महाराष्ट्र में, और बाहरी समर्थन से हरियाणा में भी, भारतीय जनता पार्टी (BJP) सरकार बना लेगी, लेकिन इन दोनों विधानसभाओं के लिए हुए चुनाव की असलियत यह है कि मतदाताओं ने दर्प और कर्णभेदी अति-राष्ट्रवाद पर समय रहते अंकुश लगा दिया है, और यह भी कि जनता को आर्थिक अंतःस्फोट की परवाह है. कुछ ही महीने पहले लोकसभा चुनाव में BJP ने शानदार बहुमत हासिल किया था.
केंद्रीय गृहमंत्री और BJP के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के लिए इन दोनों राज्यों के विधानसभा चुनाव में अनुच्छेद 370 को खत्म किए जाने (जम्मू एवं कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने) को मुख्य मुद्दा बना देना एक जुआ था. अमित शाह ही इन चुनावों में चेहरा थे, जिन्होंने रिकॉर्ड तादाद में रैलियां कीं. अब लग रहा है, चेहरे या मुद्दे पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया गया.
मौजूदा मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर को ही दूसरा कार्यकाल सौंपने की योजना (ऐसे संकेत पार्टी की गुरुवार को हुई बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने दिए) बना रही BJP को गोपाल कांडा के समर्थन की ज़रूरत पड़ेगी, जिन्हें वर्ष 2012 में एक युवा एयरहोस्टेस द्वारा खुदकुशी करने के लिए ज़िम्मेदार करार दिए जाने पर जेल भेजा गया था. यह तो नरेंद्र मोदी सरकार के 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' के नारे का अच्छा विज्ञापन नहीं माना जा सकता.
कांडा को मंत्रिपद मिलने की उम्मीद है और वह BJP द्वारा चार्टर किए विमान में दिल्ली गए, ताकि अमित शाह से बातचीत कर सकें.
महाराष्ट्र की जनता ने 'चुनावी स्पेशल' के रूप में प्रवर्तन निदेशालय (ED) द्वारा भेजे गए नोटिस से निपटने वाले राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) के मुखिया 79-वर्षीय शरद पवार का साथ देने का फैसला किया. सतारा में बारिश में भीगते हुए भी चुनावी रैली को संबोधित करने की 'बहादुर' मराठा नेता की वायरल हुई तस्वीर जैसे महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव की सबसे प्रभावी तस्वीर बन गई.
शरद पवार की पार्टी NCP ने सतारा की सीट पर जीत हासिल की, और NCP छोड़कर BJP का दामन थामने वाले उदयनराजे भोसले को पराजित किया, जो छत्रपति शिवाजी महाराज के वंशज हैं.
हरियाणा में जाट समुदाय भूपेंद्र सिंह हुड्डा का साथ देता नज़र आया. उन्होंने सही काम कर दिखाया, हालांकि उन्हें पार्टी के चुनाव प्रचार की कमान सितंबर में ही सौंपी गई थी, जब राहुल गांधी के चहेते माने जाने वाले अशोक तंवर को हटाए जाने के बाद कई महीने तक कांग्रेस कोई फैसला नहीं कर पाई थी.
हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा को सार्वजनिक रूप से बागी हो जाने की चेतावनी जारी करनी पड़ी थी, ताकि पार्टी कोई फैसला करे. सिर्फ हुड्डा नहीं, पार्टी के वरिष्ठ नेता आनंद शर्मा को भी सार्वजनिक रूप से कहते सुना गया कि हुड्डा को बहुत पहले प्रभार सौंप दिया जाना चाहिए था.
वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं का कहना है कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के दिल्ली स्थित आवास के बाहर किए गए अभूतपूर्व विरोध प्रदर्शन के दौरान अशोक तंवर द्वारा हुड्डा को गालियां दिए जाने के बाद हरियाणा के जाटों ने हुड्डा का साथ देने का फैसला किया.
क्या महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव परिणामों ने राजनीति को 'फिर सामान्य' बना दिया है...?
इन चुनावों ने निश्चित रूप से दर्शाया है कि स्थानीय किसानों की समस्याएं, पंजाब एंड महाराष्ट्र कोऑपरेटिव बैंक का 'ढह जाना' और आर्थिक वृद्धि में गिरावट जैसे मुद्दे निश्चित रूप से मतदाताओं के लिए मायने रखते हैं.
हरियाणा में 'अबकी बार, 75 पार' का नारा गा रही BJP को अब त्रिशंकु विधानसभा के बाद विधायकों के पीछे जाना पड़ रहा है, और दोबारा महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बनने जा रहे देवेंद्र फडणवीस को अब आदित्य ठाकरे और दोबारा ताकतवर बनकर उभरी शिवसेना के साथ मिलकर काम करना होगा. नतीजों के बाद उद्धव ठाकरे ने भी लगभग तुरंत 50-50 के उस फॉर्मूले को दोहराया दिया, जिस पर अमित शह ने सहमति जताई थी.
अमित शाह द्वारा बेहद ध्यान और मेहनत से बनाया गया BJP की 'हमेशा निश्चित' जीत का माहौल, उनकी अकड़, और अपराजेय होने का मान निश्चित रूप से प्रभावित हुए हैं, भले ही BJP अपनी दोनों ही सरकारें बचाने में कामयाब रही है.
विपक्षी पार्टियां, विशेष रूप से कांग्रेस अब विजेता की तरह व्यवहार कर रहे हैं, क्योंकि उनका उस तरह सफाया नहीं हुआ, जिसका डर था.
कांग्रेस बमुश्किल ही महाराष्ट्र में एक अभियान संचालित कर पाई थी, जिसमें उसके नेता सार्वजनिक रूप से एक-दूसरे पर हमला करते रहे. BJP के एक नेता ने मज़ाक में कहा भी था, "कांग्रेस असली राम भरोसे पार्टी थी महाराष्ट्र में..."
भूपेंद्र सिंह हुड्डा, पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ (झाबुआ उपचुनाव में जीत हासिल करने वाले) अब कांग्रेस नेताओं की वह प्रजाति हैं, जो विलुप्ति के कगार पर है.
टीम सोनिया गांधी उत्साहित है, क्योंकि उसका दावा है कि राजनैतिक परिणाम हासिल हुए, सो, संगठन पर उनकी पकड़ बनी रहेगी.
राहुल गांधी का नदारद रहना भी इन चुनावों की खास बात रहा. कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष ने सिर्फ सात रैलियों को संबोधित किया, और परिणामों पर तो ट्विटर पर एक टिप्पणी भी नहीं की. फिर भी, अधिकतर नेताओं का कहना है कि पार्टी अध्यक्ष के तौर पर उनकी वापसी बहुत जल्द हो जाएगी, और यही कांग्रेस की गिरावट के पीछे की असली समस्या रही है - एक ऐसा नेता, जो परिणाम नहीं दे पाता, और जिसकी अपील की गैर-मौजूदगी का ही BJP फायदा उठाती रही है.
शरद पवार ने भी यह बात साबित कर दिखाई है कि प्रवर्तन निदेशालय (ED) और CBI जैसी केंद्रीय जांच एजेंसियों का इस्तेमाल किए जाने की भी सीमाएं हैं.
इसके अलावा, दूसरी पार्टियों के बागियों को शामिल करना, जिस रणनीति का अमित शाह ने दोनों राज्यों में जमकर इस्तेमाल किया, भी काम नहीं आया. अधिकतर बागी हारे, जिनमें अल्पेश ठाकोर भी शामिल हैं, जो गुजरात में उपचुनाव हारे हैं. BJP कार्यकर्ताओं ने इन नए लोगों को पसंद भी नहीं किया था.
आजकल विपक्ष की सभी जीत बहुत कम समय ही चल पाती हैं, लेकिन समझदार भारतीय मतदाता ने साफ बता दिया है कि प्रभावी विपक्ष रखना ही होगा.
(स्वाति चतुर्वेदी लेखिका तथा पत्रकार हैं, जो 'इंडियन एक्सप्रेस', 'द स्टेट्समैन' तथा 'द हिन्दुस्तान टाइम्स' के साथ काम कर चुकी हैं...)
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