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साथ आए हैं, साथ रहेंगे... उद्धव-राज को लेकर इससे पहले कब-कब हुई चर्चा, अब एक होना क्यों जरूरी?

राज ठाकरे के तेवर और बालासाहब ठाकरे के व्यक्तित्व से उनके व्यक्तित्व की समानता को देखते हुए सभी यही मान रहे थे कि बालासाहब के सियासी वारिस राज ठाकरे ही होंगे, लेकिन इस बीच एक घटना ने राज ठाकरे के सियासी करियर को बड़ा नुकसान पहुंचाया.

साथ आए हैं, साथ रहेंगे... उद्धव-राज को लेकर इससे पहले कब-कब हुई चर्चा, अब एक होना क्यों जरूरी?
उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे दोनों का सियासी करियर नाजुक दौर से गुजर रहा है.
  • राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे ने एक मंच पर आकर राजनीतिक एकता का संकेत दिया है.
  • 1996 में रमेश किणी की रहस्यमय मौत ने राज के सियासी करियर को नुकसान पहुंचाया.
  • राज ने 2006 में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की स्थापना की और मराठी हितों की बात की.
  • आज दोनों भाइयों का सियासी करियर संकट में है, साथ आना एक बेहतर विकल्प हो सकता है.
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मुंबई :

बालासाहेब जैसे दिखते थे, वो वैसे दिखते हैं. बालासाहेब जैसे बोलते थे, वो वैसे बोलते हैं. बालासाहेब जितने आक्रामक थे, वो उतने आक्रामक हैं. बालासाहेब जैसे कार्टून बनाते थे, वो वैसे कार्टून बनाते हैं. बालासाहेब भी ठाकरे थे और वो भी ठाकरे हैं. बालासाहेब के साथ इतनी समानता रखने वाले शख्‍स का नाम है राज ठाकरे. सभी यही मान रहे थे कि बालासाहेब के सियासी वारिस राज ठाकरे ही होंगे, लेकिन ऐसा नहीं हो सका और राज ठाकरे ने महाराष्‍ट्र नवनिर्माण सेना के साथ अपनी सियासी पारी को नई दिशा दी. हालांकि आज करीब 20 साल बाद राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे के साथ एक मंच पर आए. उद्धव ठाकरे ने मंच से एलान किया है कि साथ आए हैं और साथ ही रहेंगे. दोनों भाइयों का साथ आना कई कारणों से दोनों के लिए ही बेहद जरूरी भी है. 

1988 में बालासाहेब के भतीजे राज ने राजनीति में प्रवेश किया था. बालासाहेब के बेटे उद्धव भी पार्टी की जनसभाओं में बालासाहेब और राज के साथ जाते तो थे, लेकिन तस्वीरें खींचने में मशगूल रहते. 1992 के बाद से उद्धव ने भी सक्रिय तौर पर शिव सेना के लिए काम करना शुरू किया. उद्धव शालीन और शांत स्वभाव के माने जाते थे जबकि राज को चमक-दमक पसंद थी और वे अपने चाचा बालासाहेब की तरह गर्म मिजाज के थे. राज को शिव सेना की छात्र इकाई भारतीय विद्यार्थी सेना का प्रमुख बनाया गया था. उन्हें मराठी युवाओं को रोजगार दिलाने के लिए खड़ी की गई शिव उद्योग सेना का भी प्रभारी बनाया गया, जिसने 1995 में पॉप स्टार माइकल जैक्सन को एक शो करने के लिए मुंबई आमंत्रित किया था.

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राज ठाकरे के तेवर और बालासाहेब ठाकरे के व्यक्तित्व से उनके व्यक्तित्व की समानता को देखते हुए सभी यही मान रहे थे कि बालासाहब के सियासी वारिस राज ठाकरे ही होंगे, लेकिन इस बीच एक घटना ने राज ठाकरे के सियासी करियर को बड़ा नुकसान पहुंचाया. वो घटना थी रमेश किणी नाम के शख्स की रहस्यमय मौत. 23 जुलाई 1996 को मुंबई के दादर इलाके में रहने वाले किणी पुणे के एक सिनेमा हॉल में मृत पाए गए. किणी की पत्नी शीला ने आरोप लगाया कि उन्हें सामना दफ्तर में बुलाया गया था, जहां राज ठाकरे उन दिनों रोज जाते थे. शीला का कहना था कि उनका परिवार जिस किराये के घर पर रह रहा था, उसको जबरन खाली करवाने के लिए मकान मालिक राज ठाकरे के जरिए मानसिक तौर पर उन्हें प्रताड़ित कर रहे थे. 

क्‍लीन चिट, लेकिन सियासी नुकसान

इस मामले में पुलिस ने राज ठाकरे के खासमखास आशुतोष राणे को गिरफ्तार कर लिया. इस बीच विपक्ष की ओर से भी मामले को उठाया गया और बॉम्बे हाई कोर्ट के आदेश के बाद जांच सीबीआई को सौंप दी गई. सीबीआई ने राज ठाकरे से भी घंटों पूछताछ की. कुछ दिनों बाद इस मामले से राज ठाकरे को क्लीन चिट तो मिल गई, लेकिन इससे उन्हें सियासी तौर पर काफी नुकसान पहुंचा. इस दौरान राज के चचेरे भाई उद्धव पार्टी के भीतर उनके प्रतिदस्पर्धी बन गए थे और लगातार उनका वर्चस्व बढ़ रहा था.

आखिरकार 2003 में महाबलेश्वर के एक अधिवेशन में उद्धव ठाकरे को पार्टी का कार्याध्यक्ष घोषित कर दिया गया. उन्हें कार्याध्यक्ष घोषित करने का प्रस्ताव राज ठाकरे की ओर से ही पेश करवाया गया. राज ठाकरे ने दिल पर पत्थर रखकर उद्धव के नाम का एलान किया. सियासी गलियारों में यही माना जाता है कि ऐसा बालासाहेब की मर्जी से हुआ. कई लोग इसे बालासाहेब के पुत्रमोह में लिए गये फैसले के तौर पर देखते हैं. 

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राज-उद्धव में कैसे शुरू हुई तकरार

राज ठाकरे, बालासाहेब के सियासी वारिस बनते बनते रह गए, लेकिन पार्टी में रहते उद्धव और उनके बीच तकरार शुरू हो गई. उद्धव ठाकरे की ओर से राज ठाकरे के खेमे को दरकिनार किया जाने लगा. महानगरपालिकाओं और विधानसभा चुनावों में राज के लोगों को कम टिकट दिए जाते थे. अहम फैसलों में उन्हें शामिल नहीं किया जाता था. उधर राज का भी उद्धव से छत्तीस का आंकड़ा बनने लगा था. एक तरफ उद्धव ने मुंबई में रहने वाले तमाम भाषा के लोगों को एक साथ जोड़ने के लिए मी मुंबईकर अभियान शुरू किया तो राज ठाकरे के कार्यकर्ताओं ने कल्याण रेल स्टेशन पर रेल भर्ती परीक्षा के लिए आए यूपी-बिहार के परीक्षार्थियों की पिटाई कर दी. 27 नवंबर 2005 को राज ठाकरे ने अपने घर कृष्ण कुंज पर अपने समर्थकों की एक बैठक बुलाई और बड़ा एलान किया कि वो शिव सेना छोड़ रहे हैं. राज ने कहा कि क्लर्क उन दिनों शिव सेना चला रहे थे और उनके खिलाफ बालासाहेब के कान भर रहे थे, लेकिन बालासाहेब तब भी उनके लिए देवता समान रहेंगे. इसके अगले ही दिन सामना अखबार में एक संपादकीय छपा जिसमें राज पर कटाक्ष करते हुए लिखा गया – “शिव सेना किसी की निजी संपत्ति नहीं है. हिमालय की परछाई में रहने वाले खुद को हिमालय से बड़ा न समझें. जो लोग शिव सेना की पीठ में छुरा भोंक रहे हैं वे सोचें कि वो कहां होते अगर शिव सेना में न होते.” 

एक तरफ सामना में राज के खिलाफ ऐसे कड़वे शब्द छपे तो दूसरी तरफ सामना के कार्यकारी संपादक संजय राऊत उन्हें समझाने के लिए उनके घर पहुंचे. घर के बाहर मौजूद राज समर्थकों ने राऊत की कार में तोड़फोड़ कर दी. इस घटना के पहले राज कोंकण में चुनाव प्रचार की खातिर निकले थे लेकिन आधे रास्ते से ही लौट आए क्योंकि उन्हें किसी ने बताया कि उन्हें खत्म करने की साजिश रची गई है.

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बालासाहेब के रास्‍ते पर राज ठाकरे

तीन हफ्ते बाद राज ठाकरे ने अपनी नई पार्टी का एलान किया जिसका नाम दिया गया महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना यानी मनसे. साल 2006 की संस्थापना रैली में राज ने एलान किया कि उनकी पार्टी सभी समुदायों के हित के लिए काम करेगी और महाराष्ट्र को एक प्रगतिशील राज्य बनाएगी, लेकिन जल्द ही मनसे ने ठीक उसी तरह से मराठीवाद और परप्रांतीय विरोध का मुद्दा अपनाया जैसा कि उनके चाचा बालासाहेब ने शिव सेना गठित करते वक्त किया था.

राज ठाकरे ने शिव सेना पर निशाना साधते हुए आरोप लगाया कि वो अब मराठी हितों की बात नहीं करते हैं और मराठियों की असली खैरख्वाह मनसे है. महाराष्ट्र में मुंबई, पुणे, कल्याण और नासिक जैसे शहरों में यूपी, बिहार के लोगों पर मनसे कार्यकर्ताओं ने हमले किए. इन हमलों में कुछ लोगों की मौत भी हुई और हजारों की तादाद में उत्तर भारतीयों का पलायन हुआ. 

कांग्रेस-एनसीपी सरकार का नरम रवैया

इन हमलों के दौरान विलासराव देशमुख की अगुवाई में महाराष्ट्र की कांग्रेस-एनसीपी सरकार ने मनसे के प्रति नरम रवैया अपनाया. देशमुख जानते थे कि मनसे के विस्तार से कांग्रेस की दुश्मन शिव सेना के वोट कटेंगे और शिव सेना कमजोर हो जाएगी. 2009 के विधानसभा चुनाव में हुआ भी ऐसा ही. मनसे को तो महज 13 ही सीटें मिलीं लेकिन कई सीटों पर मनसे उम्मीदवारों की ओर से वोट काटे जाने के कारण शिव सेना उम्मीदवार हार गए.

शिव सेना के लिये सबसे शर्मनाक हार अपने गढ़ में ही झेलनी पड़ी, जिस माहिम विधानसभा क्षेत्र में शिव सेना भवन है, वहां की सीट भी मनसे के पास चली गई. कांग्रेस-एनसीपी को शिव सेना के वोट बंटने का फायदा मिला और वो फिर एक बार सत्ता पर काबिज हो गई. कई राजनीतिक पंडितों की फितरत होती है कि वे किसी भी घटना के बाद निष्कर्षों पर कूदने में देर नहीं करते और अक्सर आत्मविश्वास के साथ भविष्यवाणियां कर डालते हैं. 2009 के चुनावी नतीजों के बाद भी सियासी गलियारों में चर्चा होने लगी कि शिव सेना का अस्तित्व संकट में है और आने वाले वक्त में मनसे ही असली शिव सेना होगी.

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कई बार लगी साथ आने की अटकलें 

इस बीच कई बार अटकलें लगाई गईं कि उद्धव और राज पुराने गिले-शिकवे भुलाकर साथ आ सकते हैं. एक बार जब मातोश्री बंगले पर उद्धव को हार्ट अटैक आया तो चिंतित बाल ठाकरे ने फोन करके राज ठाकरे को मदद के लिए बुलाया. राज ठाकरे तुरंत पहुंच गए. मुंबई के लीलावती अस्पताल में सर्जरी के बाद जब उद्धव ठाकरे को डिस्चार्ज किया गया तो राज ने खुद गाड़ी चलाकर उन्हें घर तक पहुंचाया. दोनों की कार में अगल-बगल बैठे हुए तस्वीरों को राम-भरत मिलाप की तरह देखा गया और फिर से एक बार चर्चा शुरू हो गई कि राज और उद्धव साथ आएंगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. पारिवारिक रिश्ते तो बने रहे, लेकिन सियासी कड़वाहट में कोई कमी नहीं आई.

साल 2012 में बालासाहेब का निधन हो गया. जब तक बालासाहेब थे, तब तक शिव सैनिकों का पार्टी के प्रति भावनात्मक लगाव था लेकिन उद्धव के सामने बालासाहेब के बाद पार्टी चला पाना एक बड़ी चुनौती थी. ऐसे में उन्होंने राज ठाकरे के साथ सुलह करने का फैसला किया. उन्होंने अपने ही अखबार सामना में इंटरव्यू देकर परोक्ष रूप से राज ठाकरे को साथ आने की पेशकश की.

साल 2013 के इस इंटरव्यू में जब सामना के कार्यकारी संपादक संजय राऊत ने उद्धव से राज के साथ सुलह पर सवाल किया तो उद्धव ने कहा – “ताली एक हाथ से नहीं बजती. इस सवाल का जवाब मुझसे कैसे मांग सकते हैं? मैं जवाब देने को तैयार हूं, लेकिन जवाब ही चाहिए तो हम दोनों को एक साथ आमने-सामने बिठाओ. अगल-बगल बिठाओ फिर ये सवाल पूछो तो अच्छा होगा”.

उद्धव ठाकरे के इस इंटरव्यू से सनसनी फैल गई और लगा कि अब दोनों के फिर साथ आने की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी, लेकिन जो लोग ऐसा चाहते थे, राज ठाकरे ने उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया. इंटरव्यू के कुछ दिनों बाद राज ठाकरे ने कोल्हाहुर में एक जनसभा को संबोधित करते हुए साफ कह दिया कि उद्धव के साथ सुलह का उनका कोई इरादा नहीं है और न ही वे शिव सेना के साथ कोई गठबंधन करेंगे.

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राजनीति के आगे राज ने रिश्ते को दी तरजीह

इसके बाद राज और उद्धव के बीच सियासी कटुता बरकरार रही लेकिन साल 2019 में राज ने राजनीति के आगे पारिवारिक रिश्ते को तरजीह दी. उस साल हुए विधानसभा चुनाव में जब शिवसेना ने वर्ली सीट से उद्धव के बेटे आदित्य को चुनाव लड़ाने का फैसला किया तो राज ठाकरे ने वहां से अपना कोई उम्मीदवार नहीं खड़ा किया. राज ठाकरे चाहते थे कि उनका भतीजा आदित्य वहां से चुनाव जीते. आखिर पहली बार ठाकरे परिवार से कोई चुनाव लड़ रहा था. 

आदित्य ठाकरे चुनाव जीत गए क्योंकि एक तरह से उन्हें चाचा राज ठाकरे का भी समर्थन मिल गया, लेकिन उद्धव ठाकरे ने ऐसी नरमदिली राज के बेटे के प्रति नहीं दिखाई. राज ठाकरे ने 2024 के विधानसभा चुनाव में जब पहली बार अपने बेटे अमित को चुनाव में उतारा तो उद्धव ठाकरे ने भी वहां से अमित के खिलाफ अपना उम्मीदवार खड़ा किया जो जीत भी गया, अगर उद्धव ठाकरे का समर्थन मिला होता तो अमित ठाकरे भी आदित्य की तरह अपने सियासी करियर का पहला चुनाव जीत जाते.

नाजुक दौर से गुजर रहा सियासी करियर 

आज उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे दोनों का सियासी करियर बड़े ही नाजुक दौर से गुजर रहा है. उद्धव ठाकरे से उनकी पार्टी का नाम और चुनाव चिह्न छिन गया और तमाम बड़े नेता बागी एकनाथ शिंदे के साथ हो लिए. वहीं राज ठाकरे के सामने अपनी पार्टी को जिंदा रखने की चुनौती है. राज ठाकरे के पास आज शून्य विधायक और शून्य सांसद हैं. ऐसे में दोनों भाइयों के पास मौजूदा हालात से उबरने के लिए राजनीतिक रूप से साथ आना एक विकल्प हो सकता है. 

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