ये वो वक्त है जब आपको थोड़ा ज़ोर लगाना पड़ेगा, क्योंकि आपको जिस आदत, सोच और सामाजिकता को बदलना है, वो सालों से जमी, बहुत पुरानी गहरी सोच है। ये दूसरों के साथ ख़ुद को बदलने का भी वक्त है। चलने का, और चलने देने का वक़्त है। इसे बदलने के लिए कोशिश भी लंबी ही होगी, क्योंकि ये हमारी आदत में गहरी बैठ गई है। जब हम गाड़ी चलाना शुरू करते हैं तो पैदल यात्रियों को रुकावट मानते हैं और ये भूल जाते हैं कि जब हम पैदल निकलते हैं तो गाड़ियों की मनमानी कितना परेशान करती है। और इस फ्रिक्शन के बीच तनाव इतना बढ़ जाता है कि पैदल और गाड़ी वाला दोनों ही आपा खो देते हैं।
बिना ये समझे हुए कि हमारी ट्रैफ़िक व्यवस्था एक ऐसे दुश्चक्र में चली गई है जिसे रोकना बड़ी चुनौती है। इसी का नतीजा है कि हर दिन की शुरुआत अब सड़कों पर "दिखाई नहीं देता", "अंधा है क्या", "किनारे क्यों नहीं चल सकता है", "ख़ुदकुशी का शौक़ है क्या" जैसे डायलोग से होती है। और शुरुआत ऐसी होगी तो पूरा दिन कैसा होगा, इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
अब थोड़ी तसल्ली से देखिए तो पता चल जाएगा कि ये दुश्चक्र दरअसल काफ़ी सीधा सरल है। पहला हिस्सा है फ़ुटपाथ। देशभर की सड़कों को देखें तो आपको पता चलेगा कि कहीं पर भी फ़ुटपाथ नहीं हैं। फ़ुटपाथ हैं भी तो या तो उन पर रेहड़ी वालों ने क़ब्ज़ा कर लिया है या कूड़ेदान के रूप में इस्तेमाल हो रहा है या फ़ुटपाथ इतने ऊंचे हैं कि चढ़ना और उतरना नामुमकिन सा हो गया है या फिर ऐसी टूटी-फूटी हालत में है जिसपर चलना मुश्किल होता है। और फिर इसका नतीजा - लोग सड़कों पर पैदल चलने को मजबूर।
दूसरा हिस्सा यह है कि जब पैदल सड़कों पर चलेंगे तो गाड़ियां कहां जाएंगी? और यहीं पर आकर ऐसा तनाव और ऐसा टकराव होता है जो हम रोज़ झेलते हैं। और इस टकराव का नतीजा क्या होता है? सालाना 15 हज़ार के आसपास पैदल यात्रियों की मौत। जिसमें ये समझने वाली बात है कि इन मौत के पीछे केवल गाड़ियों की ग़लती नहीं होती है। ग़लती चाहे ड्राइवर की हो, पैदल यात्री की हो या फिर प्रशासन की, नतीजा भुगतते हैं पैदल यात्री ही। इसीलिए इन्हें सबसे असुरक्षित रोड यूज़र कहा जाता है।
तीसरा हिस्सा यह है कि सड़क पर दिन-ब-दिन बढ़ते ख़ौफ़ और असुविधा के चलते लोग अब हर क़ीमत पर पैदल चलने से बच रहे हैं। कार नहीं तो स्कूटर का इस्तेमाल कर रहे हैं। अब सुबह की सैर से लेकर सब्ज़ी लाने तक के लिए मिडल क्लास कार या स्कूटर पर जा रहा है। यानि पैदल यात्री ये मान बैठे हैं कि अब सड़क पर उनकी जगह नहीं रही है। लेकिन उन लोगों का क्या जिनकी मजबूरी है पैदल चलना, देश की तीस फ़ीसदी आबादी। जिसके पास अपनी कार या टू व्हीलर नहीं है। उनका क्या? उनका हश्र हम देख ही रहे हैं।
हाल ही में दिल्ली में पैदल यात्रियों की मौत के आंकड़े आए हैं। जो चौंकाने वाले हैं, लेकिन कम ही लोग चौंक रहे हैं। साल 2013 में दिल्ली में कुल 749 पैदल यात्रियों ने अपनी जान गंवा दी। दिल्ली की ट्रैफ़िक, ग़ैर-ज़िम्मेदार ड्राइवर, लोगों की लापरवाही और ख़राब रोड डिज़ाइन ने साढ़े सात सौ परिवारों को ज़िंदगीभर का दुख दे दिया। और सोचिए दिल्ली में हालत कितनी ख़राब है कि सड़क हादसों में मारे जाने वालों में से 41 फ़ीसदी पैदल यात्री हैं। जबकि देशभर में ये औसत दस फ़ीसदी से कुछ ही ऊपर है।
अब दिल्ली ट्रैफ़िक पुलिस कुछ कोशिश कर रही है। पुलिस ने लोगों से फिर फ़ुटपाथ पर हक़ जताने की अपील की है। और ये भी कहा है कि जहां भी फ़ुटपाथ पर किसी तरीके की बनावटी रुकावट, क़ब्ज़ा या पार्क की गई गाड़ियां देखें उसे नज़रअंदाज़ न करें। उसके फ़ोटो खींचे और ट्रैफ़िक पुलिस के फ़ेसबुक पेज या वाट्सऐप पर भेजें। इसलिए लिए मोबाइल नंबर भी दिया गया है 8750871493...।
ज़रूरत है सभी शहरों में अभी से इस तरह की मुहिम शुरू की जाए, लोगों की सोच बनाई जाए। अगर आज हम ये कोशिश नहीं करेंगे तो फिर आने वाले कल में ये समस्या ऐसी शक्ल ले लेगी जिसका अंदाज़ा लगाना आज से कुछ साल पहले नामुमकिन था।
कुछ लोगों ने पैदल चलने की कोशिश की है, राहगिरि के नाम से और देश के कई हिस्सों में रविवार की सुबह अब गाड़ियों का चलना बंद करवा कर शहर के किसी एक कोने में पैदल चल रहे हैं। सभी शहरों में चलने के ऐसे हक़ को वापस लेने की ज़रूरत है, और दिन के चंद घंटे नहीं, चौबीस घंटे।
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