प्रचंड जीत के लिए दिसंबर के झटकों से किस तरह उबरे मोदी

"मेरे जैसे राजनीति के पंडित सोच रहे थे कि मोदी केंद्र में फिर से वैसा जादू नहीं चला पाएंगे लेकिन यही तो उनकी प्रतिभा है."

प्रचंड जीत के लिए दिसंबर के झटकों से किस तरह उबरे मोदी

पीएम नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी ने प्रचंड जीत हासिल की है

अब समय आ गया है जब पूरी तरह से राजनीति के मायने बदल देने वाली प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदीनीत हिन्‍दुत्‍व की प्रभावशाली शक्तियों से लड़ने के लिए विपक्षी दलों को नई अवधारणाओं और मौलिक तकनीकों को ईजाद करना होगा. इस सफलता का पूरा श्रेय मोदी को जाता है, उन्‍होंने जो सफलतापूर्वक गुजरात में किया से राष्‍ट्रीय स्‍तर पर दोहराया. मेरे जैसे राजनीति के पंडित सोच रहे थे कि मोदी केंद्र में फिर से वैसा जादू नहीं चला पाएंगे लेकिन यही तो उनकी प्रतिभा है. मैं हमेशा उनके राजनीति करने के तरीके और उनकी विचारधारा की आलोचना करता रहा हूं, लेकिन यह तो मानना ही पड़ेगा कि वो कोई पारंपरिक नेता नहीं हैं. और आज की इस बड़ी जीत के वो अकेले नायक हैं

हालांकि दो और 'M' उनके साथ हैं- मशीन और मीडिया. ये दो ऐसे हथियार हैं जिन्‍होंने उनकी एक मजबूत काल्‍पनिक छवि गढ़ दी है. दिसंबर 2018 तक जब बीजेपी उत्तर भारत के अपने तीन राज्‍य- मध्‍य प्रदेश, राजस्‍थान और छत्तीसगढ़ हार चुकी थी, पार्टी कमजोर पड़ गई थी. ऐसे में मोदी ने तुरंत गियर बदले और नई पटकथा लिख दी. उन्‍होंने न सिर्फ अपनी सरकार की उपलब्‍धियों का राग गाया बल्‍कि राष्‍ट्रवाद को पुनर्जीवित भी किया. राष्‍ट्रवाद उनके शस्‍त्रागार का मुख्‍य शस्‍त्र बन गया.

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बीजेपी 302 सीटें जीत चुकी है और एक पर आगे चल रही है

जब मोदी को गुजरात का मुख्‍यमंत्री बनाया गया था तब वह नए थे. कुछ कड़े आलोचक कहते थे कि मोदी ने अपना पहला विधानसभा चुनाव 2002 के दंगों की वजह से जीता था. लेकिन उनकी लगातार 2007 और 2012 की जीत ने मतदाताओं के साथ उनके जुड़ाव और ताकत को साबित कर दिया. कोई और नेता होता तो वह लापरवाह हो जाता. वहीं दूसरी तरफ मोदी जानते थे कि जब तक उनकी छवि गुजरात दंगों से परिभाषित होती रहेगी, वह आगे नहीं जा पाएंगे. उन्‍होंने गुजरात के राष्‍ट्रवाद के साथ अपनी हिन्‍दुत्‍व छवि को जोड़े रखा. इसके साथ ही उन्‍होंने विकास का अलंकार गढ़ा. उनसे पहले किसी भी नेता ने आईडेंटी पॉलिटिक्‍स और लोगों की आर्थिक जरूरतों को एकीकृत करने का प्रयोग नहीं किया.

मोदी का 'गुजरात मॉडल' सफलतापूर्वक राष्‍ट्रीय स्‍तर पर लाया गया. अपने पिछले पांच सालों में वो आर्थिक फ्रंट पर विफल रहे हैं लेकिन उनके विकास का अलंकार कभी धूमिल नहीं हुआ. उन्‍होंने विपक्ष‍ियों और विशेषज्ञों के सभी दावों को निरस्‍त कर दिया, वो अपने दावे में दृढ़ रहे कि उनके नेतृत्‍व में भारत ने नई ऊंचाइयों को छुआ और तेजी से बढ़ती अर्थव्‍यवस्‍था वाला देश बना है. उस समय जब वह कमजोर लग रहे थे, बालाकोट स्‍ट्राक काम कर गई. मोदी स्‍मार्ट थे जो भारत की जनता तक यह संदेश पहुंचाने में कामयाब रहे कि उनके नेतृत्‍व में देश बदला और ये भारत मजबूती से जवाब भी दे रहा है. सड़कों पर यह सुना जा सकता था, "हमने पाकिस्‍तान में घुसकर उन्‍हें मारा."

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6 महीने पहले एमपी, राजस्‍थान और छत्तीसगढ़ जीतने वाली कांग्रेस लोकसभा चुनाव में इन तीनों राज्‍य की लगभग सभी सीटें हार गई

इस बलशाली राष्‍ट्रवाद को मीडिया में उनके दोस्‍तों ने बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया. शुरुआत से ही टीवी चैनलों ने उनकी आलोचना करने से इनकार कर दिया और राष्‍ट्रवाद के मुद्दे पर तो वे हकीकत में उनके मुखपत्र बन गए. इसी तरह व्‍हाट्सऐप्‍प, फेसबुक, ट्विटर और दूसरे सोशल मीडिया प्‍लैटफॉर्म पर भी इसी बात का हो-हल्‍ला था. मोदी की सेना वास्‍तव में अजेय थी जो इस कहानी मथती रही कि मोदी ही वही नेता हैं जिसकी जरूरत भारत को फिर से है और देश उनके हाथों में भयरहित और सुरक्षित है. लगातार विपक्ष को नकारना और दिन-ब-दिन मोदी के महिमामंडन से बीजेपी को सीधे फायदा मिला. और अमित शाह के संगठनात्मक कौशल के साथ, बीजेपी ने अपने कैडर और टीमों को विशाल, अच्छी तरह से तेल लगी मशीनों में तब्‍दील कर दिया. मोदी, मशीन और मीडिया के संयोजन ने भारतीय चुनावी प्रक्रिया को पूरी तरह से बदल दिया है.

इस संयोजन ने जाति की पहचान की राजनीति को भी जन्म दिया है. जिस तरह हिन्‍दुत्‍व की बड़ी पहचान ने जाति की छोटी पहचान को आंशिक रूप से अभिभूत कर दिया है. अगर यूपी का परिणाम किसी तरह का इशारा है तो बीएसपी और एसपी जैसी पाटियों को अपनी रणनीतियों पर फिर से विचार करना होगा. मंडल आयोग के सुझावों को लागू करने के बाद जातिगत राजनीति विशेषकर ओबीसी और दलित पर राजनीति बढ़ गई थी. मुलायम, लालू, कांशी राम और मायावती पहचान की राजनीति के नए योद्धा थे. और उनकी जाति की राजनीति ने हिन्‍दुत्‍व को एक बिंदु से आगे नहीं बढ़ने दिया. लेकिन वे विकसित होना और बढ़ना भूल गए. मुलायम ओबीसी के नेता थे लेकिन अपनी अदूरदर्शिता के चलते वह सिर्फ यादवों के नेता बनकर रह गए. ठीक इसी तरह मायावती भी जाटवों से आगे नहीं बढ़ पाईं. आर्थिक उछाल और लोकतांत्रिक चेतना के फैलाव के साथ ये नेता अपनी जाति का विस्‍तार करने में असफल रहे है और एक नया गठबंधन उनके लिए विनाशकारी साबित हुआ.

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यूपी में बीजेपी का कारवां रोकने के ल‍िए मायावती और अखिलेश साथ आए थे

इस बीच, मोदी और शाह राजभर और निषादों जैसी छोटी जातियों के नेताओं को माकूल बनाने में कामयाब रहे.

आज बड़ा सवाल यह है कि क्‍या हिन्‍दुत्‍व ने बीजेपी को उस जगह पर बैठा दिया है जहां पहले कांग्रेस इंदिरा और नेहरू के समय थी? कुछ तथ्‍यों को मानना ही होगा. मोदी नीत हिन्‍दुत्‍व नई सत्तरारूढ़ विचारधारा है और किसी भी दूसरी राजनीतिक विचाराधारा के लिए इसे बाहर निकालना आसान नहीं होगा. बीजेपी की विशाल निर्वाचित मशीन से लड़ने के लिए विपक्ष को इसी के बराबर कार्यकुशल मशीन बनानी होगी. और सबसे बढ़कर नेताओं को योद्धा जैसी नीयत लानी होगी. मोदी सफल इसलिए हैं क्‍योंकि वो जीतने के लिए लड़ते हैं. ऐसा राहुल गांधी या किसी और के बारे में नहीं कहा जा सकता. लड़ाई जीतने के बाद मोदी आराम नहीं करते बल्‍कि वो अगले पड़ाव की ओर चल देते हैं. उनके लिए राजनीति च‍िरकालिक युद्ध है और विपक्ष च‍िरकालिक शत्रु जिसे किसी भी कीमत पर परास्‍त करना है.

(आशुतोष लेखक और पत्रकार हैं)

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