, संगीत, थिएटर), व्यवसाय, वित्तीय प्रबंधन गतिविधियां (क्लब, ऑनलाइन कोर्स) आदि. कुछ विद्यार्थी यह नतीजा तक निकाल लेते हैं कि विज्ञान तथा इंजीनियरिंग इतनी मेहनत किए जाने योग्य नहीं हैं.
विद्यार्थियों से की गई बातचीत, विद्यार्थियों के सार्वजनिक ब्लॉग, सोशल मीडिया पर ज़ाहिर की गई चिंताएं तथा पूछे गए सवालों से संकेत मिलता है कि IIT के विद्यार्थियों को ज़मीनी हकीकत की खासी जानकारी है. एक विद्यार्थी ने Quora पर पूछे गए सवाल - IIT क्रैक कर लेने के बाद की ज़िन्दगी कैसी है...? क्या IIT में पहुंचकर भी 10-12 घंटे पढ़ाई करनी पड़ती है...? - के जवाब में लिखा, "नहीं, आपको इसकी ज़रूरत नहीं... IIT रुड़की का विद्यार्थी होने के नाते मैं आपको IITs के भीतर की ज़िन्दगी की झलक दिखाता हूं... ज़्यादातर विद्यार्थी परीक्षा से सिर्फ अएक सप्ताह पहले ही पढ़ाई करते हैं... अपवाद हैं, लेकिन मैं अधिकतर विद्यार्थियों की बात कर रहा हूं..." एक अन्य का कहना है कि इस तरह के संकेत कोचिंग क्लास वाले ही दिया करते हैं. इस विद्यार्थी ने लिखा, "यह गलत मानसिकता है, जो कोचिंग क्लासों द्वारा बताई जाती है कि आपको IIT में प्रवेश के बाद पढ़ने की ज़रूरत नहीं है, ज़िन्दगी बेहद आरामदायक है, कोई चिंताएं नहीं होतीं... जो पूरी तरह गलत है... जब मैंने IIT बॉम्बे में प्रवेश लिया था, तब मैं भी ऐसा ही सोचता था, परीक्षा से सिर्फ एक दिन पहले पढ़ा करता था, क्लास बंक किया करता था, वगैरह... परिणामस्वरूप पहले और दूसरे साल में फाइव प्वाइंटर (फाइव प्वाइंट समवन) बनकर रह गया..." IIT के भीतर, विद्यार्थियों ने 'हम IITB में पढ़ाई क्यों नहीं करते हैं' जैसे आलेख भी लिखे. अनुभवजन्य गुस्सा बेहद चिंताजनक है. शिक्षकों के तौर पर यह रवैया हमें अपने क्लासरूम और कोर्स में देखने को मिलता है.
इस पर सार्वजनिक तौर पर ज़्यादा चर्चा नहीं होती, और जब तक सभी विद्यार्थियों को नौकरियां मिल जाती हैं, तब तक लगता है, यह मायने नहीं रखता कि नौकरी कैसी है. सो, भले ही, किसी भी शाखा के 60 से 80 फीसदी ग्रेजुएट ऐसे सेक्टर में काम कर रहे हों, जिसका उस शाखा के तकनीकी ज्ञान से कोई लेना-देना न हो, किसी को फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि ग्रेजुएट होने वाले कुल विद्यार्थियों में ऐसे बेहद कम हैं, जो बेरोज़गार हैं (और उन्हें भी देरसवेर कोई न कोई काम मिल ही जाता है). जब इस मुद्दे पर घेरने की कोशिश की जाए, तो रटा-रटाया जवाब तैयार होता है कि IIT में दी जाने वाली 'शानदार' शिक्षा के बारे में बात कीजिए, जिसकी बदौलत वे 'अपनी मर्ज़ी का कोई भी काम' कर पाते हैं. अलंकार जैन ने ब्लॉग में लिखा, "पिछले साल, मैंने IIT बॉम्बे के निदेशक से संस्थान के ग्रेजुएट विद्यार्थियों के तकनीकी ज्ञान से इतर रोज़गार हासिल करने के बारे में पूछा था... उन्होंने जवाब दिया कि संस्थान को तब तक तसल्ली है, जब तक उसके विद्यार्थी समाज को सार्थक योगदान दे रहे हैं... हालांकि यह भले ही बेहद उदार तथा व्यावहारिक रुख है, लेकिन यह कुछ हद तक उन मुद्दों के प्रति उदासीनता भी दिखाता है, जिनका सामना हमें करना पड़ता है... हम इस बात से संतुष्ट नहीं हो सकते कि हमारे बहुत-से विद्यार्थी ऐसी शिक्षा हासिल कर रहे हैं, जिसकी उन्हें खुद ही परवाह नहीं..." इससे एक और अहम सवाल खड़ा होता है - हम इंजीनियरिंग के ऐसे प्रशिक्षण पर इतना ज़्यादा क्यों खर्च कर रहे हैं, जो अंत-पंत 'व्यर्थ' सिद्ध होती है.
विद्यार्थी भी प्लेसमेंट प्रक्रिया के दौरान इसी तरफ ध्यान देते हैं, कि वेतन पैकेज का आकार क्या है, और उन्हें कितनी जल्दी ऑफर हासिल हो सकता है (हां, अगर 'पहले तीन' दिन के भीतर प्लेसमेंट नहीं हो पाने पर वे डिप्रेशन का शिकार हो जाते हैं - क्योंकि यह उनके आत्मसम्मान तो लगा करार झटका है). जैन का कहना है, "सुबह 8 से आधी रात तक, मैंने 13 इंटरव्यू दिए... नौकरी पाने की बेहद ख्वाहिश में मैंने भीख तक मांगी, गिड़गिड़ाया भी... मुझे अपने माता-पिता और भाई की कॉल रिसीव करने में भी शर्मिन्दगी महसूस हुई, क्योंकि उन्हें मुझसे जो बड़ी-बड़ी उम्मीदें थीं, वे चकनाचूर हो गईं... धीरे-धीरे दिमाग में यह बैठ गया कि पहले दिन मैं नौकरी हासिल नहीं कर पाया... फेल हो गया..." जब पहली बार पहले दिन की नाकामी का एहसास मुझे हुआ, मैं यकीन नहीं कर पाया कि किसी विद्यार्थी पर कामयाबी और नाकामी का कितना असर हो सकता है. संभवतः इन उम्मीदों का इस बात से लेना-देना है कि सबसे ज़्यादा प्रतिष्ठित (और आमतौर पर ज़्यादा तनख्वाह देने वाली) कंपनियों को प्लेसमेंट सत्र में शुरू में ही बिठाया जाता है. यह निराशाजनक है कि हाइपर-कॉम्पिटीशन का यह अमानवीय एहसास, तनाव और चिंता के साथ IIT अंडरग्रेजुएट विद्यार्थियों के भीतर घर कर गया है.
अब इसमें माता-पिता की उम्मीदों को भी जोड़िए - जब कोर नौकरियां, अगर उपलब्ध हैं तो, कोडिंग या एनैलेटिक्स या बैंकिंग की नौकरी की तुलना में कम तनख्वाह की पेशकश देती हैं, तो फिर कोर नौकरियों की चिंता ही क्यों की जाए...? ऐसे किस्से भी सुनने को मिलते हैं, जहां माता-पिता ने कोर सेक्टर में मिलने वाले 15 लाख रुपये के पैकेज को छोड़कर 25 लाख रुपये के पैकेज वाली बैंकिंग की नौकरी कबूल करने के लिए कहा.
मीडिया में इस तरह के हालात की कुछ ख़बरें दिखती हैं, लेकिन सब छिप जाती हैं, जब एक करोड़ से ज़्यादा तनख्वाह वाली कोई नौकरी किसी को मिल जाती है. इस रिपोर्ट में मैकेनिकल इंजीनियरिंग के उस विद्यार्थी की बात की जाती है, जो कोर क्षेत्र में नौकरी करना चाहता था, लेकिन माता-पिता के ज़ोरदार दबाव में उसने बैंकिंग की नौकरी कबूल कर ली. एक और विद्यार्थी ने 30 लाख रुपये की पेशकश मिलने पर कहा, "लेकिन मेरे माता-पिता ने मुझसे एक करोड़ रुपये वाले पैकेजों के बारे में कहा था, जिनके बारे में उन्होंने पढ़ा है..."
(अनुराग मेहरा IIT बॉम्बे के सेंटर फॉर पॉलिसी स्टडीज़ में असोसिएट फैकल्टी तथा कैमिकल इंजीनियरिंग के प्रोफेसर हैं...)
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