क्या इस लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस बीजेपी और नरेंद्र मोदी के साथ वैसे खुलकर साथ नहीं आ रहा है जैसे कि पिछले लोकसभा चुनाव में आया था? क्या आरएसएस के स्वयंसेवक मोदी सरकार के कामकाज से खुश नहीं हैं? क्या आरएसएस के समर्थन के बिना मोदी की नैया डूब रही है? कम से कम बीएसपी प्रमुख मायावती का तो यही दावा है. उनके रुख में अचानक बीजेपी और खासतौर से पीएम मोदी के लिए बेहद आक्रामकता दिखाई दे रही है. यह पिछले एक हफ्ते में ज्यादा तेज हुई है. आज उन्होंने एक नया पैंतरा चला. यह आरएसएस और बीजेपी के रिश्तों को लेकर है.
लेकिन जानकार मायावती के दावे को खारिज करते हैं. उनके मुताबिक संघ और बीजेपी के बीच की पतली लकीर अब करीब-करीब मिट चुकी है. अब संघ खुलकर बीजेपी के पक्ष में काम करता है. सिर्फ दिल्ली की ही बात करें तो यहां करीब ग्यारह हजार स्वयंसेवकों ने छोटी-छोटी सत्तर हजार बैठक कर बीजेपी के पक्ष में माहौल बनाया. संघ के बड़े पदाधिकारी खुलकर नोटा के खिलाफ अपील कर चुके हैं. इसके अलावा संघ ने लोगों से सौ प्रतिशत मतदान की अपील भी की.
दिल्ली में संघ ने ऐसे पर्चे बांटे जिसमें मोदी सरकार के पिछले पांच साल की उपलब्धियों को गिनाया गया. जिनमें राष्ट्रीय सुरक्षा, सांस्कृतिक उपलब्धियां और सामाजिक सुरक्षा के मुद्दे शामिल हैं. भोपाल में साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को दिग्विजय सिंह के खिलाफ उतारने का फैसला आरएसएस का ही माना जा रहा है ताकि तथाकथित भगवा आतंकवाद पर कांग्रेस को कठघरे में खड़ा किया जा सके. बीजेपी के वरिष्ठ नेता भी मायावती का दावा सिरे से खारिज कर रहे हैं. केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह का कहना है कि आरएसएस कोई पॉलिटिकल संस्था नहीं है, वो सोशल संस्था है. लेकिन उन्होंने कहा तो यह लोकतांत्रिक अधिकार है. चुनाव का परिणाम आने दीजिए. सब पता चल जाएगा. जिनकी खुद की नैया डूबी है वो खुद दूसरे को लेकर कह रहे हैं.
मायावती इससे पहले पीएम मोदी पर व्यक्तिगत हमला कर चुकी हैं जिसकी तमाम बीजेपी नेताओं ने जमकर निंदा की थी. इस चुनाव में दबी जुबान में बीएसपी और बीजेपी के बीच सांठ-गांठ का आरोप लगता रहा है. जिस तरह यूपी में सपा-बसपा गठबंधन से कांग्रेस को दूर रखा गया उसके पीछे भी मायावती ही मानी गईं. लेकिन अब नए समीकरण बनते दिख रहे हैं. एनडीटीवी को इंटरव्यू में राहुल मायावती को राष्ट्रीय प्रतीक बता चुके हैं. अखिलेश यादव उन्हें प्रधानमंत्री पद का दावेदार. वे खुद भी इशारा कर चुकी हैं कि अगर जरूरत पड़ी तो प्रधानमंत्री बनने के बाद लोकसभा चुनाव अंबेडकर नगर से लड़ लेंगी. ऐसे में बीजेपी और संघ के प्रति उनकी आक्रामकता अन्य विपक्षी पार्टियों को इशारा देना भी हो सकता है. तो सवाल है क्या संघ को घसीटकर मायावती बीजेपी को अलग-थलग करना चाह रही है? क्या पीएम बनने का मायावती का इरादा पूरा होगा?
(अखिलेश शर्मा NDTV इंडिया के राजनीतिक संपादक हैं)
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