फिल्म शोरगुल का पोस्टर
नई दिल्ली:
इस हफ़्ते काफ़ी जद्दोजहद के बाद रिलीज़ हुई 'शोरगुल'। इसके निर्देशक हैं जितेंद्र तिवारी और प्रनव कुमार सिंह और फ़िल्म में अहम किरदार निभाए हैं आशुतोष राणा, जिमी शेरगिल, हितेन तेजवानी, नरेन्द्र झा,अनिरुद्ध दवे, सुहा गेज़न, संजय सुरी, एजाज़ ख़ान ने। स्पेशल अपिरियंस में नजर आई हैं ऋशिता भट्ट।
फ़िल्म मलियाबाद के लोगों के बीच साम्प्रदायिक सौहार्द के बीच शुरू होती है। यहां ज़ैनब और रघु अच्छे दोस्त हैं, पर रघु के मन में जैनब के लिए मोहब्बत पैदा हो जाती है। दो अलग धर्म होने के अलावा यहां मुश्किल ये भी है कि ज़ैनब की शादी तय हो चुकी है और यहीं से शुरू होती है दो सम्प्रदाय के लोगो के बीच जंग जिसका फ़ायदा ओम (जिमी शेरगिल) जैसे विधायक उठाना चाहते हैं, लेकिन इनके मंसूबों पर पानी फेरने के लिए इस शहर में चौधरी (आशुतोष राणा) जैसे लोग भी हैं जिनकी सोच गांधीवादी है। इन सबके बीच शहर में दंगा भड़कता है, नेता अपना खेल खलते है और इन्सानियत अपनी जगह पर अडिग है। ये थी कहानी की थोड़ी सी झलक...
और अब बात फ़िल्म की ख़ामियों की
फ़िल्म जिस तरह से शुरू होती है... एक शख्स एक स्कूटर पर निकलता है... उसे देख कर लगता है कि फ़िल्म वास्तविकता के करीब रहेगी। पर आगे चलकर निर्देशक बॉलीवुड के मायाजाल में फ़ंस जाते हैं। ट्रीटमेंट फ़िल्मी हो जाता है, फ़िल्म की कास्टिंग को लेकर भी मुझे आपत्ति है क्योंकि कुछ कलाकार फ़िल्म के किरदारों पर फ़िट नहीं बैठते। मसलन हितेन तेजवानी और सुहा जिन्होंने अहम किरदार निभाए हैं। माना कि फ़िल्म की कहानी में लव स्टोरी का बहुत बड़ा हाथ है पर स्क्रीन प्ले के दौरान इसे कुछ इस तरह से अंजाम देना चाहिए था ताकि फिल्म अपने रास्ते से न भटके। फ़िल्म गानों से बच सकती थी क्योंकि इस तरह की फ़िल्मों में गाने दर्शकों को बांधे रखने में बाधा पैदा करते हैं। मुश्किल तब हो जाती है जब एक भी गाना ज़ुबान पर चढ़ने लायक न हो। फ़िल्म के कई सीक्वेंस और कुछ डॉयलाग्स क्लीशे लगते हैं।
अब बात करते हैं खूबियों की
ये विषय उठाना अपने आप में निर्माता निर्देशक की अच्छी नीयत की तरफ़ इशारा करता है। हालांकि फ़िल्म के दौरान फ़िल्म के किरदारों को अगर वास्तविक ज़िदगी से जोड़ कर देखें तो फ़िल्मकारो का किसी ख़ास पार्टी या राजनेताओं की ओर झुकाव साफ़ नज़र आता है पर इनके सबके बीच इंसानियत का संदेश भी प्रभावशाली ढंग से देखने को मिलता है। फ़िल्म के मज़बूत स्तंभ हैं आशुतोष राणा और जिमी शेरगिल, जिनका अभिनय फ़िल्म को बांधे रखता है। यहां आशुतोष सकारात्मक किरदार में हैं और प्रभावशाली हैं। उन्हें देख कर एक बार फिर से आभास होता है कि हिन्दी सिनेमा ने इस अभिनेता को ढंग से इस्तेमाल नहीं किया। फ़िल्म के कुछ डायलॉग्स अगर क्लीशे है तो कुछ अच्छे भी हैं, फ़िल्म के कुछ सीक्वेंस प्रभावशाली ढंग से फ़िल्मए गए हैं और आप पर असर भी करते हैं।
यह फ़िल्म मुजफ्फर नगर के दंगो से प्रभावित होकर बनाई गई है, पर इसकी कहानी में सत्यता कितनी है यह कहना मुश्किल है। मेरी तरफ़ से इस फ़िल्म को 2.5 स्टार्स।
फ़िल्म मलियाबाद के लोगों के बीच साम्प्रदायिक सौहार्द के बीच शुरू होती है। यहां ज़ैनब और रघु अच्छे दोस्त हैं, पर रघु के मन में जैनब के लिए मोहब्बत पैदा हो जाती है। दो अलग धर्म होने के अलावा यहां मुश्किल ये भी है कि ज़ैनब की शादी तय हो चुकी है और यहीं से शुरू होती है दो सम्प्रदाय के लोगो के बीच जंग जिसका फ़ायदा ओम (जिमी शेरगिल) जैसे विधायक उठाना चाहते हैं, लेकिन इनके मंसूबों पर पानी फेरने के लिए इस शहर में चौधरी (आशुतोष राणा) जैसे लोग भी हैं जिनकी सोच गांधीवादी है। इन सबके बीच शहर में दंगा भड़कता है, नेता अपना खेल खलते है और इन्सानियत अपनी जगह पर अडिग है। ये थी कहानी की थोड़ी सी झलक...
और अब बात फ़िल्म की ख़ामियों की
फ़िल्म जिस तरह से शुरू होती है... एक शख्स एक स्कूटर पर निकलता है... उसे देख कर लगता है कि फ़िल्म वास्तविकता के करीब रहेगी। पर आगे चलकर निर्देशक बॉलीवुड के मायाजाल में फ़ंस जाते हैं। ट्रीटमेंट फ़िल्मी हो जाता है, फ़िल्म की कास्टिंग को लेकर भी मुझे आपत्ति है क्योंकि कुछ कलाकार फ़िल्म के किरदारों पर फ़िट नहीं बैठते। मसलन हितेन तेजवानी और सुहा जिन्होंने अहम किरदार निभाए हैं। माना कि फ़िल्म की कहानी में लव स्टोरी का बहुत बड़ा हाथ है पर स्क्रीन प्ले के दौरान इसे कुछ इस तरह से अंजाम देना चाहिए था ताकि फिल्म अपने रास्ते से न भटके। फ़िल्म गानों से बच सकती थी क्योंकि इस तरह की फ़िल्मों में गाने दर्शकों को बांधे रखने में बाधा पैदा करते हैं। मुश्किल तब हो जाती है जब एक भी गाना ज़ुबान पर चढ़ने लायक न हो। फ़िल्म के कई सीक्वेंस और कुछ डॉयलाग्स क्लीशे लगते हैं।
अब बात करते हैं खूबियों की
ये विषय उठाना अपने आप में निर्माता निर्देशक की अच्छी नीयत की तरफ़ इशारा करता है। हालांकि फ़िल्म के दौरान फ़िल्म के किरदारों को अगर वास्तविक ज़िदगी से जोड़ कर देखें तो फ़िल्मकारो का किसी ख़ास पार्टी या राजनेताओं की ओर झुकाव साफ़ नज़र आता है पर इनके सबके बीच इंसानियत का संदेश भी प्रभावशाली ढंग से देखने को मिलता है। फ़िल्म के मज़बूत स्तंभ हैं आशुतोष राणा और जिमी शेरगिल, जिनका अभिनय फ़िल्म को बांधे रखता है। यहां आशुतोष सकारात्मक किरदार में हैं और प्रभावशाली हैं। उन्हें देख कर एक बार फिर से आभास होता है कि हिन्दी सिनेमा ने इस अभिनेता को ढंग से इस्तेमाल नहीं किया। फ़िल्म के कुछ डायलॉग्स अगर क्लीशे है तो कुछ अच्छे भी हैं, फ़िल्म के कुछ सीक्वेंस प्रभावशाली ढंग से फ़िल्मए गए हैं और आप पर असर भी करते हैं।
यह फ़िल्म मुजफ्फर नगर के दंगो से प्रभावित होकर बनाई गई है, पर इसकी कहानी में सत्यता कितनी है यह कहना मुश्किल है। मेरी तरफ़ से इस फ़िल्म को 2.5 स्टार्स।
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