मुंबई:
'एक दीवाना था' की कहानी वर्ष 1981 में रिलीज़ हुई कमल हासन की फिल्म 'एक दूजे के लिए' से प्रेरित लगती है... दो अलग बैकग्राउंड वाले प्रेमी, और प्यार-शादी में ढेरों अड़चनें... कोंकणी मराठी ब्राह्मण सचिन (प्रतीक बब्बर) बेरोजगार है, फिल्म बनाना चाहता है, लेकिन जेस्सी (एमी जैक्सन) मलयाली ईसाई है और उसके घर में फिल्म देखना गुनाह है... लड़की उम्र में बड़ी है और दोनों के मां-बाप के बीच दूरियां हैं, सो अलग...
फिर भी पहली नज़र में सचिन को जेस्सी से प्यार हो जाता है, जो दीवानगी की हदें पार करने लगता है... घर के बरामदे, सड़कें, शॉपिंग मॉल, सब जगह प्यार की लुका-छिपी का खेल शुरू हो जाता है... प्रतीक ने प्यार की कशिश और जुनून को खूबसूरती से दिखाया है, और एमी भी पहली ही फिल्म में खासी कॉन्फिडेंट दिखाई दी हैं... वेलेन्टाइन डे के आसपास यह 'फ्रेश पेयरिंग' रंग दिखाने लगती है...
प्रेमियों की नोकझोंक और रोमांस के कई दिलचस्प पल चेहरे पर मुस्कुराहट ले आते हैं... लड़का कहता है, "मैं अच्छा इंसान हूं..." और लड़की जवाब देती है, "डैडी तब भी नहीं मानेंगे..."
म्यूज़िक में साउथ का एहसास है, 'होसाना...' जैसे गाने अच्छे बन पड़े हैं, और प्रतीक ने खासी एनर्जी के साथ डांस किया है... चर्च में शादी के कुछ अच्छे सीन्स हैं... 'शोले' के डायरेक्टर रमेश सिप्पी की शख्सियत के वजन ने कुछ सीन्स में जान फूंकी है... कहानी नई नहीं है, फिर भी बेहतर ट्रीटमेंट की वजह से इंटरवल तक तो एन्टरटेन करती है, लेकिन उसके बाद ढीली पड़ जाती है... लम्बे डायलॉग्स के साथ लव-हेट रिलेशनशिप, रूठना-मनाना और प्यार में कन्फ्यूज़न ऊबाने लगते हैं...
जिस लड़की के प्यार पर बाप और भाई का कड़ा पहरा है, उससे प्रेमी आसानी से कैसे मिल पाता है... मलयाली डायलॉग्स की भरमार है... काश, हिन्दी सबटाइटल्स चलाने के बजाए उन्हें हिन्दी में डब कर दिया जाता तो फिल्म के बहाव में भाषा की रुकावट पैदा नहीं होती...
आखिरी 20 मिनट में जान है... डायरेक्टर गौतम मेनन भले ही काफी लकी हैं, कि उन्हें आगरा के ताजमहल पर क्लाइमेक्स शूट करने का सुनहरा मौका मिला, लेकिन ईमानदारी की बात यह है कि वह इसे ढंग से भुना नहीं पाए, और कुल मिलाकर 'एक दीवाना था' एवरेज फिल्म बनकर रह गई... इसके लिए हमारी रेटिंग है - 2.5 स्टार...
फिर भी पहली नज़र में सचिन को जेस्सी से प्यार हो जाता है, जो दीवानगी की हदें पार करने लगता है... घर के बरामदे, सड़कें, शॉपिंग मॉल, सब जगह प्यार की लुका-छिपी का खेल शुरू हो जाता है... प्रतीक ने प्यार की कशिश और जुनून को खूबसूरती से दिखाया है, और एमी भी पहली ही फिल्म में खासी कॉन्फिडेंट दिखाई दी हैं... वेलेन्टाइन डे के आसपास यह 'फ्रेश पेयरिंग' रंग दिखाने लगती है...
प्रेमियों की नोकझोंक और रोमांस के कई दिलचस्प पल चेहरे पर मुस्कुराहट ले आते हैं... लड़का कहता है, "मैं अच्छा इंसान हूं..." और लड़की जवाब देती है, "डैडी तब भी नहीं मानेंगे..."
म्यूज़िक में साउथ का एहसास है, 'होसाना...' जैसे गाने अच्छे बन पड़े हैं, और प्रतीक ने खासी एनर्जी के साथ डांस किया है... चर्च में शादी के कुछ अच्छे सीन्स हैं... 'शोले' के डायरेक्टर रमेश सिप्पी की शख्सियत के वजन ने कुछ सीन्स में जान फूंकी है... कहानी नई नहीं है, फिर भी बेहतर ट्रीटमेंट की वजह से इंटरवल तक तो एन्टरटेन करती है, लेकिन उसके बाद ढीली पड़ जाती है... लम्बे डायलॉग्स के साथ लव-हेट रिलेशनशिप, रूठना-मनाना और प्यार में कन्फ्यूज़न ऊबाने लगते हैं...
जिस लड़की के प्यार पर बाप और भाई का कड़ा पहरा है, उससे प्रेमी आसानी से कैसे मिल पाता है... मलयाली डायलॉग्स की भरमार है... काश, हिन्दी सबटाइटल्स चलाने के बजाए उन्हें हिन्दी में डब कर दिया जाता तो फिल्म के बहाव में भाषा की रुकावट पैदा नहीं होती...
आखिरी 20 मिनट में जान है... डायरेक्टर गौतम मेनन भले ही काफी लकी हैं, कि उन्हें आगरा के ताजमहल पर क्लाइमेक्स शूट करने का सुनहरा मौका मिला, लेकिन ईमानदारी की बात यह है कि वह इसे ढंग से भुना नहीं पाए, और कुल मिलाकर 'एक दीवाना था' एवरेज फिल्म बनकर रह गई... इसके लिए हमारी रेटिंग है - 2.5 स्टार...
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