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This Article is From May 30, 2016

इस फाइनल जीत के बाद क्यों नहीं फूटे पटाखे...

Rakesh Kumar Malviya
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 30, 2016 15:23 pm IST
    • Published On मई 30, 2016 15:20 pm IST
    • Last Updated On मई 30, 2016 15:23 pm IST
आखिरी ओवर के बाद जब लगातार पिछले मैच की तरह ही हारते—हारते डेविड वॉर्नर की टीम ने वापसी की, जज्बा दिखाया और अंतत: फतह को गले से लगाया तो हजारों लोग मायूस हो गए। विराट कोहली को ट्रॉफी को अपने हाथों में लेकर चूमते देखने की तमन्ना हजारों—लाखों लोगों के बीच अधूरी ही रही। मैं हैरान था कि कहीं से कोई पटाखे की आवाज नहीं आ रही थी। थोड़ा और कन्फर्म करने के लिए बॉलकनी में पहुंचा तो वहां से भी ऐसा कोई शोर सुनाई नहीं दिया। अक्सर होता यही है कि क्रिकेटियाई जीत के बाद पटाखों का कानफोडू शोरगुल देर तक परेशान करता है। कितनी भी रात हो, लोग सड़कों पर निकल आते हैं। झंडे लहराए जाते हैं, कई—कई दौर की समीक्षाएं चलती हैं, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। हो सकता है आपके शहर में जश्न हुआ हो, पर मेरा तो खामोश ही रहा!   

अपने तमाम वैभव से लबरेज इंडियन प्रीमियर लीग के समापन पर शहर दर शहर क्रिकेट के प्रति लोगों के इस तरह के रूखे व्यवहार का अंदाजा तो नहीं था। हो सकता है कि आप विराट कोहली की टीम के हार से गमजदा हो गए हों, लेकिन कभी एक ही ओवर में छह चौके मारने का कारनामा करने वाले, कैंसर को हराकर एक नई जिंदगी का प्रतिमान रचने वाले युवराज सिंह की टीम वाली जीत पर भी तो एक पटाखा हो सकता था। एक पटाखा भारतीय टीम में कोहली के ठीक ऊपर आने वाले शिखर धवन के नाम पर भी तो हो सकता था! और क्या एक पटाखा भुवनेश्वर कुमार की गजब की संतुलित गेंदबाजी पर नहीं हो सकता था! आखिर क्यों नहीं? इसमें कोई बुराई भी तो नहीं। आखिर बापू भी तो कह ही गए थे कि गर्व लक्ष्य को पाने के लिए किए गए प्रयत्न में निहित है, न कि उसे पाने में। देखा जाए तो विराट, गेल और उनकी टीम भी बापू के इन विचारों की रोशनी में गर्व कर ही सकती है। लेकिन खेल में दूसरा पक्ष भी उतनी ही कोशिश करता है।

सोचिए आईपीएल ने क्या बदला! इस बात की आलोचना होती रही है कि टी—20 जैसे फटाफटिया क्रिकेट ने भद्रजनों के इस खेल के तमाम प्रतिमान बदले हैं। यह भी सही है कि यह विशुद्ध रूप से बाजार से निकल कर आया। इसे मौजूदा वक्त की जरूरत के हिसाब से तैयार किया गया। यह भी सही है कि इसने कलात्मक क्रिकेट की जगह पट्टामारी क्रिकेट को प्रोत्साहित किया। यह भी सही है कि दीवानों की तरह अब से कुछ साल पहले तक क्रिकेट पर पल—पल नजर रखने वालों को इसने दूर करने का काम किया। यह भी सही है कि अब लोगों को उस तरह की सांख्यिकी याद करने में वैसे रुचि नहीं रही जैसी कि मैच दर मैच सचिन के शतक कुंबले के विकेट या मोंगिया के कैच याद रहते थे। तमाम बदलावों और राष्ट्रवादी क्रिकेट को आईपीएल ने पूरी तरह बदल डाला। यह ऐसी खिचड़ी में तब्दील हो गया जहां कि दीवाने ही असमंजस में हों कि रहें तो किसकी तरफ रहें। खासकर उन लोगों के लिए तो यह और भी मुश्किल है जिनका इस विशाल भारत में आईपीएल के किसी नजदीकी शहर से नाता नहीं रहा।

लेकिन क्या कुछ बेहतर भी हुआ। हां, दस साल पहले हम यह सोच भी नहीं सकते थे, कि दुनिया के धुरंधर खिलाड़ी किसी एक मंच पर कुछ यूं खेलेंगे। बिलकुल भी नहीं सोचा था कि क्रिस गेल इस तरह से भारतीय दर्शकों का प्यार पाएंगे, एबी डी विलियर्स के शॉट्स पर दर्शक फिदा हो जाएंगे, ब्रावो का डांस छा जाएगा। देश और राष्ट्र की सीमा के परे भी खेल का जादू बिखरेगा।

खेल केवल जौहर दिखाने के लिए ही तो नहीं होते, खेलों से देशों की दूरियां मिटाने की कल्पना की जाती है, खेल वसुधैव कुंटुंबकम की भावना के वाहक हैं। ओलिंपिक जैसे मजमों में हम पूरी दुनिया को एक परिवेश के तले देखकर एक खूबसूरत अनुभव पाते हैं। लेकिन यदि हम खेल प्रेमी हैं, और जब एक खेल जीत या हार रहा होता है, तो कल जैसी खामोशी कुछ सवाल भी लेकर आती है। तब लगता है कि शायद खेल केवल एक खेल नहीं है, उसके साथ कुछ और भी होना जरूरी है... क्या?

राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के फेलो हैं, और सामाजिक मुद्दों पर शोधरत हैं...

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