लटका कांग्रेस का मिशन राहुल

कांग्रेस पीएम के लिए किसी का भी समर्थन कर सकती है बशर्ते वह बीजेपी और आरएसएस का न हो, राहुल के पीछे हटते ही ममता बनर्जी और मायावती की दावेदारी के चर्चे

लटका कांग्रेस का मिशन राहुल

कांग्रेस का मिशन राहुल शुरू होने से पहले ही लटक गया. राहुल को पीएम उम्मीदवार बनाने के कांग्रेस कार्यसमिति के फैसले की स्याही सूखी भी नहीं थी कि उनके करीबी नेताओं ने फैसले की इबारत ही पलट दी. उनका कहना है कि कांग्रेस पीएम के लिए किसी का भी समर्थन कर सकती है बशर्ते वह बीजेपी और आरएसएस का न हो. पीएम दौड़ में राहुल के पीछे हटते ही ममता बनर्जी और मायावती की दावेदारी के चर्चे शुरू हो गए.

दरअसल, रविवार को सीडब्ल्यूसी की बैठक के बाद रणदीप सिंह सुरजेवाला के इस बयान के बाद राहुल की उम्मीदवारी पर मुहर लगी जिसमें उन्होंने कहा कि अगर कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी तो राहुल गांधी ही चेहरा होंगे.

इसके बाद कांग्रेस के मौजूद और संभावित सहयोगियों की प्रतिक्रियाएं आने लगीं. जनता दल सेक्यूलर के नेता एचडी देवेगौड़ा अकेले नेता थे जिन्होंने राहुल की दावेदारी का समर्थन किया. जबकि एनसीपी, तृणमूल कांग्रेस और यहां तक कि आरजेडी ने भी कहा कि नतीजे आने के बाद पीएम तय हो.

यह राहुल के लिए झटका था. यह भी संदेश गया कि कांग्रेस 2019 को राहुल बनाम मोदी बनाना चाहती है जबकि इस लड़ाई में राहुल मोदी के आगे टिक नहीं पाएंगे. खुद कांग्रेस ने अपना प्रदर्शन 2004 की 145 सीटों से बेहतर करने की बात कहकर अपने गिरे मनोबल का परिचय दिया. जिस तरह चिदंबरम ने कहा कि कांग्रेस की 150 और सहयोगियों की 150 सीटें लाकर मिशन 300 पूरा होगा, उससे भी कांग्रेस की कमजोर हालत का पता चला. इसीलिए अब कांग्रेस कह रही है कि उसकी लड़ाई किसी व्यक्ति से नहीं बल्कि विचारधारा से है और बीजेपी को हटाने के लिए वह कुछ भी करेगी. यानी जो उसने कर्नाटक में किया. जहां बीजेपी को हटाने के लिए तीसरे नंबर की पार्टी के नेता को मुख्यमंत्री बना दिया.

इसीलिए अब ममता बनर्जी और मायावती का नाम लिया जा रहा है. दोनों अनुभवी नेता हैं. मायावती दलित और महिला नेता हैं. आज तक कोई दलित पीएम नहीं बना. ऐसे में कांग्रेस उनका नाम आगे कर बड़ा दलित कार्ड चल सकती है. लेकिन मायावती कह चुकी हैं कि वे कांग्रेस से तभी समझौता करेंगी जब सम्मानजनक सीटें मिलें.

उधर, तृणमूल कांग्रेस से समझौते के विरोध में कांग्रेस के भीतर से ही आवाज़ें उठ रही हैं.


(अखिलेश शर्मा इंडिया के राजनीतिक संपादक हैं)

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