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This Article is From Jan 15, 2020

किताब-विताब : लोक और भाषा के रस में पगा उपन्यास

यह हिंदी सिर्फ़ भाषिक ज्ञान से उत्पन्न नहीं हुई है, बल्कि देशकाल की बहुत गहरी समझ के साथ और परंपरा के बहुत सारे रूपों में बहुत गहरे उतर कर अर्जित की गई है.

किताब-विताब : लोक और भाषा के रस में पगा उपन्यास

एक रंगकर्मी और रंग निर्देशक के रूप में हृषीकेश सुलभ की पहचान इतनी प्रबल रही है कि इस बात की ओर कम ही ध्यान जाता है कि वे बहुत समर्थ कथाकार भी रहे हैं. उनका नया‌ उपन्यास 'अग्निलीक' हमें मजबूर करता है कि हम उन्हें समकालीन उपन्यासकारों की भी प्रथम पंक्ति में रखें.

'अग्निलीक' एकाधिक वजहों से हमारे समय का महत्वपूर्ण उपन्यास है. इसे पढ़ते हुए सबसे पहले इसकी भाषा पर ध्यान जाता है. इतनी चाक्षुष, ऐंद्रिक और समृद्ध हिंदी लिख सकने वाले लोग हमारे समय में अंगुलगण्य भी नहीं हैं. इस भाषा में बहुत सारी तहें हैं. शुद्ध तत्सम शब्दावली के औदात्य से लेकर ठेठ देशज ठाठ तक परंपरा के सौंदर्य और मिट्टी की सुवास से भरी यह भाषा इतनी वेगमयी है कि पाठक लगभग मुग्ध भाव से इससे बंधा रहता है. यह न‌ कंकड़दार किताबी हिंदी है न सपाट-सरलीकरणों वाली तथाकथित नई हिंदी- यह जातीय स्मृति के विराट वृक्ष की उलझी हुई शाखाओं-प्रशाखाओं के बीच से निकलती, बहुत जटिल यथार्थ के तंतुओं को बारीकी से पकड़ती, मन‌ और माटी के मर्म को साधती और बहुत सारे चरित्रों की भाषा में बतियाती ऐसी समृद्ध, समर्थ और संप्रेषणीय हिंदी है जिसे बार-बार पढ़ने का मन करता है. साफ़ है कि यह हिंदी सिर्फ़ भाषिक ज्ञान से उत्पन्न नहीं हुई है, बल्कि देशकाल की बहुत गहरी समझ के साथ और परंपरा के बहुत सारे रूपों में बहुत गहरे उतर कर अर्जित की गई है. यह भाषा तभी संभव होती है जब आप शास्त्रीय अध्ययन के अलावा घर-गृहस्थी, खेती-बाड़ी, किसानी-मजदूरी, लोहारी-सुनारी,‌ गांव-जवार, नदी-नालों, पोखर-तालाबों, लताओं और वृक्षों की भाषा से भी परिचित हों और यह भी जानते हों कि जो अनबोला है, उसे कैसे व्यक्त करें.

उपन्यास की दूसरी ख़ासियत यहीं से निकलती है. यह उपन्यास एक स्तर पर- बल्कि मूलतः- एक आंचलिक उपन्यास है. हालांकि यह कहने के ख़तरे बहुत हैं. आंचलिक उपन्यास का नाम लेते ही सबको बरबस फणीश्वरनाथ रेणु और 'मैला आंचल' और 'परती परिकथा' जैसे उनके उपन्यास याद आ जाते हैं. साथ ही ‌‌‌आंचलिकता का ऐसा ठप्पा लग जाता है कि लोग यह देखने की जहमत भी नहीं उठाते कि इस आंचलिकता में कितनी विश्वजनीनता समाई हुई‌ है.‌‌‌‌‌‌‌ न‌ रेणु सिर्फ आंचलिक थे और न हृषीकेश सुलभ हैं.  ‌‌‌‌‌‌‌

दरअसल इस उपन्यास को पढ़ते हुए रेणु की याद आना स्वाभाविक है. 50 के दशक के भारतीय गांव की जो कहानी रेणु ने लिखी थी, इक्कीसवीं सदी में वह बहुत दूर तक बदल चुका है. पहले टोलो में बंटी सामाजिकता के बीच जो राजनीतिक दांव-पेच थे, उनकी सारी विडंबनाओं के बावजूद उनमें एक बुनियादी मनुष्यता की आभा शेष थी, लेकिन अब जो नया य़थार्थ है, वह कहीं ज़्यादा मरणांतक घात-प्रतिघात से भरा है, उसमें मनुष्यता है लेकिन पहले से कहीं ज़्यादा लथपथ. इस लथपथ समय की कथा हृषीकेश सुलभ ने बहुत बड़े मंच पर लिखी है. इस मंच पर तरह-तरह के किरदार आते-जाते हैं, तरह-तरह की पीढ़ियां आती जाती हैं और हम ऐसी कहानी या कहानियों रूबरू होते हैं जो हमारे समकालीन समय और समाज का आईना बन जाती हैं. रेणु ने कोसी के अंचल की कहानी लिखी थी, हृषीकेश सुलभ ने घाघरा से लगे गांवों को अपनी कथाभूमि बनाया है, लेकिन कुछ इस विस्तार और गहराई से कि यह सिर्फ़ एक अंचल की कथा नहीं रह जाती है, वह सामंतवाद की बहुत मज़बूत पकड़, चुनावी राजनीति से उसके गठजोड़ और इससे मुक़ाबला करने की अस्मितावादी छटपटाहट की गाथा भी बन जाती है.

पठनीयता इस उपन्यास की तीसरी ख़ासियत है. यह पठनीयता भाषिक चमत्कार से नहीं निकली है. एक कई सूत्रों को पिरोकर एक बड़ी कथा बनाने के कौशल का नतीजा है. उपन्यास का पहला ही वाक्य है- ‘शमशेर सांई की हत्या हो गई थी.‘ मंदिर से पांच सौ गज दूर, बीच सड़क पर इस शख़्स को बहुत वीभत्स तरीक़े से मारा गया है- यह उपन्यास की अगली कुछ पंक्तियों से समझ में आता है. यह सवाल सबके जेहन में है कि शमशेर सांई जैसे मज़बूत शख़्स को कौन मार सकता है? लेकिन यह अपराध-कथा या जासूसी उपन्यास नहीं है, यह एक अपराध से शुरू होकर एक पूरे इलाके की सामाजिक-राजनीतिक विडंबनाओं की शिनाख्त का दस्तावेज़ बन जाता है. उपन्यास में एक के बाद एक कथाएं खुलती जाती हैं. एक कथा गांव के मुखिया लीलाधर यादव की है, जिनके पिता अकलू यादव कभी रासबिहारी चौधरी की खेती संभालते थे, डकैती के एक झूठे मुक़दमे में फंसाए गए, सात साल की जेल काटी, लौट कर आए तो गृहस्थ बनते-बनते डकैत बन बैठे और अंततः बदला लेने की कोशिश में मारे गए. पढ़ाई-लिखाई में लीन रहने वाले लीलाधर यादव की ज़िंदगी अपने पिता की लाश देखकर बदल गई.

एक सिरे पर जमींदारी, दबंगई, डकैती से लेकर मुखियागीरी और सरपंची तक और दूसरे सिरे पर शोषण, पिटाई, यौन उत्पीड़न, अपमान और प्रतिशोध तक के आपस में बेहद उलझे हुए लेकिन आपस में बुरी तरह जुड़े हुए तारों के बीच जिस सार्वजनिक ग्राम्य या कस्बाई जीवन का खाका हृषीकेश सुलभ खींचते हैं, वह हमें एक स्तर पर स्तब्ध छोड़ जाता है. पुराने सामंती अहंकार की ढहती हुई भीतों के बीच उगती नई विडंबनाओं की बेलें बड़ी आसानी से पहचान में आ जाती हैं.

निस्संदेह, इन विडंबनाओं के बीच कुछ बदलाव प्रीतिकर भी हैं. उपन्यास के महिला चरित्र उसकी अलग ताकत हैं. लीलाधर यादव की मां जसोदा अपने पहले प्रेम को नहीं भूली है और उसी के नाम पर उसने अपने बेटे का नाम लीलाधर रखा है. एक बहुत सूनी और कई दुर्भाग्यों से सनी जिंदगी जीते हुए भी उसने अपने भीतर का प्रतिरोध बचाए रखा है और आने वाली पीढ़ियों को सौंपने को तैयार है. इसी तरह रेशमा, गुल बानो, मुन्नी भी जैसे अद्भुत चरित्र हैं. जो पिट कर भी, बदनामी झेलते हुए भी, अपने स्त्रीत्व की सीमाओं के पार जाकर अपने वजूद के लिए लड़ते हुए, तमाम तरह के विद्रूप झेलते हुए, अपने दुखों के बीच अपना घर बनाते हुए अंततः जीवन को सहनीय और सुंदर बनाती हैं. ये कथाएं इस उपन्यास का बहुत मार्मिक पक्ष हैं.

उपन्यास में कथाएं और भी हैं- गांवों में बिकती ज़मीनों की, शहर में बैठकर गांव की जमीन और राजनीति दोनों साधने की, पुलिस के वीभत्स चरित्र की, जिसका आईना गरभू पांड़े है- सांप्रदायिकता और जातिवाद की लगातार बनी रहने वाली सच्चाई की और इन सबके भीतर नए सामाजिक उभारों की- रज्जन पासवान जिसका प्रतीक है, और उन लोकतांत्रिक मजबूरियों की, जिसमें सब अपना-अपना समीकरण बिठाने को मजबूर हैं, न बदलने वाली सामंती ठसक की, जिसके चेहरे पिंटू सिंह और सुजीत सिंह जैसे नौजवान हैं और बदल रही दुनिया की, जिसमें मनोहर और रेवती हैं- इन सबको मिलाकर भारतीय गांवों का नया महासागर बनता है.

हृषीकेश सुलभ निश्चय ही इस उपन्यास के लिए बधाई के पात्र हैं. लेकिन एक बात काले टीके की तरह जोड़नी होगी. जब आप इतना बड़ा उपन्यास लिखते हैं तो उसके सारे किरदारों को संभालना, एक सूत्र में जोड़ना, उन्हें पाठकों की स्मृति में इस तरह बसाना कि वे कथा के अविभाज्य हिस्से की तरह लगें- आसान नहीं होता. इस उपन्यास में भी यह मुश्किल दिखाई देती है. कहानियां आपस में जुड़ती हैं, लेकिन फिर भी टूटन रह जाती है. वे स्वतंत्र या समानांतक कथाओं का सुख देती हैं, लेकिन एक संपूर्ण विन्यास कुछ बिखरता सा लगता है. लेकिन यह उन तमाम उपन्यासों की नियति होती है जो इतने बड़े फलक पर लिखे जाते हैं.

दूसरी बात यह कि अंततः यह बात खुल कर सामने नहीं आती कि आखिर शमशेर सांई को किसने और किसलिए मारा. जबकि कहानी यहीं से शुरू होती है. अचानक हम पाते हैं कि उपन्यासकार ने उत्सुकता और उलझन का जो सूत्र दिया था, वह बीच में ही कहीं अटका रह गया है.

लेकिन इन बहुत मामूली सी शिकायतों के बावजूद यह लोक और भाषा के रस में पगा ऐसा उपन्यास है जिसे पढ़ना अपनी भाषा का उत्सव मनाने सरीखा लगता है. कह सकते हैं कि कोई ठेठ और वीतरागी आलोचना दृष्टि इस पर भी सवाल उठा सकती है, लेकिन यह उपन्यास अपनी एक अलग लीक बनाता है.

अग्निलीक: हृषीकेश सुलभ; राजकमल प्रकाशन; 250 रुपये

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