फाइल फोटो
नई दिल्ली:
केदारनाथ में आई बाढ़ और तबाही को दो साल पूरे हो गये हैं लेकिन केंद्र सरकार अब तक सुप्रीम कोर्ट के एक सवाल का जवाब नहीं दे पाई है। यह एक ऐसा सवाल है जो तय करेगा कि हिमालय में विकास की दिशा क्या होगी और वहां तरक्की का क्या मॉडल अपनाया जायेगा।
जून 2013 में हिमालय ने अपने इतिहास की सबसे बड़ी आपदा देखी। केदारनाथ में आई बाढ़ में हज़ारों लोगों की जान गई। मौत का सरकारी आंकड़ा छह हज़ार के आसपास है लेकिन यह सब जानते हैं कि उत्तराखंड में इससे कहीं अधिक लोगों की जान गई। कई घर तबाह हुये और करोड़ों की संपत्ति बह गई।
दो साल बाद भी कई सवालों के जवाब मिलने बाकी हैं। इंतज़ार सुप्रीम कोर्ट की ओर से किये गये उस सवाल के जवाब का भी है जिसमें अदालत ने सरकार से पूछा कि केदारनाथ त्रासदी में उत्तराखंड में बन रहे बांधों का क्या रोल है? दो साल बाद अब भी सरकार इस सवाल का जवाब टाल रही है।
इसी महीने तीन जून को केंद्र सरकार ने एक नया आदेश जारी कर एक नई कमेटी बनाई है। यह कमेटी केदारनाथ त्रासदी पर अब तक दी गई सारी रिपोर्ट को रिव्यू करेगी। सरकार ने अदालत में कहा था कि वह कुछ एक्सपर्ट्स को कमेटी में शामिल कर एक बार फिर से उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्र में बांधों के असर पर अपनी रिपोर्ट देगी।
लेकिन सरकार ने पहले बनाई गई रवि चोपड़ा कमेटी के एक सदस्य को छोड़कर सारे सदस्य बदल दिये हैं। केंद्र सरकार कह रही है कि पैनल की ये नियुक्ति नियमों के तहत और कोर्ट के आदेश के मुताबिक हुई है लेकिन नदियों और हिमालय के पर्यावरण के लिये लड़ रहे लोग इस फैसले से खुश नहीं हैं।
बांधों, नदियों और इंसानी ज़िंदगी पर उनके असर का लंबे समय से अध्ययन कर रहे हिमांशु ठक्कर कहते हैं, ‘केंद्र सरकार और उत्तराखंड सरकार उत्तराखंड के लोगों की ज़िंदगी और गंगा के अस्तित्व के साथ खिलवाड़ कर रही है। कुछ बांध कंपनियों के मुनाफे को अहमियत देते हुये सुप्रीम कोर्ट को गुमराह किया जा रहा है। सरकार ने एक तरफ पहले हलफनामा देकर कहा कि बांधों का आपदा में हाथ था। फिर कोर्ट को भरोसा दिलाया कि वह पुरानी कमेटी में कुछ जानकार शामिल कर अब तक की रिपोर्ट्स का रिव्यू करायेगी। लेकिन अब जो नई कमेटी बनी है उसमें कोई स्वतंत्र लोग नहीं हैं। ऐसा लगता है कि सरकार किसी बांध लॉबी के दबाव में काम कर रही है।’
कोर्ट ने जब 2013 में सरकार को बांधों के रोल की जांच करने के आदेश दिये तो रवि चोपड़ा कमेटी बनाई गई जिसकी रिपोर्ट उत्तराखंड के बांधों के खिलाफ रही। चोपड़ा कमेटी ने बांधों को ख़तरनाक बताया और कहा कि केदारनाथ आपदा में इन बांधों का निश्चित रोल था। वाइल्डलाइफ इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया ने भी बांधों पर सवाल खड़े किये। इसे बाद विनोद तारे कमेटी बनी जिसने राज्य में विशेषकर 6 बांधों को बारे में खास रिपोर्ट दी और उन्हें ख़तरनाक बताया। इसके बाद सरकार ने भी अदालत में कहा कि बांध खतरनाक हैं। लेकिन इसी साल जनवरी में प्रधानमंत्री कार्यालय में हुई बैठक के बाद सरकार पलट गई और काफी विवाद हुआ था।
यमुना जिये अभियान से जुड़े और पूर्व आईएफएस अधिकारी मनोज मिश्रा कहते हैं, ‘अब तक सारी कमेटियों ने बड़े बड़े बांधों के खिलाफ रिपोर्ट दी है लेकिन सरकार के रुख को देखकर लगता है कि वह हर हाल में किसी कमेटी से वह बात कहलवा देना चाहती है जो अब तक किसी कमेटी ने नहीं कही है।’
जून 2013 में हिमालय ने अपने इतिहास की सबसे बड़ी आपदा देखी। केदारनाथ में आई बाढ़ में हज़ारों लोगों की जान गई। मौत का सरकारी आंकड़ा छह हज़ार के आसपास है लेकिन यह सब जानते हैं कि उत्तराखंड में इससे कहीं अधिक लोगों की जान गई। कई घर तबाह हुये और करोड़ों की संपत्ति बह गई।
दो साल बाद भी कई सवालों के जवाब मिलने बाकी हैं। इंतज़ार सुप्रीम कोर्ट की ओर से किये गये उस सवाल के जवाब का भी है जिसमें अदालत ने सरकार से पूछा कि केदारनाथ त्रासदी में उत्तराखंड में बन रहे बांधों का क्या रोल है? दो साल बाद अब भी सरकार इस सवाल का जवाब टाल रही है।
इसी महीने तीन जून को केंद्र सरकार ने एक नया आदेश जारी कर एक नई कमेटी बनाई है। यह कमेटी केदारनाथ त्रासदी पर अब तक दी गई सारी रिपोर्ट को रिव्यू करेगी। सरकार ने अदालत में कहा था कि वह कुछ एक्सपर्ट्स को कमेटी में शामिल कर एक बार फिर से उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्र में बांधों के असर पर अपनी रिपोर्ट देगी।
लेकिन सरकार ने पहले बनाई गई रवि चोपड़ा कमेटी के एक सदस्य को छोड़कर सारे सदस्य बदल दिये हैं। केंद्र सरकार कह रही है कि पैनल की ये नियुक्ति नियमों के तहत और कोर्ट के आदेश के मुताबिक हुई है लेकिन नदियों और हिमालय के पर्यावरण के लिये लड़ रहे लोग इस फैसले से खुश नहीं हैं।
बांधों, नदियों और इंसानी ज़िंदगी पर उनके असर का लंबे समय से अध्ययन कर रहे हिमांशु ठक्कर कहते हैं, ‘केंद्र सरकार और उत्तराखंड सरकार उत्तराखंड के लोगों की ज़िंदगी और गंगा के अस्तित्व के साथ खिलवाड़ कर रही है। कुछ बांध कंपनियों के मुनाफे को अहमियत देते हुये सुप्रीम कोर्ट को गुमराह किया जा रहा है। सरकार ने एक तरफ पहले हलफनामा देकर कहा कि बांधों का आपदा में हाथ था। फिर कोर्ट को भरोसा दिलाया कि वह पुरानी कमेटी में कुछ जानकार शामिल कर अब तक की रिपोर्ट्स का रिव्यू करायेगी। लेकिन अब जो नई कमेटी बनी है उसमें कोई स्वतंत्र लोग नहीं हैं। ऐसा लगता है कि सरकार किसी बांध लॉबी के दबाव में काम कर रही है।’
कोर्ट ने जब 2013 में सरकार को बांधों के रोल की जांच करने के आदेश दिये तो रवि चोपड़ा कमेटी बनाई गई जिसकी रिपोर्ट उत्तराखंड के बांधों के खिलाफ रही। चोपड़ा कमेटी ने बांधों को ख़तरनाक बताया और कहा कि केदारनाथ आपदा में इन बांधों का निश्चित रोल था। वाइल्डलाइफ इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया ने भी बांधों पर सवाल खड़े किये। इसे बाद विनोद तारे कमेटी बनी जिसने राज्य में विशेषकर 6 बांधों को बारे में खास रिपोर्ट दी और उन्हें ख़तरनाक बताया। इसके बाद सरकार ने भी अदालत में कहा कि बांध खतरनाक हैं। लेकिन इसी साल जनवरी में प्रधानमंत्री कार्यालय में हुई बैठक के बाद सरकार पलट गई और काफी विवाद हुआ था।
यमुना जिये अभियान से जुड़े और पूर्व आईएफएस अधिकारी मनोज मिश्रा कहते हैं, ‘अब तक सारी कमेटियों ने बड़े बड़े बांधों के खिलाफ रिपोर्ट दी है लेकिन सरकार के रुख को देखकर लगता है कि वह हर हाल में किसी कमेटी से वह बात कहलवा देना चाहती है जो अब तक किसी कमेटी ने नहीं कही है।’
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