15 साल बाद मध्यप्रदेश में कमल मुरझाया, कमलनाथ आए, लेकिन 15 महीने बाद वापस कमल खिल गया और कमलनाथ चले गये. कुर्सी की चाहत, नेताओं का अहंकार-महत्वकांक्षा-लालच कई वजहें हैं, जिसपर कांग्रेस को सोचना है, लेकिन एक और अहम बात उसे परेशान कर सकती है वो है दलितों-पिछड़े वर्ग की नाराज़गी. राज्य में जिन 25 सीटों पर अब उपचुनाव होंगे उसमें 9 सीटें आरक्षित हैं, 8 अनुसूचित जाति एक अनुसूचित जनजाति के लिए. ऐसे में सवाल ये उठता है कि क्या कमलनाथ सरकार के जाने में एक अहम भूमिका अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्ग की नाराज़गी एक अहम वजह थी. जिन लोगों ने मंत्रीपद गंवाया उनमें गोविंद सिंह राजपूत, प्रद्युम्न सिंह तोमर, इमरती देवी, तुलसी सिलावट, प्रभुराम चौधरी, महेंद्र सिंह सिसौदिया थे. जबकि विधायकी छोड़ने वालों में विधायक हरदीप सिंह डंग, जसपाल सिंह जज्जी, राजवर्धन सिंह, ओपीएस भदौरिया, मुन्ना लाल गोयल, रघुराज सिंह कंसाना, कमलेश जाटव (अजा), बृजेंद्र सिंह यादव, सुरेश धाकड़, गिरराज दंडौतिया, रक्षा संतराम सिरौनिया, रणवीर जाटव, जसवंत जाटव, मनौज चौधरी, बिसाहूलाल सिंह, ऐंदल सिंह कंसाना शामिल थे.
ये 22 बागी विधायक मध्यप्रदेश के 14 जिलों से जीतकर विधानसभा पहुंचे थे. इनमें से 15 सिंधिया के गढ़ ग्वालियर-चंबल से विधायक बने थे. इस फेहरिस्त में 15 से ज्यादा नाम आरक्षित वर्ग या पिछड़ी जाति से हैं. हालांकि वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक गिरिजा शंकर कहते हैं कि जब इन लोगों ने विधायकी से इस्तीफा दिया तो मसला जातिगत सम्मान का नहीं, बल्कि व्यक्तिगत अपमान का था. लेकिन जब वो चुनाव में जाएंगे तो ये एक मुद्दा ज़रूर बनेगा. गिरिजा शंकरजी इस बात से भी इत्तेफाक नहीं रखते कि मामला सिर्फ लालच का था. वो कहते हैं कि 15 साल से कांग्रेस सत्ता से दूर थी, 6 मंत्रियों ने पद और विधायकी से इस्तीफा दिया, वो चाहते तो 5 साल में इतना कमा सकते थे जितना पैसा कोई और नहीं देता. जो मिला उसे छोड़कर जो मिलने वाला है उसके लिये कम से कम मंत्री इस्तीफा नहीं देते.
प्राथमिक तौर पर जो नाराज़गी रही वो व्यक्तिगत थी, लेकिन जो वोटबैंक खिसकेगा उससे कांग्रेस को नुकसान होगा, क्योंकि चुनाव में ये क्लास में बदलेगा, ऐसा लगेगा कि ओबीसी, एसटी-एसटी खिसक रहे रहे हैं. वो कहते हैं कि ये मानना कि बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व में 22 विधायक तोड़ने की क्षमता थी पार्टी को क्षमता से अधिक मूल्यांकन करना होगा 2-4 को तोड़ा जा सकता है, लेकिन 22 की तादाद को तोड़ना बहुत मुश्किल है. इनको सिंधिया के समर्थकों के तौर पर भी तोड़ना सिंधिया को ओवर एस्टिमेट करने जैसा होगा. जैसे बिसाहूलाल सिंह या ऐंदल सिंह कंसाना सिंधिया समर्थक नहीं थे, लेकिन इनके अपमान ने इन्हें बाग़ी बना दिया. सिंधिया की नाराज़गी से इन्हें मौक़ा मिला विद्रोह करने का.
इनके पार्टी छोड़ने के वक्त आधार जातिगत अपमान नहीं था, लेकिन चुनाव के वक्त ये मुद्दा ज़रूर बनेगा. वरिष्ठ पत्रकार अरुण दीक्षित कहते हैं जो बागी हुए उसमें सर्वाधिक संख्या आरक्षित वर्ग, पिछड़े वर्ग के विधायकों की है. हालांकि उसमें एक ब्राह्मण 3 राजपूत हैं, लेकिन कांग्रेस को विचार करना चाहिये कि ये वर्ग उससे क्यों छिटक रहा है? आदिवासी खुले तौर पर कह रहे हैं कि कांग्रेस उनसे धोखा कर रही है. पूर्व वनमंत्री उमंग सिंघार ने तो कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को चिठ्ठी भी लिखी थी. ये पहली बार नहीं हैं, शिवभान सिंह सोलंकी जैसे आदिवासी नेता को सालों पहले राजपूत लॉबी ने मुख्यमंत्री नहीं बनने दिया. जमुना देवी जैसी कद्दावर आदिवासी नेता को किनारे कर 47 साल के दिग्विजय सिंह को मुख्यमंत्री बनाया गया. जमुना देवी लगातार आरोप लगाती रहीं कि वो दिग्विजय के तंदूर में जल रही हैं. आदिवासी दलित हाशिये पर रहे. सुभाष यादव उपमुख्यमंत्री रहे, लेकिन ओबीसी वर्ग से भी किसी बड़े नाम को आगे नहीं बढ़ने दिया गया.
अविभाजित मध्यप्रदेश में दिलीप सिंह भूरिया, अरविंद नेताम जैसे नेताओं को इतना परेशान किया गया कि उन्हें पार्टी छोड़ना पड़ा. सोनिया गांधी-राहुल गांधी को सोचना चाहिये कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस सामंतशाही से कब मुक्त होगी, क्योंकि दशकों से पार्टी सामंतों के कब्जे में है. उन्हें सिर्फ दिखावे की नहीं असली भूमिका देनी होगी. हालांकि कांग्रेस के नेता और हाल ही में राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष बने जेपी धनोपिया इसे द्रौपदी के चीरहरण से जोड़ते हैं. कहते हैं एक शख्स के स्वाभिमान को कथित ठेस की कीमत पार्टी को चुकानी पड़ी.
धनोपिया कहते हैं कि जिस शख्स के 25 से ज्यादा विधायकों को टिकट मिला वो चुने गये, 6 मंत्री बने उनका अपमान कैसे हो सकता है. उनका ये भी मानना है कि भले ही 22 बागियों में कई आरक्षित वर्ग से हैं, लेकिन इससे उपचुनावों में कांग्रेस को कोई फर्क नहीं पड़ेगा. वोटर पूछेंगे आपकी विचारधारा क्या थी. हम उसे समझाएंगे कि आपने इस शख्स को क्यों चुना था क्योंकि इसे कांग्रेस ने टिकट दिया था. आपने कहां प्रतिनिधि भेजा था, कांग्रेस में भेजा था अब ये बीजेपी में जा रहा है तो आप इसके साथ हैं क्या? वो ये मानते हैं कि 16 क्षेत्रों में इस मायने में नुकसान हो सकता है कि वहां पार्टी का जो संगठन था वो सिंधिया के अंधभक्तों का था, वहां पार्टी को नये सिरे से खड़ा करना होगा चाहे ब्लॉक हो, वॉर्ड हो ये हमारी चुनौती होगी. लेकिन साथ में वो ये भी मानते हैं कि यहां दिक्कत बीजेपी को भी होगी. धनोपिया कहते हैं कि बीजेपी के मौजूदा नेताओं के इलाकों से जो विधायक चुने गए हैं फिलहाल तो उन्होंने किरायेदार मानकर उनको अपने मकान में रख लिया है, लेकिन क्या उनके नाम पर वो मकान की रजिस्ट्री भी कर देंगे?
मध्यप्रदेश की 230 विधानसभा सीटों में से 82 आरक्षित थीं. बीजेपी ने 2013 में इनमें से 59 सीटें जीती थीं. लेकिन 2018 में वह 34 पर सिमट गई. कांग्रेस जो कि 2013 में 19 सीटें लाई थी, उसे 2018 में 47 सीटें मिलीं. अब देखना दिलचस्प होगा कि बगावत के बाद जिन वोटरों ने कांग्रेस पर भरोसा जताया था क्या वो एक बार फिर पंजे पर भरोसा कायम रखेंगे.
अनुराग द्वारी NDTV इंडिया में डिप्टी एडिटर (न्यूज़) हैं...
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