50 करोड़ से ज़्यादा इंटरनेट यूज़र्स के देश में करोड़ों आपत्तिजनक मैसेज और पोस्ट रोज़ वायरल हो रहे हैं. उनमें से कुछेक के खिलाफ ही कार्रवाई क्यों होती है...? गिरफ्तार लोगों में से अधिकांश को निचली अदालतें जेल भेज देती हैं, क्योंकि सभी लोग तो सुप्रीम कोर्ट नहीं आ सकते. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद CJM कोर्ट ने 20,000 रुपये की दो ज़मानतों और बंधपत्र दाखिल करने पर पत्रकार प्रशांत कनौजिया को रिहा कर दिया. प्रियंका शर्मा ने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का आपत्तिजनक मीम बनाया, जिन्हें माफी की शर्त पर सुप्रीम कोर्ट ने रिहाई दी. दोनों ही मामलों में पुलिस की गलत FIR और बेजा गिरफ्तारी के बावजूद, निचली अदालतों ने रिमांड आदेश पारित कर दिया था. पुलिस और निचली अदालतों के इस गैर-ज़िम्मेदार सिस्टम पर, सुप्रीम कोर्ट द्वारा सख्ती नहीं बरतने से ऐसी घटनाएं बढ़ रही हैं.
पुलिस द्वारा गंभीर धाराओं में FIR और बेजा गिरफ्तारी : कानून में दो तरह के अपराध माने जाते हैं. गंभीर या संज्ञेय अपराध, जहां बगैर अदालती वारंट के पुलिस गिरफ्तार कर सकती है. दूसरे जमानती अपराध, जहां पुलिस अधिकारी द्वारा ही जमानत दी जा सकती है. पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु जैसे अनेक राज्यों में आपत्तिजनक सोशल मीडिया पोस्ट पर पुलिस द्वारा गंभीर संज्ञेय धाराओं में FIR के तहत गिरफ्तारी एक खतरनाक रिवाज़ बन गया है. सुप्रीम कोर्ट ने प्रियंका और प्रशांत दोनों को जमानत तो दे दी, लेकिन दोषी पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध कोई टिप्पणी या कारवाई क्यों नहीं की...?
बेपरवाह निचली अदालतें और मजिस्ट्रेट : संविधान के अनुसार किसी भी व्यक्ति को बेवजह पुलिस और न्यायिक हिरासत में नहीं रखा जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट ने भी अनेक मामलों में इसकी पुष्टि करते हुए कहा है कि बेल नियम है और जेल अपवाद. एडिशनल सॉलिसिटर जनरल ने सरकार की तरफ से कहा कि मजिस्ट्रेट के आदेश के विरुद्ध पीड़ित पक्ष को हाईकोर्ट में अपील करनी चाहिए. परन्तु सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को नहीं माना. सोशल मीडिया की आपत्तिजनक पोस्ट पर पुलिस द्वारा गलत FIR पर सवाल उठाने की बजाय, मजिस्ट्रेट द्वारा 14 दिन की रिमांड का आदेश पूरी तरह गलत है. ऐसे गैर-ज़िम्मेदार और नाकाबिल मजिस्ट्रेटों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट द्वारा सख्त कार्रवाई की जाए, तो ही कानून का दुरुपयोग रुक सकेगा.
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और आपत्तिजनक पोस्ट : प्रियंका शर्मा के मीम को तो सुप्रीम कोर्ट के जजों ने भी आपत्तिजनक माना था. प्रशान्त की अनेक पोस्ट और टवीट को पत्रकारिता जगत में आपत्तिजनक और अभद्र माना जा रहा है. ऐसे मामलों पर कानूनी कार्यवाही के लिए आईटी एक्ट में सेक्शन-66-ए का प्रावधान था, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने सन् 2015 में रद्द कर दिया. आपत्तिजनक पोस्ट के लिए कानून में अवमानना आदि के प्रावधान हैं, परन्तु सिविल मुकदमों में लंबे समय के साथ-साथ वकीलों पर भी भारी खर्च आता है. इन सब कानूनी पचड़ों से बचने के लिए सियासी रसूखदारों ने गंभीर धाराओं में FIR और गिरफ्तारी का सिस्टम बना दिया, जिस पर सुप्रीम कोर्ट का मौन निराशाजनक है.
आरोप लगाने वाली महिला के खिलाफ कारवाई क्यों नहीं : इस मामले में प्रशांत रिहा हो गए, पर कई अन्य लोग अब भी जेलों में बंद हैं. जिस महिला ने मुख्यमंत्री पर बेबुनियाद आरोप लगाए, उस पर कारवाई किए बगैर, पत्रकारों और टीवी चैनल के संपादक को गिरफ्तार करना कितना जायज़ है...? बेहतर तो यह होता कि उत्तर प्रदेश सरकार उस महिला की मेडिकल जांच कराने के बाद पूरे मामले में औपचारिक प्रेस नोट जारी करती. इस तरह की बेजा गिरफ्तारियों से पुलिस, सरकार और मुख्यमंत्री सभी की छवि बेवजह खराब हुई है.
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जीवन का अधिकार : अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संविधान के अनुच्छेद-19 में वर्णित है, जिसमें अनेक अपवाद हैं. दूसरी तरफ संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत जीवन के अधिकार को बगैर अपवाद के सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना गया है. अनेक जजों ने इस प्रावधान की तकनीकी व्याख्या करते हुए कई अन्य अधिकारों को जीवन का अधिकार मान लिया है. प्रशान्त और प्रियंका के मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के आधार पर ज़मानत दी, लेकिन जीवन के अधिकार के हनन पर प्रभावी कार्रवाई क्यों नहीं की...?
देश में पुलिस सुधार की ज़रूरत : पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और सभी राज्यों में पुलिस के बगैर विरोधियों का दमन संभव नहीं है. कानून के तहत पुलिस के अधिकार और कर्तव्यों को पूरी तरह निर्धारित किया गया है. सियासी संरक्षण और दबाव में पुलिस वाले अपने उत्तरदायित्वों को भूलकर अधिकारों का बेजा इस्तेमाल शुरू कर देते हैं. गलत धाराओं में FIR लिखना अब फैशन बन गया है. प्रियंका शर्मा का मामला सुप्रीम कोर्ट में आने के बाद पुलिस ने क्लोज़र रिपोर्ट ही लगा दी, लेकिन लापरवाह अधिकारियों की जवाबदेही क्यों नहीं तय की गई...? सुप्रीम कोर्ट ने डीके बसु मामले में गिरफ्तार व्यक्ति के लिए अनेक अधिकार दिए हैं, जिनका पालन करने की ज़िम्मेदारी पुलिस अधिकारियों के ऊपर है. प्रशांत के मामले में सिविल ड्रेस में पुलिस अधिकारियों का जाना, अरेस्ट मेमो नहीं होना, स्थानीय पुलिस को पूर्व सूचना नहीं देना, सप्ताहांत में गिरफ्तारी, दिल्ली के मजिस्ट्रेट से ट्रांज़िट रिमांड नहीं लेना पूरी तरह गलत था. इन मामलों में कारवाई नहीं होने से पुलिस का हौसला और बढ़ता है, जिसकी मिसाल GRP पुलिस द्वारा पत्रकार की निर्मम पिटाई से सामने आती है.
पूर्व पुलिस महानिदेशक प्रकाश सिंह की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दशक में पुलिस सुधार के लिए अनेक आदेश पारित किए थे, जिन पर अभी तक अमल नहीं हुआ. ब्रिटिशकालीन पुलिस के डंडे को आज़ाद भारत में अब कानून के शासन के तहत लाना ही होगा, तभी देश में स्वस्थ लोकतंत्र का उदय होगा.
विराग गुप्ता सुप्रीम कोर्ट अधिवक्ता और संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं...
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