डीडीसीए मामले में अरुण जेटली के मानहानि के दावे के जवाब में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अदालत में नायाब दलील पेश की। उनका कहना है, 'जेटली का यह दावा कि आम लोगों के बीच उनकी छवि एक सम्मानित व्यक्ति की है, बढ़ा-चढ़ाकर किया गया दावा है, जिसका कोई आधार नहीं... 2014 के चुनाव में बीजेपी की सफलता के बावजूद जेटली एक लाख से ज्यादा वोटों से हार गए थे... भारतीय लोकतंत्र ने कभी इनके सार्वजनिक सम्मान के दावे को स्वीकार नहीं किया...'
ज़ाहिर है, केजरीवाल के दावे पर तो अदालत में ही फैसला होगा, लेकिन उनकी दलील ने लोकतंत्र में एक नई बहस छेड़ने की गुंजाइश तो पैदा कर ही दी है। केजरीवाल की बात मानें तो ऐसे नेता, जिन्हें जनता ने चुनाव में नकार दिया है, उनका कोई सार्वजनिक सम्मान नहीं। यानी इन नेताओं को सार्वजनिक रूप से कुछ भी कहा जा सकता है और इस पर किसी को कोई ऐतराज नहीं होना चाहिए। यही नहीं, इन नेताओं के चरित्र, आचरण पर न सिर्फ कीचड़ उछाला जा सकता है, बल्कि ऐसे नेताओं के परिवार वालों को भी आरोपों के दायरे में घसीटने पर किसी को ऐतराज नहीं होना चाहिए, क्योंकि अगर नेता का सार्वजनिक मान नहीं है तो उनके परिवार वालों के मान की किसी को चिंता नहीं होनी चाहिए।
यह एक विचित्र किस्म की राजनीतिक दलील है, जो कुतर्क की सीमा को पार करते हुए भौंडी और कुरूप होती जाती है। केजरीवाल जिस साफ-सुथरी राजनीति की बात करते हुए सार्वजनिक जीवन में आए थे, वहां उनसे कई उम्मीदें लगाई गई थीं। उन्हीं में एक उम्मीद यह भी थी कि वह और उनकी पार्टी के सदस्य अपने आचरण से सार्वजनिक जीवन में नए प्रतिमान स्थापित करेंगे। एक ऐसी नई किस्म की राजनीति करेंगे, जहां नेताओं के आचरण पर उठते सवालों के बीच उनका व्यवहार एक नई मिसाल कायम करेगा, मगर अदालत में दी गई उनकी यह दलील इन उम्मीदों पर पानी फेरती नजर आती है।
जरा इस दलील की पड़ताल कर ली जाए। जिस 2014 के लोकसभा चुनाव का अरविंद केजरीवाल जिक्र कर रहे हैं, उसी चुनाव में वह खुद बनारस में नरेंद्र मोदी के खिलाफ खड़े हुए थे, और मोदी ने उन्हें तीन लाख सैंतीस हजार वोटों से हराया। इसके बावजूद उनका सार्वजनिक सम्मान बचा रहा। न सिर्फ बचा रहा, बल्कि उन्हें इतना नैतिक साहस भी मिला कि कुछ महीने बाद वह दिल्ली के विधानसभा चुनाव में खड़े हुए और उन्होंने वहां बीजेपी को करारी शिकस्त दी। इसी लोकसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने 434 सीटों पर चुनाव लड़ा और सिर्फ चार सीटें जीतीं। अगर अरुण जेटली की हार का फासला एक लाख वोट का था, तो आम आदमी पार्टी की हार का फासला देखें। 434 में सिर्फ चार सीटों पर जीत, यानी एक फीसदी से भी कम। पार्टी को दो फीसदी से भी कम वोट मिले और इसके 414 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई। तो क्या इस करारी हार के बावजूद आम आदमी पार्टी और उसके नेताओं का सार्वजनिक सम्मान बना रहना चाहिए था।
लोकतंत्र में हार-जीत लगी रहती है, मगर इसे किसी नेता के सार्वजनिक सम्मान या प्रतिष्ठा से जोड़कर देखना कुतर्क ही माना जाएगा। अगर ऐसा होता तो 1984 में ग्वालियर में हार के बाद अटल बिहारी वाजपेयी को संन्यास ले लेना चाहिए था और 1977 में हार के बाद इंदिरा गांधी को घर बैठ जाना चाहिए था। केजरीवाल का तर्क मानें तो 1999 में दक्षिणी दिल्ली लोकसभा क्षेत्र से हार के बाद डॉ मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाए जाने को संवैधानिक मान्यता नहीं मिलनी चाहिए। वहीं केजरीवाल की मानें तो प्रीतम मुंडे को देश का प्रधानमंत्री होना चाहिए, क्योंकि मौजूदा लोकसभा में वह सबसे ज्यादा वोटों से जीतकर आई हैं।
दरअसल, कई नेताओं ने मान लिया है कि देश टीवी स्टूडियो की डिबेट से ही चलता है और जनता की याददाश्त बेहद कमजोर है, इसीलिए वे यह मानकर चलते हैं कि राजनीतिक विरोधियों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाकर सुर्खियां बटोरने की रणनीति बेहतर है, बजाए इसके कि इन आरोपों को अदालत में ले जाकर दोषियों को सज़ा दिलवाई जाए। देश के लिए ज्यादा ठीक क्या है...? भ्रष्टाचारियों को अदालत से सज़ा मिले या फिर यह कि वे आरोपों को झेलते हुए ढिठाई से सार्वजनिक जीवन में बने रहें। चुनाव में हार की दलील से सार्वजनिक मान धूल-धूसरित होने की दलील टीवी स्टूडियो में तो चल सकती है, मगर अदालत में टिक पाएगी या नहीं, यह जानने के लिए इंतजार करना होगा।
अखिलेश शर्मा NDTV इंडिया में पॉलिटिकल एडिटर हैं...
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This Article is From Jan 13, 2016
क्या जायज़ हैं अरविंद केजरीवाल जैसे राजनीतिक कुतर्क...?
Akhilesh Sharma
- ब्लॉग,
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Updated:जनवरी 13, 2016 17:29 pm IST
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Published On जनवरी 13, 2016 13:26 pm IST
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Last Updated On जनवरी 13, 2016 17:29 pm IST
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