यह ख़बर 29 जून, 2014 को प्रकाशित हुई थी

दिल्ली विश्वविद्यालय में उठापटक के बाद दाखिले मंगलवार से

फाइल फोटो

नई दिल्ली:

दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिला मंगलवार से शुरू होने की संभावना है। हालांकि बी-टेक और मैनेजमेंट स्टडीज कोर्सेज में इस साल दाखिले न करने पर प्रिंसीपलों की कमेटी सहमत है। यह प्रस्ताव दिल्ली विश्वविद्यालय को भेजा भी गया है, लेकिन अंतिम रूप से इसका फैसला यूजीसी की स्टैंडिग कमेटी की बैठक में ही होगा। इस खबर से कि सोमवार रात पहली कटऑफ लिस्ट और मंगलवार से दाखिले की प्रक्रिया शुरू होगी, हजारों छात्रों को एक राहत जरूर मिली है।

दुख की बात यह है कि अब तक दिल्ली विश्वविद्यालय के नोटिस बोर्ड और वेबसाइट पर आधिकारिक रूप से दाखिले को लेकर कोई खबर नहीं दी गई है।

स्वायत्ता बड़ी या छात्रों का भविष्य

आजकल दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षकों का एक धड़ा विश्वविद्यालय की स्वायत्तता को लेकर बड़ा चिंतिंत दिख रहा है। यूजीसी के उस पत्र को स्वायत्ता के लिए बड़ा खतरा माना जा रहा है जिसमें डीयू से चार साल का कोर्स खत्म करके तीन साल स्नातक पाठ्यक्रम में दाखिले देने के निर्देश दिए गए थे। हालांकि इस पत्र की भाषा ये आभास दिलाती थी कि सरकार के कहने से यूजीसी को इस तरह की चिट्ठी लिखने पर मजबूर होना पड़ा।

एकेडमिक कौंसिल के सदस्य राजेश झा सवाल उठाते हैं कि यूजीसी से पहले दिल्ली विश्वविद्यालय की स्थापना हो चुकी थी। दिल्ली विश्वविद्यालय का खुद का अपना एक्ट है और 1922 में विश्वविद्यालय इस एक्ट के जरिये बनी थी। जबकि उसी समानांतर एक्ट से यूजीसी का गठन 1956 में हुआ था। वे कहते हैं कि यूजीसी एक्ट 12 बी के तहत वह विश्वविद्यालय को केवल सलाह दे सकता है। लेकिन, डूटा की प्रेसीडेंट नंदिता नारायन का कहना है कि हर शख्श स्वायत्ता चाहता है, लेकिन विश्वविद्यालय की स्वायत्ता का मतलब वीसी का अहम कतई नहीं हो सकता है। विश्वविद्यालय की स्वायत्ता उसके पाठ्यक्रम और शैक्षिक गतिविधियों से जुड़ी है न कि किसी एक शख्श की मनमानी से।

लेकिन, इन सबसे ऊपर तमिलनाडु से आएश्री कुमार और गुना से आई अंकिता जैसे हज़ारों छात्रों का भविष्य है जो 97 और 98 फीसदी नंबर लेकर बीते कई दिनों से दिल्ली विश्वविद्यालय की चौखट पर दाखिले पाने के लिए चक्कर लगा रहे हैं। उनके माता पिता छुट्टी लेकर दूर-दूर से आए हैं, लेकिन यहां नोटिस बोर्ड और वेबसाइट पर कोई सूचना न देखकर परेशान हैं।

नुकसान किसका डीयू या छात्रों का

सवाल उठ रहे हैं कि आखिरकार दस दिनों तक दाखिले पर चली इस अनिश्चितता का जिम्मेदार कौन और नुकसान किसका हुआ। अनिश्चितता का जिम्मेदार वह रवैया है जो सरकारों के दबाव में काम करता है। फिर इसे साख का सवाल बना लेता है। पिछले साल जब चार साल का कोर्स लागू किया गया तो वर्तमान वाइस चांसलर दिनेश सिंह इसके फायदे को छात्रों को समझाने में नाकाम रहे। शिक्षकों को भी भरोसे में नहीं लिया गया। उनसे ये पूछा जाना चाहिए कि आखिरकार इसे लागू करने को लेकर वह इतनी जल्दबाजी में क्यों थे।

जानकारों का कहना है कि चार साल के कोर्स में उस वक्त के तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल दिलचस्पी दिखा रहे थे। इसी के चलते डीयू के वाइस चांसलर ने तमाम आपत्तियों को दरकिनार कर इसे लागू किया। लेकिन, सवालों के घेरे में यूजीसी की सक्रियता भी है जो सालभऱ पहले इस कोर्स के लागू होने पर खामोश रही और बीजेपी की सरकार आने पर उसे चार साल के कोर्स में तमाम खामियां नज़र आने लगी।

यूजीसी को समझना होगा कि उसका काम शिक्षा की बेहतरी की दिशा में विश्वविद्यालय को सलाह और अनुदान देना है, न कि सरकारों की चापलूसी करना है। सबसे ज्यादा नुकसान दिल्ली विश्वविद्यालय की उस साख को हुआ जिसके चलते देश के अलग-अलग जगहों के मेधावी छात्र डीयू की ओर रुख करते हैं, उनका भरोसा डगमगाया है।

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पार्टी की राजनीति जब विश्वविद्यालय में एजेंडा के तौर पर लागू होती है, विचारधारा के तौर पर फैलती है, तब शिक्षा की मूल आत्मा दम तोड़ने लगती है। लेकिन विश्वविद्यालय को शिक्षा देने के मूल स्वरूप पर कायम रहना चाहिए। तभी वह छात्रों के भरोसे को जिंदा रख पाएगी।