
उच्चतम न्यायालय ने महिलाओं को सुरक्षा देने के लिए सहजीवन (लिव-इन) संबंध को शादी की तरह के रिश्ते के दायरे में लाने और इस तरह उसे घरेलू हिंसा विरोधी कानून के तहत लाने को लेकर कुछ दिशा-निर्देश तय किए हैं। इनमें संबंध की अवधि, एक ही घर में रहना और वित्तीय संसाधनों में सहभागिता समेत कई अन्य मुद्दे शामिल हैं।
न्यायमूर्ति केएस राधाकृष्णन और न्यायमूर्ति पिनाकी चंद्र घोष की पीठ ने कहा कि हालांकि इस मामले में सिर्फ यह आठ दिशा-निर्देश ही पर्याप्त नहीं हैं, लेकिन इनसे ऐसे रिश्तों को तय करने के मामले में कुछ हद तक मदद जरूर मिल सकेगी।
सहजीवन संबंध को मान्यता देने के लिए दिशा-निर्देश तय करते हुए पीठ ने कहा कि वित्तीय और घरेलू इंतजाम, परस्पर जिम्मेदारी का निर्वाह, यौन संबंध, बच्चे को जन्म देना और उनकी परवरिश करना, लोगों से घुलना-मिलना तथा संबंधित लोगों की नीयत और व्यवहार कुछ ऐसे मापदंड हैं, जिनके आधार पर संबंधों के स्वरूप के बारे में जानने के लिए विचार किया जा सकता है।
पीठ ने कहा कि संबंध की अवधि के दौरान घरेलू हिंसा विरोधी कानून की धारा 2 (एफ) के तहत स्थिति पर विचार हो सकता है और हर मामले तथा स्थिति के हिसाब से संबंध का स्वरूप तक तय किया जा सकता है।
उच्चतम न्यायालय की पीठ ने कहा कि घरेलू इंतजाम, कई घरेलू जिम्मेदारियों को निभाना मसलन सफाई, खाना बनाना, घर की देखरेख करना संबंध के विवाह के स्वरूप में होने के संकेत देते हैं।
न्यायालय ने सहजीवन में रहने वाले एक दंपती के बीच के विवाद का निपटारा करते हुए यह आदेश पारित किया। इस मामले में महिला ने रिश्ता खत्म होने के बाद पुरुष से गुजारा भत्ते की मांग की थी।
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